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  • ■शैशव की स्मृतियाँ : नाना के संग- ‘सतभावां’. ■डॉ. सत्यभामा आडिल.

■शैशव की स्मृतियाँ : नाना के संग- ‘सतभावां’. ■डॉ. सत्यभामा आडिल.

3 years ago
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लोग याद करते हैं नानी-दादी को मैं किसे याद करूँ?
मैंने नानी को देखा नहीं , क्योंकि माँ की शादी के एक साल बाद ही नानी चल बसीं।
नानी–का नाम “,माना बाई” था । 5 बेटे व 2 बेटी को जनम दी। मेरी माँ ,एक बड़ी बहन व4 मामा के बाद थीं।मां से छोटे एक मामा थे।
मां सबकी लाडली थीं। 2 बड़े मामा की बेटियां मां की उम्र की थीं–बहन या सहेली की तरह।सो मां को बहुत लाड़ प्यार मिलता था। मां की शादी के 9 माह बाद ही नानी का निधन हो गया। नाना दाऊ रामभरोसा मढ़रिया मालगुजार थे।गांव महका खुर्द। नाना के पूर्वजों का 5 गांव था। महका खुर्द, पहडोर,पचपेड़ी,ढाबा,
लिमतरा ! एक -एक गांव में एक एक पूर्वज का वंश रह रहा था।मेरी नानी का मायका खोरपा (पाटन) था। वे स्वतंत्रता सेनानी भंगीराम आडिल की बहन थी। भंगीराम आडिल के ज्येष्ठ पुयर हिम्मतराम आडिल भी स्वतंत्रता सेनानी रहे। मेरे नाना व 5 मामा सभी गांधीवादी व राष्ट्रीय विचारधारा के देश भक्त थे।
सभी खादी के वस्त्र पहनते थे।नानी की तीजाही साड़ी भी तिरंगे किनार वाली ,खादी की ही साड़ी ली जाती थीं। मेरा खादीप्रेम। यहीं का संस्कार है।
ऐसे आदर्शवादी परिवार में मेरी माँ जमुना बाई का जन्म हुआ था। मेरे ननिहाल में
5 मामियाँ, 5 मामा व नाना थे। यही मेरा ननिहाल था। 2 बड़े मामा के बेटे-बेटियाँ तो मेरी माँ के समकालीन आयु की थीं और उनके बच्चे मेरी आयु के थे। बस छोटे 3 मामा के लड़के व लड़कियाँ मेरी उम्रदराज थी। तो गर्मी की छुट्टियाँ बड़े मजे से कटतीं। नानाजी जब गए, तो मैं 7 वीं कक्षा में थी। हम जगदलपुर से दुर्ग आते थे, गर्मी की छुट्टियाँ मनाने!
गाँव का आलीशान बाड़ा। बाहर बड़ा खुला बैठकखाना जिसे “बरवट” कहा जाता था! नानाजी 3 बजे रामायण बांचते। सस्वर दोहा चौपाई गाते व अर्थ कहते । पूरा गाँव श्रोता समूह होता। बैठकखाना के खुले बरामदे से लेकर बाहर आँगन से चौपाल तक भीड़ रहती। जब मैं जाती तो नाना मेरी मदद लेते। कैसे? मैं फूल पान, जल, अगरबत्ती, रामायण व पाटा जमाती। मेरा आनन्द बढ़ जाता। नाना की बहुत दुलारी नातिन थी मैं। घर के और किसी बच्चे को इसमें रुचि नहीं थी। सो मैं नाना की अकेली मित्र थी। 3 ममेरी बहनें व 2 भतीजियाँ भी थीं, पर उन्हें कोई रुचि नहीं। नाना का प्रवचन मेरे लिए बचपन से ही एक प्रकाशपुंज की तरह रहा।
मेरी रुचि ने ही मुझे नाना की लाड़ली बना दिया।
सुबह उठते ही हम चार लड़कियाँ (शांति, अहल्या, शशि और मैं) चौकड़ी भरते खेत व मैदान की ओर जाते, वहीं से तालाब जाकर नहा धोकर आते। उन दिनों घर पर शौचालय नहीं हुआ करता था ,अतः मुंह अंधेरे ही उठ जाया करते थे। गीले कपड़े सुखाना, सूखे कपड़े पहनना, कंघी करना। तब तक मामियां कंडे जलाकर मोटी रोटी सेंक कर देती, जिसे हम घर में बने शुद्ध घी व गुड़ के साथ खाते। कभी कभी “बासी” भी खाते ,प्याज व आम के अचार के साथ। दही भी मिलाते। यह सुबह का प्रिय नाश्ता होता था। फिर हम बाड़ी में आम तोड़ते। फ्रॉक में लपेटकर लाते, मामी चटनी पीसती खुश होकर । नाना का घुड़साल भी था। वहाँ एक घोड़ा व एक घोड़ी थी। नाना अक्सर मुझे घोड़ी पर बैठाकर पास के गाँव (नाम पन्हडोर) जाते थे, अपने भाई के घर। नाना के भाई का एक बेटा था जिसका एक पाँव छोटा था, तो मैं उन्हें “खोरवा मामा” बोलती थी। वे भी अपने घोड़े में कभी-कभी हमारे गाँव आते थे, मेरी माँ व मुझसे मिलने ।

