- Home
- Chhattisgarh
- ■समीक्षा : ‘बच्चों की हरकतें’
■समीक्षा : ‘बच्चों की हरकतें’
♀ ‘बच्चों की हरकतें’
♀ लेखक,प्रो.अश्विनी केशरवानी
♀ समीक्षक, प्रांजल कुमार [यूएसए]
♀ प्रकाशक,श्री प्रकाशन दुर्ग
■बच्चे तो आपसे ही सीखते हैं-प्रांजल कुमार.
■प्रो.अश्विनी केशरवानी.
प्रो. अश्विनी केशरवानी छत्तीसगढ़ के जाने माने लेखक हैं। स्थानीय और राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर उनकी रचनाएं तीन दशक से पढ़ने को मिल रही है। प्रस्तुत ग्रंथ ‘बच्चों की हरकतें‘ उनकी नई कृति है। इसके पूर्व ‘शिवरीनारायण देवालय और परंपराएं‘ और ‘पीथमपुर के कालेश्वरनाथ‘ प्रकाशित हुई थी। मूलतः विज्ञान के प्राध्यापक होने के बावजूद साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और परंपराओं के अलावा बाल मनोविज्ञान पर उनकी गहरी रूचि के परिणाम स्वरूप इन ग्रंथों का प्रकाशन संभव हो सका है। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में आज भी उनकी रचनाएं प्रमुखता से प्रकाशित होते हैं।
लेखक ने शब्दिका में ग्रंथ के बारे में अपने उद्गार कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है:- ‘सन् 1980 से 2000 के दो दशक में मैं बच्चों की हरकतों को समेटकर भारतीय और विदेशी परिवेश में मनोवैज्ञानिक आधार पर लिखता रहा हंू। मेरे आलेख देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ। जब तक राष्टीय पत्रिका धर्मयुग प्रकाशित होता रहा, तब तक उसमें मेरी बाल मनोवैज्ञानिक विषयक रचनाएं प्रकाशित होती रहीं। इसके अलावा नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट और अणुव्रत में भी मेरी रचनाएं छपती रहीं। सर्वोदय प्रेस सर्विस और युवराज फीचर के माध्यम से बच्चों की हरकतों पर मेरी रचनाएं देश की छोटी बड़ी सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। मेरी रचनाओं के उपर अखबारों में संपादकीय लिखे गये। पाठकों के कौतुहल और प्रोत्साहन भरा पत्र मिलता और मैं उत्साहित होकर पुनः लिखने लगता। पाठकों का मानना था कि मेरी रचनाएं उनके बच्चों की समस्याओं को हल करने में बड़ी मद्दगार होती है। कदाचित् इसी की परिणति है मेरा यह संग्रह…‘
लेखक की रचनाएं इतनी मद्दगार क्यों होती है ? इस संबंध में लेखक स्वयं बताते हैं:- ‘वास्तव में मैं उन्हीं विषयों पर लिखता हूँ जो मुझे दिखाई देता है। मैं अपनी रचनाओं में उस परिवेश की भी चर्चा करता हंू जिसके कारण बच्चे प्रभावित होते हैं और अंत में मनोवैज्ञानिकता के आधार पर उसे हल करने के लिए सुझाव देता हूँ । इसके लिए मैं खूब पढ़ता हूँ , चिंतन करता हूँ , इससे जो प्लेटफार्म मुझे मिलता है, जो चीजें मुझे दिखाई देती है उसे समेटने का प्रयास करता हंू। यही कारण है कि मेरी रचनाएं, उसके पात्र और परिवेश पाठकों को अपने लगते हैं।‘
