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- ■समय के यथार्थ पर जोर देने वाला सार्वकालिक छत्तीसगढ़ी उपन्यास ‘बिलासा देवी केवट’,लेखक-दुर्गा प्रसाद पारकर.
■समय के यथार्थ पर जोर देने वाला सार्वकालिक छत्तीसगढ़ी उपन्यास ‘बिलासा देवी केवट’,लेखक-दुर्गा प्रसाद पारकर.
■दुर्गा प्रसाद पारकर
बिलासा की वीरता निषाद समाज को गौरवान्वित करती है। न्यायधानी नगरी बिलासपुर बिलासा की वीर परंपरा को वर्तमान युग तक कायम रखे हुए हैं। लेखक *श्री दुर्गा प्रसाद पारकर ने मानवीय संवेदनाओं के बदलते हुए परिवेश , प्रकृति और कल में जो कुछ भी घटित हुआ है उसकी स्पष्ट आहट छत्तीसगढ़ी उपन्यास ’शौर्य की प्रतिमूर्ति बिलासा देवी केवट में देखी जा सकती है। बिलासपुर से रतनपुर तक आदिशक्ति महामाया की कृपा अभिव्यक्त होती है। वीरता की शालीन परंपरा से समाज का बदलता हुआ परिवेश उभरा है -आज सपना म महामाया हा दर्शन दे रिहिसे। तोर कोख म जउन लइका संचरे हे ओहा शक्ति स्वरूपा आय।ओहा कुल ला तारही। केवट समाज के नाम ला रोशन करही । नोनी हा देवी के रूप में स्थापित होही ।
लेखक श्री दुर्गा प्रसाद पारकर ने समाज की बुनियादी आवश्यकता को आधार मानकर ’बिलासा केंवट’ की कथा दृष्टि को क्लासिक दृष्टि दी है – हर युग,हर भाषा की। समय के यथार्थ पर जोर देने वाला सार्वकालिक छत्तीसगढ़ी उपन्यास। श्री दुर्गा प्रसाद पारकर ने यह साबित कर दिया कि छत्तीसगढ़ी कथा साहित्य मे केंवट समाज की वीर स्वाभिमानी नारी बिलासा देवी केवट राजा कल्याण साय की नगरी रतनपुर और बिलासपुर से गायब नहीं हुई है। छत्तीसगढ़ में गांव और शहर भी है पर जीवन के यथार्थ पर लिखित बिलासा की प्रासंगिकता आज भी विद्यमान हैं, और रहेंगे क्योंकि- बिलासा हा कोनो भी काम के शुरुआत के करे पहिली महामाया जी ला ही सुमिरय गांव के संघर्ष और जिजीविषा की अभिव्यक्ति के लिए। श्री दुर्गा प्रसाद पारकर द्वारा लिखित छत्तीसगढ़ी उपन्यास ” बिलासा देवी केवट “अपने समय और समाज से सदैव जीवंत संबंध रहा है। उसका वर्तमान और यथार्थ से गहरा और अनन्य रिश्ता रहा है। यह एक लोकतांत्रिक विधा है। यह उपन्यास अपने लोकतांत्रिक रूप को समाज में और अधिक समृद्ध किया। देशकाल परिस्थिति को विभिन्न रूपों में देखा तो नए देश काल के निर्माण की तड़प भी दिखाई दी। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था से जुझते केवट समाज की महागाथा को प्रस्तुत किया साथ ही नयी व्यवस्था निर्माण की रचनात्मक आकांक्षा को रेखांकित किया। समाज में बिलासा देवी केवट जैसी उपन्यास की प्रकृति बदली । उपन्यास की थीम से लेकर उसकी शिल्प संरचना में होने वाले परिवर्तन को संभव किया । स्मृति, घटना और स्वप्न में घटना ?अर्थात यथार्थ को अपने-अपने औपन्यासिक कृति में देखा ,समझा और जांच परख कर समाज के लिए एक यथार्थ की रचना है – सुखवन्तीन हा परशुराम ला बताइस कि लड़की अवतरे से बेटी लक्ष्मी। नोनी के चेहरा हा चमकत रिहिसे। बिहनिया बिहनिया बस्ती भर हल्ला होगे। बैसाखा के कोरा म बेटी अवतरे हे। बस्ती भर खुशी के माहौल बनगे।
