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■पुस्तक दिवस पर विशेष लघुकथा : विद्या गुप्ता [ दुर्ग छत्तीसगढ़ ]
♀ जीवन कैसे जिए
सुबह शाम दोपहर. रात और फिर सुबह….. हां इन्ही सब से बंधी जिंदगी लगातार आगे दौड़ती जा रही थी। रुक कर सोचने का समय ही नहीं था। सुबह और शाम के साथ ही सप्ताह… महीने…. और सालों पर गुजरती जिंदगी जाने कब इस किनारे से मध्य धाराओं को पार करते हुए उस पार पहुंच गई ।पता ही नहीं चला ……
गाहे-बगाहे कुछ मौके अवसर ऐसे आते थे जब जिंदगी कहीं थोड़ी सी ठिठकती भी थी मगर नियम और आवश्यकताओं की दौड़ में ठहराव को लांघ कर …..फिर दौड़ में शामिल हो जाते थे ।
सप्ताह के अंत में एक साप्ताहिक सफाई होती थी। साप्ताहिक सफाई रोज की अपेक्षा कुछ अधिक …… यानी उस दिन सारे कमरों के साथ अपनी टेबल और अलमारी भी जरूर शामिल रहती थीं ।पुस्तकों को झाड़ती साफ करती मैं बड़ी हसरत से उन पुस्तकों को देखती थी, जिन्हें समय की आपाधापी, भाग दौड़ के बीच, मैं पढ़ नहीं पाती थी…. लेकिन, हमेशा अपने आप को आश्वस्त करती थी …….जब भी समय मिलेगा खूब जी भर कर आराम से इन किताबों को पढ़ूंगी … ।
समय मिलेगा तो पढ़ूंगी ……!! इस लालच में सहेज कर रखी गई आश्वस्ती में आज थोड़ा सा चेंज हुआ और मैंने हाथ की झाड़न टेबल पर रख दी और एक किताब उठाकर पन्ने पलटने लगी। पुस्तक जो हाथ पर आई थी उसका नाम था……. जिंदगी कैसे जिए……!! खोलकर पड़ती गई
इतने सालों की जिंदगी में जहां-जहां भी दरारें थी उभर कर सामने आती रही…. कुछ हिस्सा हमने अहम की लड़ाई में खो दिया तो, कुछ हिस्सा छोटे-छोटे स्वार्थ में,…… कुछ सपना पूरा न होने के अफसोस में, और कुछ…… दिवा सपनों की प्रतीक्षा में।
उफ! मैंने क्या खो दिया…….. जिंदगी गुजर गई अस्ताचल सामने है और अफसोस के गुबार जिंदगी की किताब अनपढ़ी रह गई…… अपने नजदीक आने का समय ही नहीं मिला… या मैंने अपने आपको देखा ही नहीं….
लेकिन अब…..!!, अब समय रेत की तरह हथेलियों से झर चुका था…… एक नि:विश्वास होठों पर थी जिंदगी कैसे जिए!!…कुंजी साथ में थी ,लेकिन आंखें उठा कर देखा ही नहीं ।.
… कैसे जिए…. मलाल नहीं था। जिंदगी वैसी ही जी, जैसी जी जा सकती थी किंतु, अपने अंदर रहा वह कोरा हिस्सा…. अफसोस कि, कोरा ही रह गया ।कुछ समय पहले जागी होती तो जरूर समय चुराकर निकालती और पढ़ डालती , उसे जो अनपढ़ा रह गया था।
मैं ने खिड़की से बाहर देखा सांझ के धुंधलके उतर रहे थे । डूबते सूर्य की अंतिम किरण विदा ले रही थी ……. मैंने हाथ बढ़ाकर किरण को थामा और सुबह के साथ लौट पड़ी ।
■लेखिका संपर्क-
■96170 01222
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