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छत्तीसगढ़ी कहानी : डुबकी कढ़ी, – टीकेश्वर सिन्हा ‘ गब्दीवाला ‘
“अपन हिसाब से भाई ल बाँटा देना रिहिस हो ही, त हमन ला काबर बलाये रिहिस होही।” धुरसाय काहन लागै।
“अइसन हम कभू नहीं देखे रहेन रे भई। एकदम एकतरफा।” सरपंच पत्तेलाल गोठियाइस।
“माँ-बाप हर सबो लोग-लइका बर बनाय रथैं। वो कोनों ल माई-मोसी नइ करैं। वो एके लउठी के हँकइया होथैं। गैनू अउ वोकर सियनहिन केजई अभी दूनों रहिथिन ते थोड़े अइसे होतिस। हम सियान के बिया तो एक नइ चलिस।” बिंझवार पटइल कव्वाय असन किहिस।
“सही बात कहे पटइल कका। मनखे ल अपन दूनों आँखी बर समान पिरीत रथै। कोन्हों बाँह ल चाब बे, पीरा एकेच होथै।”रूपसिंग खड़े होइस; अउ बिड़ी ल सुल्गाइस।
“बड़े भाई हर बाप बरोबर होथे ग…चैनसिंग भइया। अइसन पदुम ल नइ करना रिहिस। वो बिचारा धनऊ नान्हे भाई जनम के सिधुवा। बिल्कुल एकबोलिया। बड़े भाई ल बाप बरोबर मानथे घलो जी; तभे तो वोकर सब बात ल मानगे वो हा। अहा काय रे भाई, लगते असाढ़ म भाई ल बँटवारा देय दिस। “माखूर-डब्बा ल लहुँटावत बिदेसी ह माधो ल किहिस।
“पर नान्हे भाई संग गलत करे ले आज तक कोनों फूलै-फरै नइ हे ग। बालि अउ रावण के एके हाल होय रिहिस।” लोकनाथ के भाखा निकलिस।
“छोड़ो साले ला… हम ला काये करना हे। वो मन तो एक-दूसर ले संतुष्ट हे।” सियनहा थानसिंग सब ला चुप कराइस।
बेलोदावरिहा माने गैनू हल्बा घर के पदुम अउ धनऊ के बँटवारा के बेरा म सकलाय सियान मन उँकर घर ले निकल के खोर म रेंगत-रेंगत, गोठियावत झंडा चाँवरा मेर पहुँचिन। ताहन सब एती-वोती बगरिन।
बेलोदावरिहा गैनू हल्बा के बेटा
पदुम अउ धनऊ के बँटवारा ल गाँवभर जान डारिन। उँकर ऊँच-नीच होय बँटवारा ह गाँव भर के गोठ होय राहै। किसिम-किसिम मनखे के किसिम-किसिम के गोठ। हँड़िया के मुँह हर परई ले तोपाथै, पर मनखे के मुँह भला कामे तोपाही। पर पदुम अउ धनऊ काकरो गोठ ल कान नइ धरैं। अपन दूनों लइका मन संग पदुम अउ वोकर सुवारी बिसाहिन दूनों झन बँटवारा ले बनेच खुस राहैं। धनऊ अपन आधासिसी सुवारी ललिता संग पदुम के एकठिन कुरिया म राहन लागिस; काबर कि बँटवारा म धनऊ ह घर नइ पाय राहै। पच्चीस डिस्मिल बियारा म, अपन घर के बनावत ले पदुम के घर म धनऊ के सपरिवार रहय के बात होय राहै। धनऊ हर पदुम के सिरिफ दूठन कुरिया ल बउरै। धनऊ हर बँटवारा ले संतुष्ट राहै। वोला अपन बड़े भाई ले कोई सिकायत नइ राहै। कभू-कभू ललिता ह बँटवारा ल ले के कुटुर-मुटुर करै। पर वोला धनऊ ह ” जौन अपन बाँटा-हिस्सा म मिलथय; तेन ह पूरथय ललिता, तैं समझे कर। हम ला अपन भाग्य के जिनीस मिले हे। मन म संतोस राखे बर सीख…।” काहत ललिता ल चुप करा देवै।
