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■कविता आसपास : विद्या गुप्ता [दुर्ग-छत्तीसगढ़]
♀ निःशर्त प्रेम
पिता के बिना
पिता
जब से गए हो तुम
मां नित्य करती है अग्निस्नान
रुखा सुखा खाती
चटाई पर सोती
जीती है तुम्हारे न रहने का महाव्रत
रंगों को नकारती
तन मन को पहनाती है
निशब्द सफेदी
पिता
पूरी तरह से बंद हो गया
बात बात पर मां का हंसना
चले गए तुम्हारे साथ
मां के चूड़ी भरे हाथ
मां के पर्याय सी थी
बिछूओ की रुनझुनआवाज
मां होती है घर में फिर भी
अब नहीं आती
आंगन से कोठार तक
घुंघरुओ की आवाज
मां के माथे पर
अब तक है बिंदी का
बड़ा सा खाली निशान
सुनसान पथ सी मांग
जीती है हर पल
तुम्हारा चला जाना
सब में रहकर भी
चुप हो चुकी मां
देहरी से करती है घंटों
जाने क्या-क्या बात
मां दोहराती है प्रथम आगमन के पल
देहरी के साथ
मैं तड़पता पूछता हूं
यूं जिंदा जलने का कारण
मां कहती है यही धर्म है मेरा
सच कहना पिता
क्या तुम जी पाते
मां के जाने पर जिंदा जलने का
ऐसा महाव्रत
♀ कवयित्री संपर्क-
♀ 91313 42684
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