■कविता आसपास : विजय कुमार तिवारी [ भुनेश्वर-ओडिशा ]
■दुखराग
उस नन्ही सी बच्ची को देखो,
खुश है कि कोई देख रहा है उसे,
सहला,पुचकार रहा है,खेल रहा है उसके साथ।
बस,इतना ही करना है,सब इतना ही चाहते हैं,
यह आकाश सबका है,धरती और सारी रश्मियाँ,
सारी वनस्पतियाँ और सारी मानवता।
कोई उदास निहारता रहता है,अपनी पनीली आँखों से,
देख तो लो उसकी ओर मुस्कराकर,
शायद वह भी मुस्कराये,निकल तो आयेगा ही
अपनी उहापोह से,अपने जज्बातों और दुखों से।
हो सके तो बैठो उसके पास,ठंडापन दूर हो जायेगा,
दुनिया उसे,उम्मीदों भरी नजर आयेगी,
शायद वह भी दे सके कोई सीख,कोई ज्ञान।
उसके दुखराग को कविता समझो,कोई बहुत जरूरी कहानी
उसकी आँखों में झाँको,बहुत समानता दिखाई देगी,
मैं हमेशा हैरान होता हूँ,कितना कुछ पा जाता हूँ,
तनिक पास बैठकर,मुस्कराकर या उनकी आँखों में झाँककर।
■साल के अंतिम दिन का तलछट
उस दिन उसकी मुस्कराहट जानलेवा थी,
मर मिटना स्वाभाविक था मेरा,
तब से चल रही है जिन्दगी दो पाटो के बीच,
अभी-अभी उभर आयी है कोई घृणा,
प्रेम के बदले,कुछ बुदबुदाई है,
ऐसा सदियों से होता आया है,
अपनी जगह वह भी सही है और मैं भी।
न उसका प्रेम मरा है और न मेरा,
दोनों जिस दुनिया में रहते हैं,
ऐसा ही होता है,ऐसा ही हो सकता है,
वह भी समझती है और मैं भी।
समझौता कर लो,छिपा लो सब कुछ,
फिर भी निकल ही आते हैं तलछट की तरह
उभर ही आते हैं भीतर पड़े हुए उद्वेग,
कर ही देते हैं व्यग्र और बेचैन,
कुछ सोचकर हँसती है वह और मैं भी।
जन्मों से छिपे हुए संस्कार समेटे रहते हैं,
रह-रह कर उभरते हैं परिस्थितियों के सहारे,
तब मुस्कराता हूँ मैं और वह भी।
हालात के मारे बिफरती रहती हूँ,दुखी होती हूँ,
तुम भी तो बदल से जाते हो,कुछ समझते नहीं,
सम्हाल लिया करो मेरे बिखरावों को,
समेट लिया करूँगी तुम्हारी सारी चिन्ताएं,
समझा करो तुम और मैं भी।
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