बँटवारा होय तीन महीना बीतगे। अपन कमाय, अपन खाय। धनऊ अउ ललिता के अभी लोग-लइका नइ राहै। दिन भर पदुम के लोग-लइका मन धनऊ के कुरिया म खेलै-कूदैं। धनऊ ह अपन बड़े भाई पदुम के बड़ सम्मान करै। वोकर हर बात ल मानै। ललिता घलो अपन बड़े ल अबड़ मानै। पर सब बर सब एक जस नइ राहै। पदुम अउ धनऊ ल एक-दूसर तनिक ईरसा-दुवेस नइ राहै। ललिता ल घलो कोनों ले जादा मतलब नइ राहै। पर बड़की बिसाहिन एक नंबर के अन्डिटहिन राहै। वोला कोनों के सुख-सोहर देखई नइ सइहारै। बस ओखी ल खोखी मिलय, ताहन नान-नान जिनीस अउ थोरिक-थोरिक बात बर धनऊ अउ ललिता ल अबड़ सुनावय। गाना गाये अस दिन भर कुरबुर-कुरबुर करै। वो ललिता बर थोरिक जादाच् लाहौ लेवै। नार ऊपर नार भारी। ये नारी-परानी के बात म धनऊ अउ पदुम जादा कान नइ देवैं। कभू-कभू पदुम अउ धनऊ घर म नइ राहँय, ताहन बिसाहिन ह कोनों जिनीस के ओखी ले के ललिता ल मनमाड़े बखानै। ललिता थोरकिन सिधुवी घलो राहै। वोला बिसाहिन असन कच्छोरा भिरके लड़े-झगरे बर नइ आय। पदुम अउ धनऊ के घर आय ले दूनों-क-दूनों चुप हो जाँय। पर धनऊ ल कभू-कभू बड़े भाई के रहिते भउजी ह जब सुनाय कि जातिन नहीं अपन घर-दुवार म। अपन नोखन ले नोकदर्रा बियारा म। हमर घर म काबर गाड़त हो ही येमन ल। जाय ; उँहचे बियाय अपन लइका ला।
आये दिन इँकर खटर-पटर चलते राहै। रोज-रोज के हरहर-कटकट ले धनऊ बिचारा परेसान होगे। बिसाहिन राहय एक नंबर जलनखोर। धनऊ अउ ललिता ल बने-बने खावत-पियत देख के वोखर खून जल जाय। जब घर म धनऊ नइ राहय, ताहन ललिता बर बिसाहिन के मुँहू अबड़ फरकै। जेसने पाय, तेसने बखानै। कतको ल धनऊ ल बताय, त कतको ल नइ बतावय, काबर कि अक्सर धनऊ ह वोला समझाय कि बड़की गोठ ला कान मत धरे कर। कँउआ के सरापे ले ढोर नइ मरै। हमर छँइहा बन जाही, ताहन फेर चल देबोन। नइ देखन येखर मुख ल। इही चउमासा ल कइसनो करके निकलन दे। पर आज तो हद होगे, जब धनऊ के आगू म भउजी बिसाहिन ह ललिता ल बखानत किहिस कि तैं काये लइका बियाबे रे। तोर लइका ह सटक के मरही रे, अउ तहूँ हर मरबे; जाबे, बोहाबे। धनऊ ल तन-मन टूटे अस लागिस। आत्मा कँदरगे। वोकर दुख अउ दुगुना होगे, जब बड़े भाई ह अतेक ल देखत-सुनत रहिगे। अपन सुवारी ल वो एक भाखा घलो नइ किहिस; बल्कि काहय कि माईंलोगिन के झगरा हमन काय करबोन जी। वइसे इँकर समसिया ल गाँवभर जानय, पर दिगर ल काय कहना हे, अउ काये करना हे। समय बीतन लागिस।