गाँव पार करते बीच में “महुआ” का जंगल था। महुआ की खुशबू से में मदमस्त हो जाती थी। नाना से बोलती “नाना चलो पेड़ के नीचे बैठ जाएं।” पर, नाना नहीं मानते थे।
“कहते– अरे लौटने में देर होगी, तो दोपहर को “परेतिन” (प्रेतनी) रास्ता रोक लेगी। मैं डर जाती। दोनों गाँव की दूरी मात्र 2 किलोमीटर थी। लेकिन गाँव घूमने व घोड़ी में चढ़ने का आनन्द ही कुछ और था। कभी हम वहीं से खाना खाकर लौटते। कभी अपने गाँव आकर खाते।
इन छुट्टियों में खाने का अपना मजा था। मामियाँ रोज अमरस-रोटी खिलातीं। फिर दालभात के साथ दही वाली खट्टी सब्जी- जैसे कुम्हड़ा, भिंडी, मूली भटा, मसूर बटकर (कढ़ी), जिमीकन्द, खेड़हा आदि। ये सब दही में बनती हैं। इसमें आम की कैरी फांक भी डालते। ये सब गर्मी के आइटम हैं। छत्तीसगढ़ में वैसे भी खट्टी सब्जी के प्रकार बहुत होते हैं। दाल की आवश्यकता नहीं होती।
खाना खाकर सब एक- दो घण्टे सो जाते। 3 बजे उठकर सब लोग सत्तू खाते। मामियां। सत्तू बहुत बनाती थीं। बचपन से ही मुझे गर्मी में सत्तू। खाने की आदत पड़ गयी, जो अब तक विद्यमान है। सत्तू खाकर मैं नाना के
साथ रामायण में बैठती । बाकी लोगों का ग्रुप अलग हो जाता। 5 बजे तक रामायण समाप्त। सारे लोग रामजी की आरती गाते और “राम राम” का अभिवादन करते हुए घर जाते । मेरा काम रामायण समेटना होता। नाना को सब लोग प्रणाम करते, तो नाना उनको तांबे के लोटे में भरा तुलसी जल तीन तीन चम्मच उनकी हथेली में डालते, जिसे पीकर वे घर जाते।। फिर हम
रात में पंक्ति बद्ध होकर भोजन करने बैठते, तो 17 बच्चे- दो लाईन में बैठते। कांसे की बड़ी-बड़ी थालियाँ, कांसे के लोटे में पीने का पानी बाँई ओर-,- सनातनी नियम का पालन। थाली में हाथ नहीं धोते। भोजन करने बैठने से पहले हाथ-पैर धोना अनिवार्य ।
नानाजी व दो बड़े मामा जी खड़ाऊँ पहनते थे। खट खट आवाज से पता चल जाता कि वे आ रहे हैं। बच्चों के बाद नाना, मामा, बड़े भैया यानी 10 लोग- खाने बैठते, बाद में 5 मामियाँ व तीन भाभियाँ व तीन बड़ी दीदी लोगों की पारी आती खाने की! मेरी माँ व उनकी सबसे बड़ी बहन मामा लोगों के साथ खाने बैठतीं ।इतना विशाल परिवार पूरे डेढ़ माह एक साथ रहते। रात्रि का आनन्द तो और भी गजब का। पूरे आँगन में 12 खटिया बिछाई जातीं। बाजू में दूसरा बाड़ा भी था। वहां भी 10-12 खाटें बिछाई जातीं।
अब हम जहाँ सोते, हमारी बड़ी माँ “इंदा बाई” की भूमिका ही नानी की भूमिका होती थी। कैसे? बस वही तो हमें कहानी सुनाती थीं- आधी रात तक राजा रानी, सौदागर •हीर परी, चित्ती डिब्बी, विक्रम वेताल, जादू की डिबिया !ओह न जाने क्या क्या जादुई किस्सा!
तोता मैना, हीर रांझा, आल्हा ऊदल ! ये सारी कहानियाँ डेढ़ माह तक चलने वाली धारावाहिक श्रृंखला थी जिसके मोहजाल में
हम बंधे रहते थे। जब छुट्टियाँ खत्म होने के दिन आते, तो दिल रोने लगता ।
