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■गद्य-पद : विद्या गुप्ता.
तुम्हें भ्रम है कि,
तुम चल नहीं सकते
तुम्हें भ्रम है
तुम बोल नहीं सकते
तुम्हें भ्रम है कि,
देख नहीं सकते तुम…….!!
परिस्थितियां, और असफलताएं कभी-कभी ऐसी स्थिति निर्मित कर देती है कि, मन हताशा की गहरी खाई में लुढ़कते इंसान की सारी ताकत को सोंख लेता है…. हौसलों को तोड़ मरोड़ कर चूर चूर कर देता है …. असफलताएं बांहें फैलाए आगे बढ़ती है…. और ग्रस लेती है उसे पूरी तरह…..! हताश मन झाग की तरह बैठ जाता है…..’उफ..!!
अब कुछ नहीं हो सकता’….. अब तो सब कुछ खत्म….. तन और मन दोनों की ताकत जवाब दे गई….!! लाचार, निराश, टूटा हुआ मन तब सिर्फ लाचारी और सहानुभूति के सहारे सांसें लेता है….. तलाशता है कोई कांधा, जिस पर सिर रख वह अपने ही पीड़ा को थपथपा सकें….!!
सब कुछ डूब गया उजड़ गया अब कुछ नहीं हो सकता मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ….. कुछ भी खत्म नहीं हुआ,….. समय जरूर आगे बढ़ गया, मगर ऐसा नहीं कि तुम्हारी यात्राओं की सारी संभावनाएं खत्म हो गई हो…. तुम्हारी आंखों में निराशा का अंधकार जरूर सिमट आया है मगर ऐसा नहीं कि अब उजाले की कोई उम्मीद नहीं… सुनो…..!!
फेंक दो,
पैरों से लिपटी बैसाखियों को
तन कर खड़े हो जाओ
अपने कद पर
खोल दो आंखों पर बंधी
लाचार अनुभूतियों की पट्टियां
पैरों से लिपटे
ये पंगु एहसास ही
बना देते हैं पीढ़ियों को अपंग
ये आस्तीनों मैं छुपी
सहानुभूति की नागिनें ही
पी जाती है
संकल्प की सारी शक्ति
ध्यान से देखो,
अपनी मुट्ठियों की नसों को
नसों मैं सोई बिजलियां को
तान दो…..!!
आकाश की ओर भुजा
उछाल दो
सितारों तक उन्मुक्त अट्टाहस….!!
हां विश्वास करो….!! यह बिल्कुल सच है की, अंदर के अंधेरों से बाहर निकलते ही तुम देखोगे उजालों के प्रकाशदीप। आधे अधूरे प्रयास से अंधेरों को धकेलते थक गए तुम, सहसा महसूस करोगे अपनी शिराओं में सरसराते उजालों को…..!!
हां देखोगे तुम,
गूंगे नहीं हो
परख लो
अपनी आवाज की दुधारी को
साफ कर लो
आईने की गर्त…..
देखोगे…..!!
तुम्हारा चेहरा
उन्मुक्त निर्णय की तरह साफ है
यह भी सच है कि,
जब तक होंठ जुड़े रहेंगे
आवाज नहीं होगी
जब तक जुड़ी रहेगी हथेलियां
तालियां नहीं बजेगी
उठो, अपने नाम का
स्वयं करो शंखनाद
लौटती गूंज में पाओगे तुम
नसों में बहते
विराट के दर्शन
■कवयित्री संपर्क-
■91313 42684
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