बेटी जनम लिन्हे बेटी जनम लिन्हे बइसाख म बेटी जनम लिन्हे
सखियां आवय सोहर गावय
सोहर गवउनी देबो मन के मड़उनी
बइसाख म बेटी जनम लिन्हे
लेखक इसी व्यवस्था में जीता है। इसी नाभि- नाल से जुड़ा अधिकांश कहानी मध्य वर्ग से आते हैं। व्यवस्था से समझौते और विद्रोह के विकट चुनौतियों को स्वीकार करते हैं। यह समाज की गहरे आत्म साक्षात्कार की उपलब्धि है। मुझे उपन्यासकार बाबू देवकीनंदन खत्री के उस तिलिस्म की याद आती है जिसमें से बाहर निकलना असंभव था, लेकिन जिसके भीतर के प्रांगणों में बगीचे भी थे, तहखाने भी थे और जिसमें कई नवज्योति हम और किशोरियों गिरफ्तार रहती थीं। वे घूम – फिर सकती थीं, तिलिस्मी पेड़ों के फल खा सकती थीं, लेकिन अपने हद से बाहर नहीं निकल सकती थीं। ये हदें वे दीवारें थी जो पहले से ही बनी हुई थी जिनको तोड़ पाना लगभग असंभव था, अथवा जिन्हें तोड़ने के लिए अपरिसीम साहस, कष्ट सहन करने की अपार शक्ति और धैर्य तथा वीरता के अतिरिक्त विशेष कार्य – कौशल और गहरे चातुर्य की जरूरत थी। मेरी आंखों से उस गहरे अंधेरे तिलिस्म के तहखानों और कोठरियों के बाहर के मैदानों में घूमती हुई लाल-पीली और नीली साड़ियां अब भी दिख रही हैं, उनके मुरझाए गोरे कपोल और ढीली बंधी वेणियों की लहराती लटें भी दिख रही हैं, और मन ही मन में कल्पना कर रहा हूं कि क्या यहां फैले हुए बहुत से लोगों की आत्माएं इसी प्रकार की तो नहीं हो गई हैं।… लेकिन प्रश्न तो यह है कि यह तिलिस्म कैसे तोड़ा जाए। मनुष्य के समाज की व्यवस्था बाहरी समाजिक तो है ही, आंतरिक भी है-व्यक्ति के मन में। मनुष्य का संघर्ष दोनों स्तरों पर चलता है। एक ओर वह सामाजिक व्यवस्था के दोषों से जूझता है, दूसरी और वह अपने मन के धरातल पर चलते महाभारत को भी लड़ता है। मगर असली मुद्दा यह है कि एक लेखक इस दोहरी लड़ाई में किस तरह अपनी भागीदारी निभाता है।
’’बिलासा हा अपन सहेली मन संग डोंगा म गीस अउ बंशी के डोंगा ले सबो यात्री मन ला अपन डोंगा म कइसनो करके बइठार के ए पार लइस। सब यात्री मन बिलासा ला असीस दिस तँय हा देवी के अवतार हस बेटी आज तँय नइ रहिते त हम्मन अरपा के धार म बोहा जाय रहितेन | बिलासा किहिस – एमा मोर कोनो हाथ नइहे सबो महामाया के किरपा आय। बंशी घलो बिलासा ला किहिस आज तोर सेती सब झन के जान बांच गे बिलासा। बिलासा ए सब महामाया के किरपा आय बंशी। बिलासा के बहादुरी हा चारो मुड़ा बगरे बर धर लिस। ’’
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो छत्तीसगढ़ी उपन्यास ’’शौर्य की प्रतिमूर्ति बिलासा देवी केवट’’ कलात्मक लेखन अवयव है। श्री दुर्गा प्रसाद पारकर ने उपन्यास लिखते समय बिलासा देवी केवट की शौर्य गाथा की शिराओं में रक्त की तरह अंतर्निहित करते हैं। तार्किक कल्पना के साथ ऐतिहासिकता को प्रदर्शित करते हुए ऐतिहासिक रूप से आबद्ध होकर लेखन किया है। इस ऐतिहासिक समय में आबद्ध होकर किसी शौर्य गाथा परिगाथा को विशेष रुप से चित्राकिंत करना मात्र नहीं है जैसा कि हम अन्य कहानियों और सत्य कथाओं में पढ़ते हैं। बिलासा देवी केवट की जीवन के प्रासंगिक वास्तविक शौर्य संदर्भ को मौजूदा समय में प्रस्तुत करना है। लेखक दुर्गा प्रसाद पारकर के लिए यह समय सदैव वर्तमान का रहा है याने हम जिस समय को लेकर चल रहे हैं वह अतीत है या भविष्य हमारे सामने उपस्थित है ।
