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■ईद पर विशेष : गणेश कछवाहा [रायपुर छत्तीसगढ़]
♀ झोपड़ियों तक लाना होगा ईद का चांद.
मैं भी
मुबारक बाद देना चाहता हूं
ईद की ।
पर मुझे
चांद दिखाई नहीं दे रहा।
मैं कैसे मनाऊं ईद ?
किसे और कैसे
गले लगाऊं ?
वस्त्रहीन बच्चा,
यत्र तत्र बिखरे समान
धूल मिट्टी में सने भविष्य
बिखरे सामानों से
खेलता मासूम।
झोपड़ी की
दरार पड़ी दीवार से
लिपटकर
आंसू बहाती मां
मुखपर
भीगे आंचल ढांककर
सिसकते हुए
एक बार
उस वस्त्र हीन
भूखे मासूम लाडले को
निहारती है
तो एकबार
बुझे हुए चूल्हों को
और
खाली बर्तनों की ओर
देखती ।।
खोए हुए
बचपन
भूख,आंसुओं
और
मां के गिले आंचल से लिपटकर
कोई कैसे
मना सकता है ईद ?
आखिर
मेरे घर,आंगन और
झोपड़ी से
कौन चुरा लिया है?
किसने छुपा रखा है
मेरे
चांद को ?
क्या
अब चांद भी
वातानुकूल कमरों,
आलीशान भवनों,
महलों में कैद हो गया है?
या
संसद के गलियारों में
कहीं खो गया है?
या फिर
सारा देश
जागते जागते सो गया है?
दोस्तों
शायद अब जागते रहना होगा।
वातानुकूल कमरों,
आलीशान महलों से लेकर
संसद के गलियारों तक।
रखनी होगी
चौकस निगाहें
और
ढूंढना होगा
झोपड़ियों तक लाना होगा
ईद के चांद को।।
ईद का चांद
कहीं छुप नहीं सकता
महलों या वातानुकूल कमरों में
कैद नहीं हो सकता
वह
एक दिन
हर घर आंगन में उगेगा
हर पल ,हर क्षण दिखेगा
तब
हर झोपड़ी के
चूल्हे में आग होगी,
बच्चों में मुस्कान ,
मां का आंचल
खुशियों से
लहराता होगा,
हर इन्सान
इंसानियत का संदेश ले
एक दूसरे से गले मिलता
हंसता,मुस्कुराता
खिलखिलाता होगा।
और
ईद की चांदनी से
सारा जग जगमगाता होगा।
[ ●गणेश कछवाहा जनवादी लेखक संघ से जुड़े हैं, संपर्क-94255 72284 ]
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