■इस माह के कवि : समीर उपाध्याय [गुजरात].
♀ हिंद की रूह है हिंदी.
हिंद की रूह है हिंदी।
संस्कृत की बख़्शीश है हिंदी।
इंसानियत का पैग़ाम है हिंदी।
हिंद की रूह है हिंदी।
इश्क़ की इबारत है हिंदी।
उल्फ़त का इज़हार है हिंदी।
हिंद की रूह है हिंदी।
अल्फ़ाज़ का इक़बाल है हिंदी।
साहित्य का आब-ए-हयात है हिंदी।
हिंद की रूह है हिंदी।
गुल का गुलदस्ता है हिंदी।
इत्र की ख़ुशबू है हिंदी।
हिंद की रूह है हिंदी।
हिंद का अफ़साना है हिंदी।
जहां का जश्न है हिंदी।
हिंद की रूह है हिंदी।
गुफ़्तगू का लहज़ा है हिंदी।
अपनेपन का एहसास है हिंदी।
हिंद की रूह है हिंदी।
ख़ुदा की बंदगी है हिंदी।
रब की रहमत है हिंदी।
हिंद की रूह है हिंदी।
मिट्टी की महक है हिंदी।
मंद शीतल ‘समीर’ है हिंदी।
♀ पेड़ की व्यथा.
मैं एक पेड़ था।
मेरा तना सख़्त था और
हरी-भरी शाखाएं थीं।
मैं सुमन की सुवास फैसला था और
रसभरे मीठे फ़ल देता था।
मैं पत्तों की मर्मर ध्वनि और
पंछियों का मधुर कलरव सुनाता था।
मैं घनी शीतल छांव से
मुसाफ़िरों को सुकून देता था।
लेकिन
एक दिन धारदार कुल्हाड़ी से
मुझे काट दिया गया।
मैं धराशायी हो गया।
मेरे तने को काट-काटकर
टुकडे-टुकडे कर दिए गएं।
मेरे टुकड़ों को मशीन में डाला गया।
उन टुकड़ों से कारीगर ने अपनी कारीगरी से
एक भव्यातिभव्य राजसिंहासन का निर्माण किया।
आज मैं एक वृक्ष से
राजसिंहासन में तब्दील हो गया हूं।
मुझे राजभवन में पहुंचा दिया गया है।
आज मुझ पर एक ऐसा व्यक्ति बिराजमान है
जो झूठे वादें करके
झूठी कसमें खाकर
मतदाताओं को रूपए से खरीदकर
धाक-धमकियां देकर
ईवीएम मशीन में घोटाला करके
जाति और धर्म के आधार पर
चुनाव जीतकर आया है।
सत्ता के नशे में इतना चकनाचूर हो गया है
कि आम जनता को भूल गया है।
एयरकंडीशन गाड़ियों में घूमता रहता है
और बाढ़ या आपत्ति के समय
हैलिकॉप्टर में बैठकर नज़ारा देखता रहता है।
काण्डों और घोटालों में जिसका नाम
देशभर में गूंजता रहता है,
फिर भी निर्दोष छुट जाता है।
कागज के चंद टुकड़ों की खातिर
अपने ईमान को बेच देता है।
लांच,रिश्वत और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है।
बेचारी जनता का हाल-बेहाल है
लेकिन परपीड़ा को समझें कौन?
मैं तो परदु:खभंजक था।
मैं खुद कड़ी धूप सहता था और
मुसाफ़िरों को शीतल छांव देता था।
इतना ही नहीं मीठे फल खिलाकर
उनकी भूख मिटाता था।
इसलिए बड़ा दुःख होता है
जब ऐसा भ्रष्ट, स्वार्थी और सत्तालोलुप व्यक्ति
मुझ पर आसिन होता है।
मेरी आत्मा चित्कार कर उठती है:-
हे ईश्वर!
मुझे फिर से हरा-भरा वृक्ष बना दो
ताकि मैं पंछियों का बसेरा बन सकूं।
लोगों को सुगंधित पुष्प और मधुर फल खिला सकूं।
थके-हारे मुसाफिरों को शीतल छांव दे सकूं।
हे ईश्वर!
मुझे फिर से हरा-भरा वृक्ष बना दो
ताकि मैं अपने अस्तित्व को सार्थक कर सकूं।
मैं अपने अस्तित्व को सार्थक कर सकूं।
मैं अपने अस्तित्व को सार्थक कर सकूं।
■कवि संपर्क-
■92657 17398
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