इस संग्रह में लेखक की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित 27 आलेख संग्रहित है। ये सभी आलेख उनके आसपास घटित घटनाओं पर आधारित है। संभवतः यही कारण है कि घटनाएं पाठकों को अपने लगते हैं। इन आलेखों में लेखक ने उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके उसे हल करने के तरीकों का जिक्र किया है। इसके लिए मनोवैज्ञानिक तथ्यों और विचारों का भी उन्होंने जिक्र किया है। ‘बच्चे तो आपसे ही सिखते हैं‘ में वे लिखते हैं-‘अक्सर देखा जाता है कि लोग अपने बच्चों के प्रश्नों को टाल देते हैं , यह कहकर कि तुम अभी बच्चे हो इन बातों को क्या समझोगे, जाओ, जा कर खेलो….बच्चों के ऊपर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बच्चे इन बातों से अपने बाल मन को कोसने लगते हैं। माता-पिता द्वारा अनजाने में की गयी भूल का प्रायश्चित इन मासूम बच्चों को करना पड़ता है। कभी-कभी इस छोटी सी भूल के लिए उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। मनोवैज्ञानिक माता-पिता को ऐसी बातें नहीं करने की सलाह देते हैं । अपराध संस्थानों से मिली रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिकांश अपराधी अपने बचपन की किसी-न-किसी घटना से क्षुब्ध होकर अथवा किसी कुंठा से प्रेरित होकर अपराधिक कार्य करते हैं और बाद में ऐसा करना उनकी मजबूरी बन जाती है। कुछ बच्चे अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण कुछ-न-कुछ प्रश्न पूछते ही रहते हैं। उनके प्रश्न होते हैं – यह क्या है ? ऐसा क्यों होता है ? ऐसा क्यों नहीं होता ? अगर इन प्रश्नों का संदर्भित उत्तर उन्हें मिल जाये, तो उन्हें और अधिक सोचने का मौका मिलता है। वह अपना समय आलतू-फालतू कामों में न लगाकर चिंतन मनन में लगाने लगता है। माता-पिता को ऐसे बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए और ऐसे कार्यो में धैर्य तथा शांति से काम लेना चाहिए मगर होता इसके विपरीत है। मां-बांप झिड़की देकर अथवा डांट-डपटकर बच्चों की भावनाओं का दमन करते हैं । एसे बच्चे कुंठाग्रस्त हो जाते हैं ।‘
अपने आलेख की शुरूवात प्रो. केशरवानी कुछ इस प्रकार से करते हैं-‘पिछले दिनों मैने अपने पड़ोस में रह रहे एक दम्पत्ति को देखा कि वे हर छोटी-मोटी बात पर अपने दोनों बच्चों को इतना मारते हैं कि देखने वालों का पसीना छूट जाये। जब वे शुरू शुरू में यहां आये थे तब अपने बच्चों को मारने के साथ साथ रस्सी से से घंटों बांधे रखते थे। तबसे आज तक ये बच्चें उदंड हो गये हैं कि किसी दूसरे बच्चे को मारना, किसी का सामन उठा लेना किसी के ऊपर थुक देना या पेशाब कर देना आम बात हो गयी है। अब उनके ऊपर ‘तुम्हारे पापा-मम्मी को बताऊंगा या उनसे डांट खिलाऊंगा‘ कहने का भी कोई असर नहीं होता। कभी-कभी वे कहते हंै कि ‘मम्मी-पापा तो वैसे भी डांटते मारते हंै, थोडा ज्यादा मार लेंगे? मुझे उनकी हरकतों और सोच ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि ‘बच्चे आखिर बिगड़ते क्यों है ?’ अनके बिगड़ने के लिये कहीं हम ही तो जिम्मेदार नही हैं ?‘ और उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण वे इस प्रकार करते हैं-‘एक बच्चे को दंड देने का तात्पर्य है कि उसके पालक अपने बच्चों को समझने में असमर्थ हैं। दंड बच्चों को सुधारने की अपेक्षा सदैव उनमें भय व असुरक्षा की भावना ही पैदा करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक के विचार है। वास्तव में प्रत्येक बच्चा कुछ मूल प्रवृत्तियां और एक निश्चित शारीरिक संरचना लेकर पैदा होता है। जन्म के समय बच्चों की विकास क्षमताओं में काफी अंतर होता है परंतु चारों ओर का पर्यावरण काफी हद तक उस बच्चे के ऊपर अपना प्रभाव डालता है। बचपन की बुनियाद में अगर सच्चरित्रता, कर्मठता और साहस जैसे गुणों का समावेश कर दिया जाये तो निःसंदेह बच्चे के सुखमय भविष्य की कल्पना की जा सकती है।