■कविता आसपास ■तारक नाथ चौधुरी
♀ शीत-ऋतु की दो कविताएं
■1.
ग्रीष्म गई जलते-भुनते
और बरखा रोते-रोते।
अब तो आ गई शीत ऋतु,
चलो ओढ़ रजाई सोते।।
*
सूरज क्या अनुशासन भूला?
नियत समय दिखता ही नहीं।
उसके द्वार ये धुँआसा कैसा
प्रातः पूरब हँसता नहीं।।
रवि तुम्हारी किरणों से ही
विहग हाथ-मुँह धोते,
चलो ओढाई रजाई सोते…
*
पत्तों के आँचल में हर निशि
शीत जो रख जाती मोती।
अरूण-रश्मि से लुटता देख उन्हें
छुप-छुपकर बेबस रोती।।
और निठुर नृप धूप लखकर यह
मन ही मन खुश होते,
चलो ओढ़ रजाई सोते…
अब तो आ गई शीत ऋतु,चलो ओढ़ रजाई सोते।
■2.
हे शीत!
बाँट देते हो तुम
अपनी ठिठुरन सबमेंं
समान-समान
किसी-
आदर्शवादी समाजवादी की तरह
और भूल जाते हो हर बार-
इसके सामंतवादी परिणाम
कि कुछ तो-
मर जाते हैं फुटपाथ पर ही-
तुम्हारी अस्थि-बेधक लहर को
न सह पाकर और कुछ –
तुम्हें ही अवहेलित पडा़ रहने देते हैं-
अपनी कश्मीरी शाॅल के उस तरफ।
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■83494 08210
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