येसो भादो के बरसा, झड़ी अउ नरुवा-नंदिया के पुरा आय ले अपन एकझन बड़े बहिनी सुलोचना ल दूनों भाई तीजा नइ ला पाइन। दूनों भाई ल बड़ दुख लागिस। घेरी-बेरी दूनों भाई ल सुरता बहिनी के आवत राहै। अबड़ सुघर बेवहार के राहय बड़े बहिनी सुलोचना ह। पूरा तालगाँव भर के मन जानत राहँय कि गैनू अउ केजई अपन तीनों लइका मन ल बनी-भुती करके पाले-पोसे रिहिन। थोरिक-बहुत पढ़ाय-लिखाय घला रिहिन। काय करबे, आदमी हर अपन करम के भागी अपने होथै। काय करम करे रिहिस कि बिचारा गैनू ह कि वोला अपन जनम भुइंयाँ बेलोदा ल छोड़के अपन केजई संग आके ससरार तालगाँव बस गेय रिहिस। बेलोदागाँव म एकड़-अकन जमीन रिहिस, तेन ह सिंघोला बांध के बने ले डूब गेय रिहिस। अपन हाथ-गोड़ धरे आय रिहिन इहाँ। इँहचो घला बनी-भुती करैं। दूनों झन जांगर टोर कमाय, अउ दू बियारी के जेवन बिसाय। गाँव के बेटी-दमाद के होय ले कइसनो करके इनला सहयोग मिल जाय। गाँव-घर अउ खेती-बाड़ी तो बूड़े रिहिस बांध म, दुख तो लाखबे करिस; पर ये दुख ले जादा, दूनों ल पाँच बछर म तीन झन लइका गँवाये के रिहिस। पर तालगाँव के आय ले ये तीनों लइका मन ल पाय रिहिन। इनला अपन आँखी के आगू-आगू म राखैं।
आज दुकलहिन ह हूँद करावत आइस – “बेलोदावरहिन नोनी…! काय करत हस ओ…!”
“आ बइठ काकी। अभिच हम दूनों झन खेत ले आये हन। तुँहर दमांद ह, लइका मन काँह गेये काहत, पता करे बर खोर कोती निकलिस हे काकी..” काहत केजई ह दुकलहिन ल बइठे बर पिड़हा दिस।
“ले… राहन दे ओ नोनी पिड़हा ल। नइ बइठँव अभी। ये दे मही नोनी, राँध लेबे साग कुछू-कहीं डारके।” गंजीसुद्धा मही ल दुकलहिन परछी म मढ़ाइस।
“बने करेस काकी, कुछुच नइ रिहिस ओ महतारी; का ला राधँव काहते रहेंव की… बने होगे ओ मोर मइके… ले आयेस ते।” रँधनीखोली म केजई ह मही ल दूसर बरतन म उलदे बर निंगिस। ताहन फेर दुकलहिन ह अपन गंजी ल धरे, “ले बइठ नोनी। तोर बेटी-बेटा मन खाँही, त मोला सुरता करत गोठियाहीं, तभे तो मोर पँवरी खजवाही..” ठिठोली करत निकलिस।
केजई हर संझाकुन लाखड़ी दार ल सील म चिक्कन पिसीस। जीरा के फोरन देके पिसाय दार ल नान-नान चनौरी बरी अस खोंटत डबकत मही-रसा म डारत गिस। डुबुक-डुबुक करत साग ह चुरिस। दूनों हाथ म फरिया धरे कनौजी भर साग ल उतारत रिहिस, तइसने म गैनू ह लइका मन संग, आते बार पूछन लागे- “काकर घर ले मही पायेस ओ…ये दू काड़ी मुनगा ल लावत रहेंव राँधही कहिके।”
केजई कथै-” में तो राँध डारे हँव डुबकी कढ़ी मही म। ले ये मुनगा ह रतिहा के काम आही।” वोत्काबेर सुलोचना आइस; कथै- “काय साग राँधे हस दाई। अबड़ महमहावत हे।”
“डुबकी कढ़ी।” चुल्हा के आगी ल बुझावत केजई किहिस।
“वा…दाई ! डुबकी कढ़ी… ये काये साग ए ओ…।” सुलोचना ह तिखारत फेर पुछिस। तभेच दूनों भाई पदुम अउ धनऊ अपन-अपन भौंरा ल धरे आइन। पदुम पूछथै- “राँध डारेस दाई…का साग ए ?”
