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♀ ग़ज़ल : डॉ. माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’.
2 years ago
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♀ पुस्तकों का माफिया
कुछ नहीं करता स्वयं भू डाकिया है
यूँ समझ लो पुस्तकों का माफ़िया है
स्वार्थ की बू आ रही है हरकतों से
कुछ न कुछ बदले में लोगों से लिया है
ख़ुद ख़रीदा होता तो मालूम पड़ता
मुफ़्त का है आजतक जो भी दिया है
बोलना आता नहीं है चार अक्षर
दूसरों के बूते ही अब तक जिया है
दे रहा है चापलूसों को बढ़ावा
वक़्त बतलाएगा इक दिन क्या किया है
●संपर्क-
●79748 50694
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