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■ पुस्तक समीक्षा. ■ ‘तुम प्रेम हो’.
♀ चिन्तनात्मक लघु निबंध ‘तुम प्रेम हो’.
♀ लेखिका भावना भट्ट.
♀ समीक्षक विजय कुमार तिवारी.
कुछ दिनों पूर्व सुरेन्द्रनगर, गुजरात से साहित्यिक पत्रिका “विश्वगाथा” का जुलाई-सितम्बर 2021 अंक और विचारक,चिन्तक व प्रतिष्ठित लेखिका भावना भट्ट जी का चिन्तनात्मक लघु निबंध संग्रह “तुम प्रेम हो” मिला।
धन्यवाद देने और आभार के निमित्त मैंने भावना जी से बातचीत की। किसी का व्यक्तित्व कैसे बड़ा और महान होता जाता है,यह उनसे मिलकर,बातचीत करके अनुभव हुआ। प्राचार्या के पद से मुक्ति लेकर भावना भट्ट जी स्वतंत्र चिन्तन और लेखन में लग गयी हैं। इससे भी बड़ी जिम्मेदारी उन्होंने सम्हाल ली है,घर के तीन वृद्धजनों की सेवा का। आजकल ऐसे लोग कम मिलते हैं। ईश्वर भावनगर की भावना भट्ट जी की भावनाओं को सम्बल दे। उन्होंने जैन मुनि की गुजराती पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद का गुरुतर दायित्व भी उठाया है।
आज के भागते-दौड़ते जीवन में आपाधापी मची हुई है,सभी भाग रहे हैं,दौड़ रहे हैं और इस भागम-भाग में सब के सब अशान्त,क्लान्त,दग्ध-हृदय हो, व्यथित और दुखी हैं। भावना जी ने पुस्तक का समर्पण अपने माता-पिता को करते हुए, महाभारत में द्रोपदी के मुख से निकला बहुत सुन्दर उद्धरण दिया है-
“त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।”
92 पृष्ठों के इस संग्रह में कुल 62 लघु निबंध हैं। मेरी रुचि का होने से, बड़े ही मनोयोग से मैंने हर निबंध को पढ़ा है, समझने की कोशिश की है और विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ कि भावना जी का मनन-चिन्तन किसी दिव्य, जागृत आत्मा का बन पड़ा है। उनकी यात्रा संसार तक ही नहीं रुकती, उनकी प्राण-चेतना उर्ध्वगमन करती हुई बहुत कुछ अनुभव करती है। वे संसार-परित्याग के भाव को नकारती हैं और संदेश देती हैं कि संसार में रहकर ही ईश्वर भी सधता है।
पुस्तक के प्रथम निबंध “कृष्ण—जीवन के उर्जास्रोत” में उन्होंने लिखा है,”कृष्ण एक ऊर्जा है। कृष्ण को सोचना,कृष्ण को लिखना, कृष्ण को गाना और कृष्ण को जीना—सब कुछ सुखद है।” भावना भट्ट के इस छोटे से निबंध के माध्यम से सम्पूर्ण कृष्ण को मानो यथार्थतः समझ लिया है। वे लिखती हैं-कृष्ण एक अजेय योद्धा है—वह सदैव स्थिर मिले—-उनके भीतर का कोई कोना राधा की स्मृतियों के लिए रिक्त है,आरक्षित है। वही रिक्तता कृष्ण के जीवन की,कृष्ण के अवतार कार्यों को अंजाम देने की ताकत बनी। कृष्ण विष्टिकार होते हुए भी महाभारत में साक्ष्य बनकर खड़ा मिले। कृष्ण को पकड़ना,समझना कठिन है। जहाँ से बाँधो, वह छूट जायेगा। एक ही बंधन स्वीकार है उसे,वह है प्रेम। वह केवल प्रेम से बँधता है। कृष्ण मार्गदर्शक है, चाहे जो परिस्थिति हो,वह सदैव साथ खड़ा मिलता है। वह निश्छल है,सरल है,सहज है। प्रेम से पुकार लो,मिल जायेगा।
“मन रे—तू काहे ना धीर धरे—” निबंध में भावना भट्ट जी कहती हैं,”मन कर्मों का कारक भी है और निवारक भी है—मन चंचल है—-सदैव भागता रहता है—मन भोगो को भोगना चाहता है—और भोगता भी है।” उन्होंने मन के बारे में संक्षेप में बहुत सुन्दर लिखा है। उसी तरह से “प्रशंसा–एक सहज साध्य कला” में प्रशंसा की अद्भुत विवेचना की हैं। “अर्ध विराम” के माध्यम से तनिक रुकने,ठहरने और थोड़ा विचार कर लेने का संदेश देती हैं। प्रकृति में प्रवाह है,गतिशीलता है,निरन्तरता है,धैर्य और सहनशीलता है। इस क्रम को समझना और तदनुसार सक्रिय होना, जीवन-ऊर्जा को संतुलित करता है। बहुत गहन अनुभव और चिन्तन से ही ऐसी समझ हो पाती है। “बुद्धत्व की ओर–” के छोटे निबंध में बुद्ध के जन्म लेने की सटीक प्रक्रिया बतायी गयी है। भावना भट्ट जी की लेखन शैली विलक्षण है और शब्दों का चयन उनके निबंध को गम्भीर स्वरूप प्रदान करता है। गहन अनुभूति जगाता निबंध “स्पर्श की भाषा’ में भावना जी लिखती हैं, “जीवन की सुखद यात्रा का शुभारम्भ है—स्पर्श,–प्रेम की यात्रा का शुभारम्भ है–स्पर्श,–स्पर्श न केवल संवेदना है,बल्कि स्पर्श संजीवनी है।” ऐसी गहराई बिना चिन्तन के सम्भव नहीं है। “तुम प्रेम हो–” शीर्षक नामक निबंध को ही संग्रह का नाम देकर भावना जी ने अपने अनुभूत जीवन में प्रेम को सर्वोपरि माना है। अपनी साधना-भक्ति में ईश्वरीय चेतना का अनुभव करते हुए वे कहती हैं,” प्रकृति में समाये प्राण की तरह ही तुम मुझमें व्याप्त थे और मैं अपनी परिधि को त्यागकर पूर्ण थी। पूर्ण की प्राप्ति ही पूर्णता दे सकती है और माध्यम होता है केवल प्रेम–।”