“डुबकी कढ़ी ताय रे। सबके-सब पूछ डारेव।” केजई हाँस डारिस- ले चलव, बासी खा लेव दूनों भाई।” पदुम अउ धनऊ खाय बर बर बइठिन। हाँस-हाँस के दूनों भाई बासी संग कढ़ी साग के मजा लिन।
“एकदम बढ़िया लागे हे दाई। कइसे राँधे हस।” पदुम बटकी उचाके सरपट ले पसिया पियत किहिस।
“हाव ओ..! अउ राँधबे , अँई दाई ? धनऊ ह कटोरी म बाँचे साग ल एक्के घाँव सरपट ले तिरिस।
“चीख के खाव न रे…! तोर ददा नइ खाय हे। सुलोचना घला बाँचे हे। ले एकाध दिन अउ राँध दुहूँ। ले बतावत हँव कइसे राँधे हँव तेन ल। सबले पहिली कनौजी म तेल देके जीरा के फोरन दे हँव। चिक्कन पिसाय हरदी-मिरचा ल भूँजे हँव। ताहन मही ल डारे हँव। डबकई सुरु होइस ताहन चिक्कन लाखड़ी बेसन ल पानी म साने हँव। अउ वोला बरी बरोबर नान-नान खोंटत डारत गे हँव। एक घाँव कसके डबकिस,ताहन उतारे हँव।”
वो दिन सब झन हाँसी-खुसी डुबकी कढ़ी सन बासी खाइन-पियीन।
बखत अउ गरीबी ह मनखे ल काय नइ कराय। गाँव मं जउन काम मिलय, तउन ल गैनू अउ केजई करैं। खेती-बारी तो नइ राहै। सुरु-सुरु म गेनू ह चेमन गौंटिया घर नवकर घलो लगै। वोकरे संग केजई ह बनी करे ला जाय। लइका मन ह पढ़े बर जाँय। पढ़ई-लिखई म चंट नइ रिहिन। इस्कूल जाय बर आना-कानी करैं। घर के हालत अउ इँकर पढ़ई-लिखई ल देख के इस्कूल जवई बंद घला होगे। पदुम ल गैनू ह अपन संग गौंटिया घर कमवाय बर लेगै। धनऊ ल मनसुभा मंडल घर पेटपोस्सा भइँस्सा चरवाहा लगा दिस। सुलोचना ल केजई ह अपन संग बनी करे बर लेगै। कइसनो करके इँकर गृहस्थी के गाड़ी खिंचावन लागिस। समय बितन लागिस।
सब अपन काम-बुता म लगे राहैं। कोनों ले कोई न मतलब नहीं। काम से काम, गंगाराम से का काम। इँकर गाँव भर म सब संग बढ़िया सम्बंध राहै। केजई के दाई-भाई के छाँव- तालगाँव। अपन काम-कारज म लगे गैनू सारा-भाँटो के नत्ता ले ठठ्ठा-दिल्लगी चलै। पदुम अउ धनऊ घला अपन काम-बुता म मस्त राहैं। सुलोचना ह केजई संग बनी-भुती करै। आज मँझनिया गैनू ह घर आते साठ कहिथे- “येदे आमा खोइला ओ। ठकुराईन दीदी दे हे। येला कहीं-कुछू म डारके राँधबे। अबड़ दिन होगे अम्मट साग नइ खाये हन। तभे सुलोचना कथै- “हाव दाई। ददा सहीं काहत हे।”
“आमा खोइला म डुबकी राँधबे ओ। बड़ मिठाथै। दू कौंरा उपरहा खवाथै।” परछी म बासी खावत पदुम किहिस।
“वोमा जीरा के फोरन देबे। अउ लाल-ठाढ़ मिरचा डारबे।” धनऊ काहन लागै।
