■लघुकथा : ए सी श्रीवास्तव.
♀ कही अनकही
उन्हें अपना वजूद ड्राइंग रूम के कोने में रखी पुरानी कुर्सी की तरह लगता है जिसकी घर में एक जगह तो निश्चित थी और गाहे बगाहे ही कोई उस पर बैठता था पर उसके होने या न होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था।
उनके मित्र शर्मा जी कहा करते थे की रिटायर होने के बाद हमारी हैसियत अपेंडिक्स की तरह हो जाती है, जिसकी शरीर को कोई जरूरत नहीं पर कभी कभार वह शरीर के लिए परेशानी का सबब जरूर बन जाता है। सारी भौतिक सुख सुविधा होने के बाद भी उन्हें समझ नहीं आता था कि किस चीज की कमी है । कभी कभी वे अपनी पत्नि की आंखों में धीरे से झांककर आंकने की कोशिश करते, कि उनके जेहन में भी ऐसा कुछ ख्याल आता है क्या। परंतु वे कभी भी सही अंदाज नहीं लगा पाए।
सक्सेना साहब को रिटायर हुए लगभग तीन साल हो गए हैं।
यह समय उन्होंने अपने ही घर पर , अपने शहर में बिताया । मंझोले कद का एक औद्योगिक शहर है। पिछले चालीस वर्षों में संबंधों का एक तानाबाना मकड़ी के जाल की तरह अपने आप बुनता चला गया जो एक खास तरह की तसल्ली देता था। अपने शहर में रहते हुए वे इसे भले ही महसूस नहीं कर पाए पर अब महानगर की लाखों की भीड़ में अकेले चलते हुए वे उन संबंधों को बहुत मिस करते हैं। सबसे ज्यादा से मिस करते हैं अपने डॉग बनी को जिसने उन्हें प्यार करने के सही मायने सिखाए। आप जवान हैं या बुजुर्ग, नौकरी में हैं या रिटायर्ड, उसे इस सब से कोई फर्क नहीं पड़ता, वो तो बस 100% प्यार देने में विश्वास करता है।
सक्सेना साहब तो अपने एकांत और बनी के साथ में पूरी तरह खुश थे, पर पत्नि का हमेशा मन था कि अब अकेले नहीं बेटे के साथ रहेंगे। उनकी ज़िद के आगे सक्सेना जी को झुकना पड़ा और वे बेंगलुरु में बेटे के साथ शिफ्ट हो गए। बनी के लिए वहां जगह नहीं थी सो बड़े दुखी मन से उसे एक मित्र के घर छोड़ आए। बनी से जुदाई के वे पल जब भी उन्हें याद आते हैं उनकी आंखें नम हो जाती हैं।
टीवी योग आदि के सहारे कुछ हद तक दिनचर्या तो बन गई थी पर किसी काम में रस नहीं था। लगता था की जिंदगी में कहीं कुछ गुम सा हो गया है। एक प्रश्न उनके मन में हमेशा उठता था कि जब बच्चे बचपन से लेकर किसी भी उम्र तक माता पिता की प्राथमिकता में सबसे ऊपर रहते हैं तो माता पिता बच्चों की प्राथमिकता में कुछ हद तक तो रह ही सकते हैं । घर के साजो सामान और व्यवस्था को देखकर उन्हें हमेशा ही अपने घर की जगह एक मेहमान सा ही अनुभव होता था। बेटा बहु की अपनी दिनचर्या थी जिसमें वे व्यस्त रहते थे, वीकेंड देर तक सोने और मित्रों के साथ गुजर जाता था। “मम्मी पापा सब ठीक है ना, कुछ जरूरत होने से बताइएगा” वार्तालाप अमूमन यहीं तक सीमित था।
एक दिन दोपहर में उन्होंने पत्नि के मन को टटोला, पत्नि की आंखें गीली होने लगी। वे भी लगभग वही महसूस कर रहीं थीं।दोनों ने एक दूसरे की आंखों में देखा और 6 माह का भावनाओं का समंदर आंसुओं में पिघल गया।खाली होने के बाद सक्सेना जी ने कल के ही तुरंत दो हवाई टिकट बुक कर लिए और उठकर अपना सामान पैक करने लगे। शाम को उन्होंने जब अपना निर्णय बेटा बहु को बताया तो अपेक्षा के विपरीत उनका रिएक्शन कुछ तथस्ट सा था। “क्या यहां मन नहीं लग रहा, चलिए ठीक है जैसा आपको अच्छा लगे”।
दूसरे दिन बेटा बहु एयरपोर्ट तक छोड़ने आए। “अपनी सेहत का ध्यान रखिए” “फोन करते रहिए”….
उन्होंने अपने शहर के परिचित टैक्सी वाले को बुला लिया था, वे खिड़की के बाहर शहर की हर बिल्डिंग, दुकान को ऐसे देख रहे थे जैसे कितने वर्षों बाद मिले हों, परिचित दवाई दुकानदार ने मुस्कुराकर अभिवादन किया, यह सिलसिला सब्जी, राशन और डेली नीड्स तक चलता रहा, उन्हें कुछ याद आया, उन्होंने टैक्सी को अपने मित्र के घर की ओर मोड़ने को कहा।
उन्होंने दरवाजा खटखटाया, बनी की आवाज कानों में रस घोल गई, उसने उनकी उपस्थिति को सूंघ लिया था। दरवाजा खुलते ही वह दीवाने की तरह उनसे लिपट गया और उन्हें चाटता रहा, शायद यही प्यार वे मिस कर रहे थे, उनकी आंखों से गंगा जमुना बही जा रही थी।उनके मित्र ने बताया की बनी का अधिकतर समय मुख्य दरवाजे के पास ही बीतता था जैसे आपका इंतजार कर रहा हो। सक्सेना जी महसूस कर पाए कि बनी के प्यार की यह तड़फ ही उन्हें वहां पर बैचेन किए हुए थी। वो जब तक आंसू पोंछ कर सामान्य हो पाते, बनी दौड़कर कार की पिछली सीट पर बैठ चुका था।
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