‘ वे इसे हल करने के तरीका इस तरह से बताते हैं-‘हर बच्चा अपने स्वभाव के अनुरूप अपना महत्व चाहते हंै, जो संभव नही है। अतः वे अनेकों बार अपने हर बात में नकारात्मक रवैया अपनाने लगते हैं। इस पर अधिकांश मां-बाप की प्रतिक्रिया होती है कि ‘बड़ा जिद्दी हो गया है…. बड़ा बदमाश है। जिसे न करने को कहो, उसे ही करता है, लात के देवता बात से नही मानते…. आदि। मेरी सलाह माने तो उन्हें शांत और अलग रहने दे। उस पर क्रोध न करें। यह सब उम्र के साथ ठीक हो जाता है।‘
बच्चों की हरकतों से परेशान माता-पिता को प्रो. केशरवानी सलाह देते हुए कहते हैं-‘अनेक सावधानी बरतने पर भी बच्चों में कुछ दोष आ ही जाते हैं। तो उसके कारणों को खोजकर उसकी समस्याओं को सहानुभूति पूर्वक सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए। डांट फटकार से बच्चे की बुराई कुछ समय के लिए दब भले ही जाए, परन्तु उसका पूरा इलाज नहीं हो पाता और यही कारण है कि बड़े होने पर यह बढ़ता ही जाता है। बच्चे स्वयं एक खुली किताब है। आप इसमें दिलचस्पी लें। उनकी उलझनों को सहानुभूति पूर्वक सुनें और धीरे धीरे उनकी भावनाओं का विकास करते जाएं, तभी भविष्य में एक महान् प्रतिभा के रूप में उनका विकास हो सकेगा और आप भी सिर ऊंचा करके जी सकेंगे।‘
वे घटनाओं को इस तरह से प्रस्तुत करते हैं कि पाठक उसे अपने घर की बातें समझकर सोचने पर मजबूर हो जाते हैं। देखिये एक घटना का अंश-‘लोग बच्चों को लेकर इस कदर परेशान होते हैं, जैसे बच्चे उनके लिये समस्या हो। उनके एडमिशन से लेकर रिजल्ट तक, मुझे अच्छी तरह से याद है, जब प्रियंका तीन साल की थी। श्रद्धा उसे रोज पढ़ाती थी। प्रियंका भी जल्दी से उसे याद कर लेती थी और बार-बार उसे दुहराती। बड़ा अच्छा लगता था तब। उसकी इस उत्कंठा को देखकर कालोनी के सभी लोग उसकी तारीफ करते और किसी स्कूल में भर्ती करने की सलाह देते थे। प्रियंका भी कालोनी के बच्चों को रिक्शे में स्कूल जाते देख मचल जाती थी। लोगों के कहने पर श्रद्धा ने प्रियंका की उम्र चार वर्ष बताकर उसे बाल मंदिर में के.जी.वन मे दाखिल करा दिया। फिर क्या था-प्रियंका के लिये तीन जोड़ी ड्रेस, पुस्तक-कापी, टिफिन आदि की खरीददारी की गई। स्कूल जाने के लिये रिक्शा की व्यवस्था की गई। उस दिन कितनी खुश थी श्रद्धा। कहती थी-’देखना प्रियंका अब स्कूल में अव्वल आयेगी। मैं तो उसे पूरा समय दे नहीं पा रही थी। अब स्कूल में ज्यादा कुछ सिखेगी और हुआ भी यही, शुरू के दो-तीन माह अच्छे गुजरे। प्रियंका स्कूल में आती, नाश्ता करती और कालोनी के बच्चों के साथ खेलने चली जाती। वहां से आती और होमवर्क पूरा करती। हम उसको होमवर्क पूरा करने में हेल्प करते, मगर धीरे-धीरे व्यस्तता बढ़ती गई और प्रियंको को श्रद्धा ज्यादा समय नहीं दे पाती । जिससे उसका होमवर्क पूरा नहीं होता और रोज स्कूल में उसे डांट पड़ती। आश्चर्य तो तब हुआ, जब हमने उसकी तिमाही रिपोर्ट देखी। प्रियंका बड़ी मुश्किल से पास हुई थी। श्रद्धा दौड़े-दौड़े बाल मंदिर के प्राचार्य और उसकी क्लास टीचर से मिली और वस्तुस्थिति पर चर्चा की।उन्हें यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि प्रियंका आजकल स्कूल में पढ़ती कम है और सामने बन रहे मकान में रेत के ढ़ेर में खेलती ज्यादा है।‘