घर भर सबोझन खवई-पियई म कउनों कमी नइ करँय; काबर कि सबोझन तो बढ़िया कमाँय-धमाँय। जौन राँधना होय, तौन राँध के खाँय। पर अम्मट-गोम्मट अउ डुबकी कढ़ी साग बर टोर करैं। इँकर डुबकी समय-समय म चलते राहै। पास-परोस के जान डारिन कि बेलोदावरिहा घर डुबकी कढ़ी बड़ खाथें कहिके। कोन्हों-कोन्हों सारा के नत्ता मन गैनू ल कढ़िइया भाँटो कहिके मजाक करैं। लइका मन पदुम अउ धनऊ ल डुबकी… डुबकी…कहिके चिंढ़ाँय। केजई अउ गैनू येमन ल रीस झन करे बर समझादे राहँय। केजई काहै- “जब हमन ल बने लागते, तभे तो खातन। मत भड़के करौ बेटी-बेटा हो, कोनों भड़काते ते बड़ डुबकी कढ़ी खाते कहिके। ये डुबकी कढ़ी त तइहा के साग-पान आय। सस्ता साग आय। बिसाय म सहज, राँधे म सरल अउ खाय म अबड़ मिठाथै। ये हमर पुरखा के साग-पान। ये गरीब के साग-पान आय। सरीर बर घलो बने होथै। पाचुक होथै; पेट-वेट ल नी बिगाड़ै। अन्न ल तो खातन न, हमन ला सुहाथे तभे। सियान मन कहिथे- “पर के सुहाय सिंगार, अपन सुहाय भोजन।”
इँकर कमई-धमई सब चलत बढ़िया राहै। सब झन एक-दूसर बर घात मया करैं। सुंता-सुम्मत बने राहै। तीनों भाई-बहिनी लड़ई-झगरा ल कभू नइ जानिन। कानों हर काँहचो ले कुछू मिलय मिल-बाँट के खाँय। घर ह बेटी-बेटा के कमाय ले भरथै। बेटी-बेटा हर माँ-बाप के बाँह-भुजा होथै। बेटी अंगना के सजइया, त बेटा कोठी के भरइया। मया-परीत अउ सुम्मत ठउर म लछमी बिराजथै। गैनू अउ केजई के घर सम्हलीस।
समय तको बने-बने गुजरत गिस। लइका बाढ़त गिन। नोनी सुलोचना सग्यान होगे। गैनू अउ केजई हर बेटी के हाड़ म हरदी लगाय के चिंता होवन लागिस। समय आइस। समय ले समय के मिलन होइस। सुलोचना बर सगा अमरिस। फरियाय लगन हरियाइस। बर-बिहाव निपटिस। बेटी सुलोचना ह ससरार घलो अमरगे भीमकन्हार गाँव। दुए-तीन बछर बिते ले पदुम अउ धनऊ घर के बहू मन आगैं। अब बहु-बेटा के घर होगे। जांगर के थके ले गैनू ह घर-सियानी ल बड़े बेटा पदुम ल सउँप दिस। आधा उमर म गैनू अउ केजई लोग-लइका ल पाय राहैं। लइका मन के हिसाब से दूनों झन बड़ लँघियात बुढ़ागें। अपन-अपन समय के आये ले दूनों झन चल बसिन। अपन समय म लोग-लइका मन के परसादे म गैनू ह सत्तर-पचहत्तर डिस्मिल जमीन बिसा घलो डारे रिहिस। उही कम से कम पचास-पचपन डिस्मिल नहटोर भुंइयाँ तको मिले रिहिस। घर-दुवार ल घलो बने सिरजा डारे रिहिस।
एक-दू साल बने-बने निकलिस। भाई-भाई पदुम और धनऊ के राम-लखन अस होय ले बिसाहिन-ललिता सीता-उरमिला होई जाय; ये तो जरूरी नइ हे। दूनों देरानी-जेठानी म तारी नइ पटिस। कभू-कभू पदुम घला गलती कर डरै; पर कतको ल धनऊ हर सँवास लेवय कि बड़े भाई-भउजी ह माँ-बाप बरोबर होथैं। वो कभू भउजी ल एक भाखा कुछू नइ किहिस; भलुक ललिता ल चुप करा देवै।पर काच् कर डारतिस धनऊ घला। नान-नान बात म खिबिड़-खाबड़ हो जाय बिसाहिन अउ ललिता ह। तभो ले पेल-धकेला घर-परवार चलते रिहिस। अब धीरे-धीरे सम्बंध बिगड़ते गिस। एक दिन पदुम ह धनऊ ल किहिस- “भाई ! अइसना सब चलते रही रे भाई ते मामला हर अउ जादा बिगड़ जाही; येकर ले अच्छा हे कि दू-चार सियान मन ल बला लेथन। घर म कीर (लकीर) खींच लेथेन ते बने होतिस। थोड़-बहुत जमीन हे, तेन घला बाँट लेतेन। अउ जादा होय ले गड़बड़े होवत ए जाही। ये नारी-परानी मन नहीं समझे ग। हम भाई-भाई परेम बेवहार ल डाँवा-डोल कर दिहीं। पर घर ले आये हें। येमन नासमझ हें। अब अपन-अपन कमाबो-खाबोन। जा, बला ले सियान मन।”
