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- ▪️ डॉ.राममनोहर लोहिया 12 अक्टूबर पुण्यतिथि पर विशेष : ‘ जब सड़कें सुनी हो जाती है तो संसद आवारा हो जाती है, जिंदा कौमें 5 साल इंतज़ार नहीं किया करती ‘ – •लेख, गणेश कछवाहा
▪️ डॉ.राममनोहर लोहिया 12 अक्टूबर पुण्यतिथि पर विशेष : ‘ जब सड़कें सुनी हो जाती है तो संसद आवारा हो जाती है, जिंदा कौमें 5 साल इंतज़ार नहीं किया करती ‘ – •लेख, गणेश कछवाहा
स्वतंत्र भारत की राजनीति और चिंतन धारा पर जिन गिने-चुने लोगों के व्यक्तित्व का गहरा असर हुआ है, उनमें से डॉ. राम मनोहर लोहिया एक प्रमुख हैं। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद स्वतंत्र भारत जी राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियों में इनकी भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही है।
राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को फैजाबाद में हुआ था। उनके पिताजी हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। उनके पिताजी गांधीजी के अनुयायी थे। जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। 30 सितम्बर, 1967 को लोहिया जी को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल, (अब जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है) में पौरूष ग्रंथि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया जहां 12 अक्टूबर 1967 को उनका देहांत 57 वर्ष की आयु में हो गया।
कार्ल मार्क्स , महात्मा गाँधी एवं अम्बेडकर के विचारों का गहरा प्रभाव
डॉ . लोहिया पर कार्ल मार्क्स , महात्मा गाँधी एवं अम्बेडकर के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा।उन्होने इनमें अदभुत समन्वय स्थापित कर इनके श्रेष्ठतम तत्वों को आत्मसात कर भारतीय सामाजिक राजनैतिक परिवेश में एक क्रांतिकारी नवीन – विचारधारा का विकास किया। जो समाजवादी विचारधारा और आंदोलन की नयी दिशा तय की।
एक तरह से डॉ. लोहिया गांधी,मार्क्स और आंबेडकर के बीच सेतु हैं. वे स्वाधीनता संग्राम को भी उतना ही जरूरी मानते हैं जितना जाति व्यवस्था के विरुद्ध संग्राम. वे देशभक्त तो हैं ही सामाजिक न्याय के भी जबरदस्त समर्थक हैं. यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि डॉ. लोहिया जातियों को तोड़ने का आह्वान करने के बाद वर्ग संघर्ष की बात भी करते हैं और चाहते हैं कि आखिर में वर्ग विहीन समाज का निर्माण हो. वे यह भी चाहते हैं कि मनुष्य इतिहास के उत्थान और पतन के चक्र से मुक्त हो और एक मानवता पर आधारित सरकार का गठन हो। दुनिया में जाति, लिंग, राष्ट्र की गैर बराबरी मिटाकर लोकतंत्र कायम किया जाए. डॉ लोहिया भगत सिंह के प्रति भी असाधारण सम्मान रखते थे. डॉ लोहिया की जन्मतिथि 23 मार्च है । जैसे ही उन्हें 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी देने की खबर प्राप्त हुई वे अंदर से टूट सा गए । उन्हें इतनी अधिक आत्मिक पीड़ा पहुंची की उन्होंने हमेशा हमेशा के लिए अपना जन्म दिन नहीं मनाने की घोषणा की।
सबसे बड़ा खतरा कट्टरता –
डॉ. लोहिया जाति व्यवस्था को तोड़ने और स्त्रियों की स्वतंत्रता के सशक्त पक्षधर थे . उनका यह स्पष्ट मानना था कि वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहनशीलता के सवालों को हल किए बिना इस देश का कल्याण नहीं हो सकता। अपने हिंदू बनाम हिंदू वाले प्रसिद्ध व्याख्यान में वे कहते भी हैं कि यह लड़ाई पांच हजार साल से चल रही है और अभी तक खत्म नहीं हुई है.
