■समीक्षा : काव्य संग्रह ‘काव्य गंगा’.
■संपादक-एस पी जायसवाल.
■समीक्षक-गिरीश पंकज.
♀ ‘काव्य गंगा’ यानी भावनाओं का निर्मल-प्रवाह.
– गिरीश पंकज
कवि एसपी जायसवाल के काव्य संग्रह का शीर्षक ‘काव्य-गंगा’ ही कवि की पवित्र-सोच का परिचायक है । न केवल गंगा मुक्तिदायिनी है वरन प्रकारान्तर से कविता भी हमें मुक्त करती है । कवि की हर कविता जीवन के विभिन्न आयामों का संस्पर्श करने की कोशिश करती है। इस संग्रह की भी लगभग सभी कविताएं जीवन के इर्द-गिर्द घूमती हैं, इसलिए कवि परी की बात करता है। मधुमास को भी देखता है। वह बरगद की छांव में बैठता है। मृगनयनी को भी निहारता है और प्यार की बगिया का भी दर्शन करता है। कविता में होली भी है । सावन की धूल भी है । स्वर्ग की कल्पना भी है। सुबह की मनभावन सैर भी है। श्रमवीरों का भी वंदन है। दीपोत्सव भी है। कवि की दृष्टि मजदूर पर भी पड़ती है । वह पक्षियों की उड़ान को भी देखता है। वह सत्कर्म का भी आह्वान करता है । यानी एक संपूर्ण दुनिया को निरखने की कोशिश कवि ने की है। बहुरंगी भावनाओं से परिपूर्ण कविताएं कवि की उन्नत दृष्टि की ही परिचायक हैं। अपनी कविता ‘परी’ में कवि ने जिस सुंदर ढंग से परी के उतरने का वर्णन किया है, वह अपने आप में एक सुंदर जीवंत दृश्य प्रस्तुत करने में सफल हो जाता है। ऐसा लगता है कवि नरेट कर रहा है और सामने परी उतर रही है। उनकी कविता ‘मलमल’ पाठक को रोमांटिक बना देती है। मलमल को तो जैसे हम लोग भूलते ही जा रहे हैं । कवि ने एक तरह से अतीत के मधुर स्मृतियों में लौटकर मलमल को फिर से हमारे चर्चा के केंद्र में स्थापित कर दिया है। मलमल का कोमल स्पर्श इस कविता के माध्यम से साफ-साफ महसूस किया जा सकता है। पाठक पढ़ेंगे तो मेरी बात को स्वीकार करेंगे। कवि जब ‘मधुमास’ लिखता है, तो आंखों के सामने मधुमास भी जीवंत हो जाता है । कोयल की सुरीली तान बगीचे में गूंज उठती है। गुनगुनाती हुई मादक हवा बहने लगती है और कामिनी प्रेम के उल्लास में डूब जाती है । भौंरें बगीचे में मदमस्त होकर घूमने लगते हैं और कवि कह उठता है, “गुनगुनाती है हवा मद भरे मधुमास में / गीत गाते अलिगण यहां/ गुंजार करते बाग में/ रसपान करते पुष्प का/ देखो प्रेम और विश्वास में /गुनगुनाती है हवा / मद भरे मधुमास में।”
हर कोई कवि नहीं हो सकता क्योंकि सभी के हृदय में संवेदना की गंगा उस तरह नहीं लहराती,जैसी किसी कवि के अंतस में लहराती है । वैसे देखा जाए तो मां सरस्वती की आराधना का अधिकार सबको है । इस आराधना के लिए कोई पात्र निर्धारित नहीं है। जिसके मन में कविता का अंकुर फूट जाए, वह लिखने लगता है। इसी कड़ी में मैं एसपी जयसवाल को देखता हूँ। उनकी पांडुलिपि मेरे सामने है और मैं महसूस कर रहा हूँ कि इस कवि को मां शारदा का आशीर्वाद मिला है, और इन्होंने कुछ सार्थक कहने की सफल कोशिश भी की है। अपनी प्रथम कविता में कवि माँ शारदा से जिस भावनापूर्ण तरीके से महाकाव्य लिख सकने की क्षमता देने का आग्रह करता है, दोहा, सोरठा, छप्पय, कुंडलिया और चौपाई आदि के सृजन कर पाने का आग्रह करता है,यह अपने आप में बड़ी बात है । इसका मतलब यह है कि कवि भविष्य के श्रेष्ठ कवियों में शुमार होना चाहता है। कवि जायसवाल की कविताएं