एक घाँव कुँवरहा संझा बेरा सुलोचना ह तालगाँव पहुँचिस। मइके के देहरी पहुँचते साठ गोड़ धोय बर दू लोटा पानी निकलिस। नाहनी ठउर म दूनों लोटा के पानी ले हाथ-पाँव अउ मुँह-कान धोइस। बीच परछी म बइठिस। पदुम अउ धनऊ के अलग-अलग चुल्हा देखिस। बड़ा दुख लागिस। पर काय करतिस। मन तो वोकर होवत राहय कुछु-कहीं कहे-सुनाये के; पर एक भाखा जुबान नइ ढिलिस। सब ल तो सुन डारे राहै। एक भाखा बड़े बहिनी ल नइ पुछिस कहिके, थोरिक रंज लागत राहै। मन ल अपन मड़ाइस। घर म तो सबोझन राहैं। खुश होगें। वोला बड़ा अलकरहा घलो लागत राहय कि अपन लाने झोला के रोटी ल कउन ल देवँव कहिके। पर आखिरी म बड़की बिसाहिन अपने ह सुलोचना के झोला ल भितरईस। ताहन बने-गिनहा पुछिक-पुछा होइन। रतिहा होगे। फेर खाय बर दू लोटा पानी निकलिस। दूनों लोटा के पानी ल हाथ-मुँह धोइस। अपन दूनों भाईबहू मन ल कहिथै- “ले चलव दूनोंझन अपन-अपन जेवन इही मेर लानव; अउ सँघरा बइठव, एक जगा खाबोन। सबझन बइठिन। सबझन के जेवन परसाइस, ताहन ललिता ल सुलोचना ह अपन झोला के टिफिन-डब्बा ल मँगाइस; अउ अपने हर सबझन ल एकठिन बड़े चम्मच म अपन लाय साग ल पोरसिस। सबझन खुस होगें। हाँस घला डारिन खल-खलाके माहर-माहर महमहावत डुबकी कढ़ी ल देख के। हाँसत-गोठियावत खाईन-पियीन। सुतिन-बइठिन।
दूसर दिन बिहनिया चाय-पानी के निपटे के बाद सुलोचना पदुम अउ धनऊ ल किहिस- “भाई हो ! तुमन बाँटा होवेव, बने करेव; महूँ ल तो एक भाखा पूछ ले रतेव या बता ही देतेव। पर मोला खबर करे बर तुमन ल नइ उसरिस। महूँ हर तुँहर बड़े बहिनी अँव, बड़े भाई अस होथँव। बाप-महतारी आज रतिंन ते अइसे होतिस का ? ले भाई तुमन ल नइच उसरिस ते कम से कम काकरो करा खबर तो पठो दे रतेव। वोसना घला करे रहितेव। आन ह, उहुहर पर के सुनल-बात ल बताइस त जाने हँव। अइसना बनथे ग…बतावव।”
“बात तो सही काहत हस दीदी। गलती तो होय हे हमर ले।” पदुम ह ठोठकत किहिस।
“में सोचेंव कि भइया ह बताये होही दीदी ल।” मुँड़ी गड़ियाय धनऊ गोठियाइस। बिसाहिन अउ ललिता तको दूनों झन खड़े रिहिन। कोन्हों हर कुछू नइ किहिन। तभे सुलोचना फेर कहिथे- “हम तीन भाई-बहिनी होतन। बाप-महतारी अउ हम सब मिल के कमाये-धमाये हन। सब जिनीस ह सबके होही। तुँहरे दुएझन के नइ होवै। मोरो हो ही। तुमन नहीं; भलुक में तुमन ल बाँटा देहूँ। में हर नंबरदार होथँव। तुमन हिस्सादार आव।” सुलोचना बिफरे अस होगे राहै; कहिथे- “जाव तुमन, गाँव के सियान मन ल बलावव। घर के सब चीज हर फिर से बँटाही। अइसना कोई बाँटा-साँटा हो ही ?”