वे देखते हैं कि दुनिया के अन्य देशों में खून खराबे के साथ यह लड़ाई खत्म हो गई लेकिन भारत में कई मत हो गए और पूरी तरह से कुछ भी खत्म नहीं हुआ. लेकिन वे सबसे बड़ा खतरा कट्टरता को मानते हैं और कहते हैं कि अगर कट्टरता बढ़ेगी तो न सिर्फ यह स्त्रियों और शूद्रों और अछूतों और आदिवासियों के लिए खतरा पैदा करेगी बल्कि इससे अल्पसंख्यकों के साथ भी रिश्ते बिगड़ेंगे.जो देश के समुचित विकास के लिए बहुत बड़ी बाधा होगी। उनका यह स्पष्ट मत था कि समता, समानता और एकता के बिना उन्नत व समृद्ध भारत की कल्पना कतई नहीं की जा सकती है।
जाति व्यवस्था को हर कीमत पर तोड़ने के हिमायती-
डॉ लोहिया भारत की जाति व्यवस्था को हर कीमत पर तोड़ने के हिमायती थे. डॉ. आंबेडकर के विचारो से सहमत होते थे लेकिन दुर्भाग्य से बाबा साहेब का 1956 में निधन हो गया. वे दक्षिण में रामास्वामी नाइकर से उस समय मिलने गए जब आंदोलन के दौरान वे गिरफ्तार थे और अस्पताल में थे. भारत की जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए उन्होंने ब्राह्मण बनिया राजनीति की कड़ी आलोचना की तो उन शूद्र जातियों की भी आलोचना की जो थोड़ा सम्पन्न होने के बाद ऊंची जातियों की ही नकल करने लगती हैं.
सप्त क्रांति का सिद्धांत
डॉ लोहिया का मानना था कि किसी एकजुट राष्ट्रीय कार्यक्रम के अभाव में भारत में प्रतिपक्षी दल आपस में ही लड़ते रहते है। इसका लाभ सत्तारूढ़ दल को अनायास ही प्राप्त हो जाता है। उन्होने समाजवाद के सार्वभौम सात सिद्धांतों को व्यवहारिक रूप देने पर जोर दिया था –
1. स्त्री पुरूष समानता को स्वीकृति ,
2. जति सम्बन्धी तथा जन्म सम्बन्धी असमानता की समाप्ति ,
3. रंगभेद पर आधारित असमानता की समाप्ति ,
4. विदेशियों द्वारा दमन की समाप्ति तथा विश्व सरकार का निर्माण।
5. व्यक्तिगत सम्पति पर आधारित आर्थिक असमानताओं का विरोध , तथा उत्पादन में योजनाबद्य वृद्धि।
6. व्यक्तिगत अधिकारों के अतिक्रमण का विरोध ,
7. युद्ध के शस्त्रों का विरोध तथा सविनय अवज्ञा सिद्धांत को स्वीकृति।
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विवेकपूर्ण संघर्ष और सृजन आवश्यक है-
डॉ. राम मनोहर लोहिया के संपूर्ण राजनीतिक जीवन का संदेश यही है कि व्यक्ति और समाज की स्वतंत्रता और तरक्की के लिए विवेकपूर्ण संघर्ष और सृजन आवश्यक है . उन्होंने 1963 के उपचुनाव में लोकसभा पहुंच कर जब धूम मचा दी थी तो उनके साथ संख्या बल नहीं था. उनका साथ देने के लिए पार्टी के कुल जमा दो और दो सांसद थे. किशन पटनायक और मनीराम बागड़ी. लेकिन जिसके पास नैतिक बल होता है उसे संख्या बल की चिंता नहीं रहती.