अभी भले ही प्रारंभिक अवस्था में हैं, लेकिन जिस तरह की उन्नत भावनाओं से समस्त कविताएं लबरेज हैं, उन्हें देख कर मैं आश्वस्त हूं कि छत्तीसगढ़ को भविष्य में एक सफल कवि प्राप्त हो सकता है। उनके अनेक विषय एकदम नए हैं, जिन पर बहुत कम कविताएं लिखी गई हैं। घी का लड्डू भले ही टेढ़ा हो लेकिन उसके स्वाद में कोई कमी नहीं आती। इनकी ये तमाम कविताएं मुझे उसी घी के लड्डू की तरह लग रही हैं। शिल्प की दृष्टि से ये भले ही कहीं कुछ कम प्रतीत हों, लेकिन भावनाओं का माधुर्य इन सब में भरा हुआ है। इस निकष पर इस संग्रह का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
कवि जायसवाल की एक और अनोखी कविता इसमें है ‘सिंदूरदान’ इस विषय पर मैंने बहुत कम कविताएं देखी हैं । कवि ने दांपत्य जीवन में प्रवेश करने वाले युगलजोड़े को बेहद सुंदर ढंग से रूपायित किया है। मानो आँखों देखा हाल सुना रहा हो। ‘गरम पसीना’ श्रमिक-किसानों का वंदन है। किसान का पसीना जब खेतों में गिरता है, तब फसल लहलहाती है। इस सुंदर भावनाओं को कवि ने सार्थक स्वर दिया है ।इसलिए वह कहता है, “गरम पसीना गरम पसीना /जब निकलेगा गरम पसीना /खेतों में हरियाली होगी /देख-देख किसान झूमेगा /घर में उसके खुशहाली होगी “। सचमुच किसान का जब पसीना गिरता है और फसल लहलहाती है तो उसके घर में तो खुशहाली आती ही है, पूरा समाज भी खुशहाल होता है। किसानों की वंदना करना श्रमवीर मनुष्य का वंदन करना है। कवि की तमाम कविताएं एक तरफ हैं लेकिन मां गंगा पर लिखी गई कविता ‘गंगा’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगी। मेरा अपना मानना है कि कभी भी किसी रचनाकार का संपूर्ण प्रदेय चर्चित नहीं हो पाता, उसकी कुछेक रचनाएं ही लोकप्रिय होती हैं। इसी कड़ी में अगर मैं गंगा कविता को देखूँ,तो यह अतिरंजित बात नहीं होगी। इस कविता को कवि ने बड़े मनोयोग से लिखा है । और मेरा अपना मानना है कि ऐसी कविताएं लिखी जानी चाहिए। ‘कल्याण’ की बहुचर्चित गंगा-अंक में मेरा गीत प्रकाशित हुआ था। जब-जब गंगा पर लिखता हूं मन पवित्रता के भाव से भर उठता है । इस कविता को पढ़कर भी मुझे वैसी ही अनुभूति हुई, जैसी अनुभूति कवि जायसवाल को हुई होगी। माँ गंगा पापनाशिनी है । यह एक ऐसी पवित्र नदी है जिस के स्मरण मात्र से हमारे भाव निर्मल हो जाते हैं। उसमें अवगाहन कर लें, तो बात ही क्या है। कवि ने गंगा की पवित्रता का, उसके अवतरण का सुंदर वर्णन किया है। कवि ने यह पीड़ा भी व्यक्त की है कि कैसे गंगा प्रदूषित हो रही है, फिर भी वह निर्मल है, पवित्र है। वह अमृत ही पिलाती है । कवि कहता है,
”शहरों की गंदगी मैं ढोती
निष्ठुर को व्यथा सुनाती हूं
मुर्दा घाट किनारे मेरे
अस्थि से पाटी जाती हूं
शंकर जैसे मैं विष पीती
लोगों को अमृत पिलाती हूं।”
कवि ने गंगा की दुर्दशा का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। फिर भी उस के महत्व को उसने कम नहीं किया। उसे पापनाशिनी गंगा बता के अंत में कहा, पापनाशिनी मैं गंगे हूं
निशिदिन बहती जाती हूं।
जिस तरह गंगा बह रही है, मैं चाहता हूं , यह कवि भी सृजन के पथ पर निरंतर बहता रहे। मुझे उम्मीद है भविष्य में इनका और श्रेष्ठ प्रदेयपाठकों के सम्मुख आएगा।
●●●●● ●●●●●