हम डेढ़ माह नाना के घर, फिर एक सप्ताह के लिए पिताजी के गाँव भी जाना पड़ता था ! पिताजी का गांवक नाम पन्दर (पाटन) था। वहां ताऊजी, बड़ी मां, चाचा-चाची व बड़ी दादी रहती थीं। मेरे दादाजी का देहावसान ,तब हो गया था,जब पिताजी खम्हनलाल। वर्मा ,सेंटपाल हाई स्कूल में 11वीं। में पढ़ रहे थे। मेरी दादी निधन जगन्नाथपुरी में ,महामारी में हुआ था,जैसे आजकल कोरोना की महामारी फैली हुई है। उस समय मैं 4 वर्ष की थी।मेरी दादी मुझे बहुत प्रेम करती थी। वे अत्यधिक धार्मिक स्वभाव की निश्छल भक्तिन थीं। मुझे उनकी याद है। मेरे दादा घनश्याम वर्मा अत्यधिक रामायण प्रेमी थे–नानाजी की तरह ।आज भी पुराने लोग बतलाते हैं कि “पाटन अंखरा।” में जो जगन्नाथ मंदिर बनाया गया है,उसके निर्माण में मेरे दादाजी की भी बड़ी भूमिका थी,सहयोग था।
तो न तो मेरे भक्तवत्सल दादा थे, न ही मेरी प्रिय भक्तिन दादी जीवित थीं। मेरी बड़ी दादी बहुत कठोर व कर्कशा थीं। उनमें स्वार्थ भी था।हमारे लिए वहाँ का कोई आकर्षण नहीं था ।। चाचियों में भी आपसी सौमनस्य नहीं था। केवल पिताजी के भाइयों में आपसी प्रेम था , तो परिवार चल रहा था। हां, एक विशेष बात यह होती कि बस एक सप्ताह के लिए मुझे पढ़ाने के लिए एक शिक्षक आते थे।
क्यों आते थे,? क्योंकि मुझे पढ़ाने का संकल्प लिया था मेरे पिता ने। क्यों लिया था?
जब मैं 8 साल की हो गयी ,तब तक मेरी माँ की दूसरी सन्तान नहीं हुई थी।तो बड़ी दादी ने पिताजी से दूसरी शादी करने को कहा।पिताजी नहीं माने,संकल्प किये–“मैं अपनी बेटी को लड़के से भी अधिक,पढ़ाऊंगा और कुछ खास बनाकर बताऊंगा।” उनके संकल्प को पूरा करने में मेरे छोटे काका दानीराम वर्मा जी भरकर साथ देते। बस यही कारण है कि मेरी पढ़ाई का प्रबंध गांव में भी किया जाता था। उन्हीं काका स्व, दानीराम वर्मा के नाम पर “मर्रा” के शिक्षण संस्था का नामकरण किया गया है-मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के द्वारा। भूपेश बघेल के पूज्य गुरु थे–काका दानीराम वर्मा।
इस तरह एक सप्ताह पन्दर ग्राम में व्यतीतकर हम
जगदलपुर वापस चले जाते थे। मेरे हाई स्कूल पास होते तक ऐसा ही चला। पर 7 वीं कक्षा में पढ़ते-पढ़ते नानाजी का स्वर्गवास हो गया।
पता चला—निधन से पूर्व पंडित जवाहरला नेहरू को भिलाई स्टील प्लांट के लिए जमीन। सौंप गए।पं, नेहरू ने प्लांट की भूमि पर नानाजी को प्रणाम किया।हमने देखा नहीं ,पर उनके निधन के बाद,लोगों ने मां व पिताजी को यह घटना बताई।चले गए मेरे नाना महान विभूति बनकर और मेरा
रामायण वाला प्रसंग छूट गया सदा के लिए! मेरी यादों में बस गए नाना! लेकिन हमारा बाकी मनोरंजन आगे जारी रहा । मैं कॉलेज में आ गयी तब भी बड़ी माँ कहानी सुनाती रही, उसी तरह।
मेरे बचपन में एक आनन्ददायक बात यह भी रही कि- मेरा नाम “सतभावां” पुकारा जाता रहा । सत्यभामा-का- देशज रूप- “सतभावां!” “सतभावां”-पुकारा जाना मुझे सदा भाया! मेरे नाना पुकारते- “सतभावांऽ S S S” और मैं दौड़ती भागती चली आती, लिपट जाती उनसे। मामा-मामी बड़ी माँ पुकारती- “सतभावांS S S”। मैं दौड़ती चली आती। मुझे बहुत अच्छा लगता यह देशज नाम “सतभावां!
तो ये संस्मरण, मेरे नाना के घर पर गर्मी की बिताई छुट्टियों का!! मेरे पूर्वजों को नमन करते हुए,–जिन्होंने मुझे संस्कारित किया!

[ डॉ. सत्यभामा आडिल छत्तीसगढ़ की सुप्रसिद्ध लेखिका हैं.]

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