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■संत कबीर : बनारस से मगहर तक : गणेश कछवाहा [रायगढ़ छत्तीसगढ़]
कबीर, संत कबीर या कबीर साहेब जी 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि,दार्शनिक और महान संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग के एक महान प्रवर्तक के रूप में उभरे। आपकी रचनाओं ने केवल हिन्दी प्रदेश ही नहीं वरन समूचे राष्ट्र के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। आपके दोहे,विचार और लेख सिक्खों के आदि ग्रंथ सहित बहुत से संतो के विचारों एवम् धार्मिक ग्रंथों में भी देखने को मिलता है।
आप किसी एक धर्म( हिंदू व इस्लाम )को न मानते हुए मानवता व एक सर्वोच्च शक्ति ईश्वर में विश्वास रखते थे। आप सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास, पाखंड,आडंबर और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना करते हुए यथार्थवादी मानवीय सामाजिक कल्याण के जनजागरण का संचार करते थे। पंथ, संप्रदाय या धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ थे। साम्ययोग, समानता और मानवीय सरोकार युगचेतना के साम्य योगी थे। लेकिन संत कबीर की शिक्षा दीक्षा के अनुयायियों को ही कबीर पंथ की संज्ञा से विभूषित किया जाने लगा।
कबीर साहेब का (लगभग 14वीं-15वीं शताब्दी) जन्म स्थान बनारस काशी, उत्तर प्रदेश है। कबीर साहेब का प्राकट्य सन 1398 (संवत 1455), में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ब्रह्ममूहर्त के समय कमल के पुष्प पर हुआ था. यह मान्यता है कि संत कबीर साहेब जी का जन्म माता पिता से नहीं हुआ बल्कि वह हर युग में अपने निज धाम सतलोक से चलकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। कबीर साहेब जी लीलामय शरीर में बालक रूप में नीरु और नीमा को काशी के लहरतारा तालाब में एक कमल के पुष्प के ऊपर मिले थे।
यह दोहा प्रचलित है –
अनंत कोट ब्रह्मांड में, बंदी छोड़ कहाए | सो तो एक कबीर हैं, जो जननी जन्या न माए ||
आध्यात्मिक गुरु
कबीर साहेब जी ने स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु बनाया। यह कथा प्रचलित है कि कबीर साहेब जी ने ढाई वर्ष के बालक के रूप में पंच गंगा घाट पर लीलामाय रूप में रोने कि लीला कि थी, स्वामी रामानंद जी वहाँ प्रतिदिन स्नान करने आया करते थे, उस दिन रामानंद जी की खड़ाऊँ कबीर जी के ढाई वर्ष के लीलामय शरीर में लगी, उनके मुख से तत्काल ‘राम-राम’ शब्द निकला। कबीर जी ने रोने कि लीला की, तब रामानंद जी ने झुककर उनको गोदी में उठाना चाहा, उस दौरान उनकी (रामानंद जी की) कंठी कबीर जी के गले में आ गिरी। तब से ही रमानंद जी कबीर साहेब जी के गुरु कहलाए।
कबीर के ही शब्दों में:
“काशी में परगट भये , रामानंद चेताये ||”
कृतियां –
कबीर साहेब जी द्वारा लिखित मुख्य रूप से छह ग्रंथ हैं :-
कबीर साखी: कबीर बीजक: कबीर शब्दावली:,कबीर दोहावली: ,कबीर ग्रंथावली: कबीर सागर: यह सूक्ष्म वेद है जिसमें परमात्मा कि विस्तृत जानकारी है।
मगहर :-
“जो काशी में मरेगा वह सीधा स्वर्ग जाएगा और जो मगहर में मरेगा वह गधा बनेगा।”
कबीर साहिब जी ताउम्र काशी में रहे। परंतु 120 वर्ष की आयु में कबीर जी काशी से अपने अनुयायियों के साथ मगहर के लिए रवाना हुए । 120 वर्ष के होते हुए भी उन्होंने 3 दिन में काशी से मगहर का सफर तय किया। उन दिनों काशी के तथाकथित धर्मगुरुओं ने यह धारणा (अफवाह) फैला रखी थी कि “जो काशी में मरेगा वह सीधा स्वर्ग जाएगा और जो मगहर में मरेगा वह गधा बनेगा।”
इस प्रकार धर्मगुरुओं द्वारा शास्त्रों के विरुद्ध विधि बता कर मोक्ष के नाम पर काशी में करौंत से हजारों व्यक्तियों को मृत्यु के घाट उतारा जाने लगा। इस गलत धारणा को कबीर लोगों के दिमाग से निकालना चाहते थे। वह लोगों को बताना चाहते थे कि धरती के भरोसे ना रहें क्योंकि मथुरा में रहने से भी कृष्ण जी की मुक्ति नहीं हुई। उसी धरती पर कंस जैसे राजा भी डावांडोल रहे।
उस समय काशी का हिंदू राजा बीर सिंह बघेल और मगहर रियासत का मुस्लिम नवाब बिजली खाँ पठान दोनों ही कबीर साहेब के प्रिय शिष्य थे। दोनों ने यह विचार बनाया की कबीर का अन्तिम संस्कार हम अपने अपने धार्मिक संस्कार और रीति रिवाज से संपन्न करेंगे।
कबीर जी ने देखा की ऐसे में तो यह दोनों आपस में कट मरेंगे और हिन्दू मुस्लिम का गृह युद्ध छिड़ जाएगा। तब संत कबीर जी ने दोनों को समझाया और आदेश दिया कि मेरे शरीर त्यागने के उपरांत दो चादरों के बीच जो वस्तु मिले उसको दोनों आधा-आधा आपस में बांट लेना और मेरे जाने के बाद कोई किसी से लड़ाई नहीं करेगा। एक चादर नीचे बिछाई गई जिस पर कुछ फूल भी बिछाए गए। संत कबीर जी चादर पर लेट गए। दूसरी चादर ऊपर ओढ़ी और सन 1518 में कबीर साहिब सशरीर सतलोक गमन कर गए।।तब यह आकाश वाणी हुई :-
“उठा लो पर्दा, इसमें नहीं है मुर्दा”
कबीर परमात्मा का शरीर नहीं बल्कि वहां सुगन्धित फूल मिले, जिसको दोनों राजाओं ने आधा आधा आपस में बांट लिया। दोनों धर्मों के लोग आपस में गले लग कर खूब रोए। संत कबीर जी ने इस लीला से दोनों धर्मों का वैरभाव भी समाप्त हो गया। मगहर में आज भी हिंदू मुस्लिम धर्म के लोग प्रेम से रहते हैं। इस पर परमात्मा कबीर जी ने अपनी वाणी में भी लिखा है:-
*सत् कबीर नहीं नर देही, जारै जरत ना गाड़े गड़ही।
पठयो दूत पुनि जहाँ पठाना, सुनिके खान अचंभौ माना।
दोई दल आई सलाहा अजबही, बने गुरु नहीं भेंटे तबही।
दोनों देख तबै पछतावा, ऐसे गुरु चिन्ह नहीं पावा।
दोऊ दीन कीन्ह बड़ शोगा, चकित भए सबै पुनि लोंगा।*
वास्तव में बनारस से मगहर तक की यात्रा संत कबीर के जीवन दर्शन की यात्रा थी जो कर्मकांडो, धार्मिक व सांसारिक प्रपंचों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। जो मनुष्य को मनुष्य बनने की प्रेरणा देती है।।
संत कबीर साहेब जी को उनके प्राकट्य दिवस पर कोटि कोटि सादर नमन।
■लेखक संपर्क-
■94255 72284
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