पूरी प्रतिबद्धता के साथ संघर्षशील रहे –
समाज को बदलने और समता व समृद्धि पर आधारित समाज निर्मित करने के लिए लोहिया निरंतर और अगर गुलाम भारत में अंग्रेजों ने उन्हें एक दर्जन बार गिरफ्तार किया तो आजाद भारत की सरकार ने उन्हें उससे भी ज्यादा बार. अन्याय चाहे जर्मनी में हो, अमेरिका में हो या नेपाल में उनके रक्त में उसे सहने की फितरत नहीं थी.
वे पूरे साहस के साथ उसका प्रतिकार करते थे फिर कीमत चाहे जो चुकानी पड़े. वे कीमत की परवाह नहीं करते थे और अकेले ही बड़ी से बड़ी ताकतों से टकरा जाते थे. लेकिन उनका संघर्ष सिर्फ टकराने के लिए नहीं बल्कि नई रचना करने और उनका व्याख्यान नया विमर्श खड़ा करने के लिए होता था. इसीलिए उन्होंने अपने साथियों को राजनीति के लिए जेल, फावड़ा और वोट जैसे प्रतीक दिए थे. इसमें जेल संघर्ष का प्रतीक थी तो फावड़ा रचना और वोट लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता परिवर्तन का.
गिरफ्तारी के बाद उन्हें लाहौर किले की जेल में उसी कोठरी में रखा गया जिसमें सरदार भगत सिंह को रखा गया था. उसी किले में बंद जयप्रकाश नारायण को भीषण यातना दी जा रही थी तो दूसरी तरफ लोहिया को. उन्हें बर्फ की सिल्लियों पर नंगा करके लिटाया जाता था और कई दिन रात जगाकर रखा जाता था. इससे उनकी आंखें खराब हो गईं और दांत वगैरह भी क्षतिग्रस्त हुए.
लेकिन लाहौर जेल से छूटने के बाद वे खामोश नहीं बैठे. वे गोवा मुक्ति के संग्राम में लग गए और आश्चर्य की बात यह है कि गोवा मुक्ति के संग्राम में उनके साथ न तो नेहरू थे और न ही पटेल. सिर्फ गांधी जी उनके साथ थे. उन्होंने गोवा के पुर्तगाली शासन का अत्याचार उन्होंने झेला लेकिन जनता को मुक्ति आंदोलन के लिए खड़ा कर दिया.
जिन्दा कौमें 5 साल तक इन्तजार नहीं किया करतीं”
इन्सान जिन्दा कौम है और “जिन्दा कौमें 5 साल तक इन्तजार नहीं किया करतीं”। राजनीति का ये वो दौर था जब नेहरु जैसी महान शख्शियत राजनीति के पटल पर छाये हुये थे। ये कांग्रेस और नेहरु का स्वर्णिम दौर था। स्वतंत्रता संघर्ष में तपकर निकली कांग्रेस और गांधी के विश्वास पात्र नेहरु सत्ता के केंद्र में थे। किसी को उम्मीद नहीं थी कि कोई नेहरु को भी चुनौती दे सकता है। लोहिया ने ऐसा किया। “तीन आने और पंद्रह आने ” की बहस जिसने नेहरु को घुटनों के बल ला दिया। जनसरोकार से जुड़ी बहसों में आज तक की शानदार बहसों में से एक मानी जाती है।
वर्तमान में डॉ लोहिया ज्यादा प्रासंगिक –
स्वतंत्रता के 74 साल पूरे होने के बावजूद समस्याएं जटिल से और जटिल हो गई है।राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियां जनहित के विपरीत होती जा रही है। लोकतंत्र और संविधान सबकुछ हाशिए पर धकेल दिए जा रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में डॉ राम मनोहर लोहिया जैसे लोग प्रेरणा और साहस का काम करते हैं जो कहते हैं कि “जब सड़कें सूनी हो जाती है तो संसद आवारा हो जाती है।” और “जिन्दा कौमें 5 साल तक इन्तजार नहीं किया करतीं”*
[ लेखक गणेश कछवाहा काशीधाम, रायगढ़, छत्तीसगढ़ से हैं. •संपर्क : 94255 72284 ]
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