थोरिक बेर ले पदुम अउ बिसाहिन अपन कुरिया म फुसुर-फासर करिन। ताहन फेर सुटुर-पुटुर करत पदुम ह सियान मन ल बलाय बर खोर निकलिस। धनऊ आँट म बइठे रिहिस, उही मेर बिसाहिन घला बइठे राहै। वोत्काबेर ललिता ह रँधनीखोली ले कहिथे – ” थोरकिन बासी बाँच गेहे, तेन ल कइसो करँव ?”
“कोटना-वोटना म मत डार। लइका मन बर रोटी राँध दे। लान इही करा पिसान ल, दीदी ह सान दिही।” धनऊ किहिस। ताहन फेर सुलोचना ह सिथा ल किचमोल के राँधिस रोटी। अपने ह नान-नान कुटका करिस अउ कुटका-कुटका लइका मन ल दिस। आधा रोटी ल चुल्हा के तीर आँट म मढ़ावत किहिस – “धनऊ, ललिता तहुँ मन खा लेहू। तहूँ हर खा लेबे ओ बिसाहिन।” ताहन नानुक जरमनी गंजी म कपड़ा धरे दँतुवन चाबत तरिया गिस।
आज मँझनिया गाँव के सरपंच, पटइल आइन। चार-पाँच झन अउ सियान रिहिन। सुलोचना, पदुम अउ सबोझन रिहिन। बात चलिस। “कइसे बलायेस ग…पदुम हम ल।” सरपंच पत्तेलाल पुछिस। थोरिक देर बाद पदुम कहिथे- “सरपंच ममा ! हम दूनों भाई बाँटा होये हन, तेमा दीदी ल आपत्ति हवै। वोकरे कहे ले तुमन ल बलाय हँव ग।”
“हूँ…ऊँ…! तहूँ हर कुछू कहिबे जी नान्हें भाँचा ! कइसे जी धनऊ ?” सरपंच फेर पुछिस।
धनऊ कहिथे- ” दीदी ल हमन बँटवारा-हिस्सा के बारे म नहीं खबर नइ कर पायेन। वो नराज हे। हमर बँटवारा ह वोला मन नइ आवत हे। उहू ह बाँटा लेहूँ, काहत हे। वोकरे केहे ले भइया ह तुमन ल बलाय हे। इही बात ताय नाना।”
“ले गोठिया भाँची काय बात हे तेन ल? तोरो ल सुनबोन।” सरपंच पत्तेलाल ल सुलोचना कोती अँखियाइस। अब सबके-सब सुलोचना डहर मुहूँ करिन। थोरिक बेर बर सब कलेचुप। ताहन सुलोचना काहन कहिथै- “भइया हो ! ये दूनों बाँटा होइन बने करिन। महूँ ल बलालेतिस ते, काय हो रतिस। नइ ते कम-से-कम बता तो देतिन बाँटा होगेन कहिके। में दिगर के मुँह ले सुने हँव। मोला दुख लागिस ग बिंझवार ममा। जियत-मरत बर तीन भाई-बहिनी हावन। मोला तो येमन जियते-जियत मार डारिन। हमन हमर दाई-ददा मन कइसे ढंग ले पोसे-पाले रिहिन, तेन ल तुमन जानते हव। कइसे ये गलत करे हे कि नहीं बतावव।”
सबके-सब चुप रिहिन। सियान मन एक-दूसर ल देखन लागैं। ताहन सरपंच पुछिस- “भाँची काहत हे, तेन वाजिब ए ग…भाँचा हो, पदुम…धनऊ।”
“हाव… ” गलती होय हमर ले। अउ येकर बर दीदी ले माफी चाहत हन।” पदुम अउ धनऊ मुँड़ी डोलाइस।
“सुलोचना ! येमन माफी माँग डारिन ओ…। छमा कर दे, नान्हें भाई ओ। ले, तैं अपन ल बता; तोर का बिचार हे। तैं बाँटा लेहूँ कहिबे त फिर से बँटवारा हो ही। पटईल बिंझवार किहिस।