राज दरबार में बिलासा के जय-जय कार होइस। राजा दरबार में राजा हा घोषणा करिस के रतनपुर राज ल बिलासा जइसे बहादुर नारी के जरूरत हे। आज ले बिलासा हा मोर सलाहकार के संगे संग मंत्री के रूप म नियुक्त करत हंव। अउ एकर बहादुरी के एवज मा अपन नदिया के दुनो पार (खड़) जागीर (भुइयाँ) ल बिलासा ला सौंपत हंव। राज दरबार मा राजा हा बिलासा ला तलवार दे के सम्मानित करिस। बिलासा हा राजा के सलाहकार अउ मंत्री बने के बाद जब घोड़ा म बैठ के बंशी संग अरपा तीर बस्ती मा पहुंचिस त पूरा बस्ती जय जय कार करिन। बिलासा अरपा नदी के दुनो पार के भुइयाँ के मालकिन घलो बना गे हे कहिके बस्ती वाले मन ला बिलासा उपर बिक्कट गर्व होइस। अब तो अरपा के दुनो पार के विकास बर बिलासा हा अपन विवेक ले बहुत अकन योजना बनाइस अउ योजना ला पूरा करके अरपा के दुनो पार तो विकास करत गिस। बिलासा हा हर क्षेत्र मा चाहे शिक्षा के क्षेत्र हो, चाहे आर्थिक क्षेत्र हो, चाहे अरपा नदिया के संरक्षण के काम हो, चाहे धार्मिक बुता होय चाहे अपन जनता ला आत्म निर्भर बनाए के दिशा म हो दिन रात काम करत रिहिसे ।जब कोनो अपन जागीर के विकास के बात होवय चाहे राजा ला सलाह बर बिलासा के जरूरत परय बिलासा हा श्रृंगार करके शौर्य के देवी के रूप मा तलवार धर के रतनपुर जावे त सउँहत छत्तीसगढ़ महतारी लागय |
लेखक श्री दुर्गा प्रसाद पारकर ने मानवीय प्रेम और आध्यात्मिक सौंदर्य एवं शौर्य की समृद्धि परंपरा का निर्वाह करते हुए बिलासा की रूपा कृतियों में कलात्मकता के शिखर को छुआ है। जीवन की समग्रता को रूप शिल्प के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है- बिलासा केंवट हा साधारण नारी नई रिहिस वोहा देवी के अवतार रिहिसे। अब बिलासा ला बिलासा देवी केवट के नाम से जाने जाही, अरपा के दुनो पार बिलासा के जागीर ल बिलासा के नाम से बिलासपुर के नाव ले जाने जाही अउ बिलासपुर के कुल देवी के रूप म ” बिलासा देवी केवट ” के पूजा होही | कुल देवी *बिलासा देवी केवट ह बिलासपुर के रक्षा करही | राजा कल्याण साय के घोषणा के बाद बिलासा देवी केवट के जय जय कार होइस।
छत्तीसगढ़ी उपन्यास सृजन की दिशा में श्री दुर्गा प्रसाद पारकर निरंतर कार्य कर रहे हैं। रचनात्मक प्रासंगिकता के कारण ’शौर्य की प्रतिमूर्ति बिलासा देवी केंवट’ को समाज आत्मावलोकन के साथ शौर्य गाथा को व्यापक मानदंडों के साथ तलाश कर सकेंगे।
[ ●डुमन लाल ध्रुव,प्रचार-प्रसार अधिकारी,जिला पंचायत धमतरी, छत्तीसगढ़ ]
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