न्यूयाॅर्क के मनोचिकित्सक और सोसाइटी आट एडोलेसेंट साइकिस्ट्री के नयूज लेटर के भूतपूर्व संपादक डाॅ. जे. लेफर का कहना है कि ‘‘उपेक्षा से बच्चों का दिल टूट जाता है। बच्चे को अपनी जिज्ञासा, विकास या उपलब्धि का कोई भी सामान्य भावनात्मक पुरस्कार नहीं मिलता। जब कोई बच्चा पहली बार चलना सीखता है तो सामान्य माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होती है ? वे प्रसन्न होते हंै और बच्चे की प्रशंसा करके उसे प्रोत्साहित करते हैं । लेकिन जिस घर में प्यार और भावना नाम की कोई चीज नहीं होती, वहां बच्चे की इस प्रगति पर कोई ध्यान नही दिया जाता। अगर मां-बाप में से किसी का ध्यान इस ओर जाता भी है तो उनमें से एक तरह की झुँझलाहट सी होती है। क्योंकि अब बच्चे की ज्यादा देखरेख करना जरूरी हो जाता है।’’
अक्सर देखा जाता है कि लोग अपने बच्चों प्रश्नों को टाल देते हैं और कहते हुये मिलते हैं कि ‘‘तुम अभी बच्चे तो, इन बातों को क्या समझोगे, जाओ जाकर खेलो।‘‘ इस प्रकार के उत्तर का बच्चों के ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बच्चे इन बातों से अपने बाल मन को कोसने लगते हैं। माता पिता को ऐसी बातें नहीं करने की सलाह दी है। अपराध संस्थान से मिली रिर्पोट के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अधिकांश अपराधी अपने बचपन की किसी घटना से क्षुब्ध होकर अथवा किसी कुंठा से अभिभूत होकर आपराधिक कृत्य करते हैं। बाद में यह उनकी एक मजबूरी होती है।
‘बच्चों की हरकतें‘ निबंध संग्रह के लेखक प्रो. अश्विनी केशरवानी शासकीय मिनीमाता कन्या महाविद्यालय कोरबा में वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। वे लगभग चार दशक से लेखन कर रहे हैं। बाल मनोविज्ञान पर उनका गहन अध्ययन है। इसके अलावा वे एक अच्छे निबंधकार, संस्मरण लेखक और समीक्षक भी हैं। वे न केवल ग्रंथों के रचनाकार हैं बल्कि उनकी दीर्घ साहित्यिक योगदान के लिए अन्यान्य साहित्यिक सम्मानों से विभूषित सम्पादकीय गरिमा से मंडित हैं। उनकी लेखनी से जब खंडहरों के पत्थर बोल उठते हैं तब बच्चों की हरकतें तो बोलेेंगे ही।
वास्तव में उनके विचार बोधगम्य और स्वीकार करने योग्य हैं। सरल भाषा में उन्होंने लोगों की भावनाओं को अपने इस ग्रंथ में व्यक्त किया है। उन्होंने बाल मनोविज्ञान का ऐसा कमल खिलाया है जिसके परागन में विचार सुरभित हो उठे हैं जो जन मानस के मन को झकझोरने के लिए पर्याप्त है। इस संग्रह में विचारों का पारिवारिक, शैक्षिक एवं सामाजिक समीकरण हुआ है जो उदात्त है, सर्वहितकारी और सर्वप्रयोजनीय है। बच्चों के प्रति सदैव सचेत और सजग रहने की प्रेरणा देने वाला यह संग्रह समय की बरसात में कभी धुल नहीं सकता। उनका यह संग्रह प्रेरक एवं उपयोगी होने के साथ शिक्षा महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने योग्य है।
■लेखक संपर्क-
■94252 23212
●●● ●●● ●●●