“में हर भाई मन ले का बाँटा-साँटा लेहूँ ममा। पर बाँटा तो फिर से होबे करही दूनोंच भाई मा। बाप-महतारी मन मोला पर घर पठो दिन। महूँ ह अपन कमात-खात हँव ऊपरवाले के देय। उहू मन खाय-कमाय; राज करैं। मोला एक लोटा पानी; अउ एक ठोमा पसिया चाही। में अपन छइयाँ म खुस हँव। पर ये भाई मन के बाँटा मोला बने नइ लागत हे। बहुते ऊँच-नीच हे इँकर बँटवारा ह। अइसन झन होवै। दूनों भाई बरोबर के भागी होथै। माँ-बाप मन दूनों बर पसीना ओगराके कमाय से। कोनों संग माई-मोसी झन होवै। येमन ल बरोबर बाँट देवव सब जिनीस ल।” गोठियावत खानी सुलोचना के गला भर-भरागे।
“हूँ..ऊँ… अच्छा…! ” सरपंच मुँड़ी हलावत पदुम अउ धनऊ कोती देखिस- तुमन ल कउनों एतराज तो नइ हे दूनों भाई ल ?”
“हाव..! दीदी काहत हे, तइसन हो ही।” पदुम के भाखा निकलिस।
“ठीक हे…। बन जाही। धनऊ के कहना होइस।
“हम ला तो सुरू ले ही इँकर बँटवारा मन नी आइस। कइसे दसरू, हमन काहते रहेन कि इँकर बाँटा ह गड़बड़ाय हे कहिके…न ग…?” सरपंच पत्तेलाल ल किहिस।
“ले अच्छा, चलव फेर, घर-दुवार ल पहिली देखतन। अंगना म कीर (लकीर) खींचतन।” काहत बिंझवार पटइल भुइंयाँ ल थेमत उठिस।
थोरिक बेर म घर बँटागे। दूनों बहू बिसाहिन अउ ललिता अपन-अपन कुरिया ले बरतन-वरतन ल निकालिन। उँकरो दू हिस्सा होइस। खेती-जिनीस- धान-पान, चऊँर-दार बँटागे। खेती-औजार, गाड़ा-बइला, नांगर-बख्खर ल अल्गाइन। गाय-गरुवा तको निपट गे। गहना-गुँथा ह तो बिसाहिन अउ ललिता अपन-अपन पहिरे रिहिन, तेन ह अपन-अपन के होइस। जमीन घलो रिन-पुस्तिका के हिसाब से घर ले बँटागे बरोबर-बरोबर। कोनों ल कउनों प्रकार के करजा-बोड़ी के भार नइ परिस। बहिनी सुलोचना के मान-गऊन के बात चलो होगें। सबके हिसाब -किताब होगे। पदुम अउ धनऊ दूनों संतुष्ट होइन। चहा-पानी होइस। बीड़ी-माखुर निपटिस। फेर ताहन सियान मन ले दूनों भाई आसीरवाद लिन। “सब बने-बने राहव, कमाव-खाव। आज संझा सब झन एके चुल्हा के जेवन जे लेहू।” सरपंच अपन गमछा ल झर्रावत किहिस।
“अउ आज डुबकी कड़ही भरोसी ले राँध लेहू न; मही हमर घर पटेलिन ल माँग के ले आहू।” बिंझवार पटइल ह चुमकाही मारिस। सबझन हाँस डारिन। सब अपन-अपन घर गिन।
[ •लेखक टीकेश्वर सिन्हा ‘ गब्दीवाला ‘ जिला – बालोद, घोटिया, छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी के व्याख्याता हैं. •संपर्क – 97532 69282 ]
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