“बारिश—ममतामयी एहसास” निबंध में ग्रीष्म के बाद बरसात शुरु होने पर प्रकृति में अद्भुत बदलाव होता है। भावना जी की अनुभूति की उड़ान देखिये,लिखती हैं,”यह बारिश—संगीत है—मां का स्पर्श है—शिशु सा कोमल एहसास है—गाइये तो गीत है—लिखिए तो कविता है–पढ़िए तो ईश्वर का भेजा हुआ प्रेम पत्र है।” आगे लिखती हैं,”ग्रहण करिए तो प्रसाद है—वरण करिए तो विकास है–गतिमान जीवन की हस्तरेखा,क्रियमाण जीवन की भाग्यरेखा,कृष्ण प्रेम का प्रमाण,बिरही राधा की अश्रुधार,कल्याणमयी शिवा,घृतों में गव्य,रागों में मल्हार,फूलों में कचनार,जन-जन के चेहरे पर खिली मुस्कान और बारिश परितृप्ति का आह्लाद है।” ऐसी अनुभूतियों से भरे उनके कवि मन को नमन कीजिए। उसी तरह से उन्होंने,सूरज की किरण,सम्पन्नता,आस्था का दीप,प्राप्त ही पर्याप्त है,ईश्वर प्रेम है और उत्सव जीवन के रंग जैसे निबंधों को लिखने के क्रम में अद्भुत भावाभिव्यक्ति दिखायी है।
“जीवन के दो प्राप्तव्य प्रेम और ज्ञान” उनके सम्पूर्ण चिन्तन का जैसे निचोड़ है। “हमारा भारत” में उनका मन गाँवों की ओर लौटता है। गाँव पहुँचती हैं, लिखती हैं,”सच में मैं आज मिली हूँ खुद से। मिली हूँ अपने भारत से। अपना भारत, गाँवों में ही तो बसता है।”
“ईश्वर का चेहरा,शिव और कृष्ण,प्रकृति और ईश्वर,राधा–एक पहेली,मैं शब्द हूँ,बेबस है ईश्वर भी,मौन,श्रद्धा और समर्पण,तुम ही तो हो और पूर्ण विराम जैसे लेख उनके मनन-चिन्तन को अलग ऊँचाई तक ले जाते हैं। मानवीय संवेदना,प्रकृति से लगाव और ईश्वर की उपस्थिति उनके निबंधों में सर्वत्र देखा जा सकता है। संवाद,हार,सवेरा,गोकुल,मौजूदगी,रंगरेज,आओ न तुम–, सफलता,सुख,हरसिंगार के फूल जैसे निबंध उनका ईश्वर के साथ उठने-बैठने जैसा है। भावना जी जागते-सोते ईश्वर की अनुभूति लिए रहती हैं जैसे हमेशा उन्हीं से बातें करती रहती हैं। किसी भी मनुष्य की यह चरम अनुभूति है। ईश्वर उनके जीवन में अवरोहण करता है और भावना जी उनकी उपस्थिति में ही सब कुछ करती हैं।
उन्होंने विद्यालय के प्राचार्य पद का त्याग 51 साल की आयु में ही कर दिया और घर में अपने बुजुर्गों की सेवा में लग गयीं। घर के लोगों के प्रति कर्तव्य बोध से उनके भीतर की त्याग भावना जाग उठी और उन्होंने वह किया जो बहुत कम लोग करते हैं। हिन्दू सनातन के साथ-साथ उन्होंने जैन मुनियों की पुस्तकों को पढ़ा, समझा है। जैन मुनि की गुजराती भाषा की पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद का बड़ा दायित्व उन्होंने अपने कंधे पर उठाया है। उनका काव्य संग्रह “तुम कहा हो?” पहले ही बहुत चर्चित रहा है।
मुझे भावना भट्ट जी को पढ़ते हुए उनके गहन चिन्तन की अनुभूति होती रही। घर-गृहस्थी सम्हालते हुए भावना जी कविता,कहानी,लघुकथा और धार्मिक/आध्यात्मिक निबंध लिखकर समाज की बड़ी सेवा कर रही हैं। उनके उज्ज्वल भविष्य व सफल जीवन की कामना करते हुए कहना चाहता हूँ कि लोग उन्हें पढ़ें,समझें और अपने जीवन को धन्य करें।
[ ●विजय कुमार तिवारी का जन्म उत्तरप्रदेश के बलिया में हुआ. ●विजय जी की ई-पुस्तक के रूप में तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई. ●देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में विजय जी की कहानी,लेख,कविताएं और पुस्तक समीक्षा प्रकाशित होते रहती है. ●’छत्तीसगढ़ आसपास’ के लिए विजय कुमार तिवारी की पहली रचना पुस्तक समीक्षा प्रकाशित कर रहे हैं. ●वर्तमान में आप भुनवेश्वर उड़ीसा में हैं. – संपादक ]
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