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19 अक्टूबर को पुण्यतिथि के अवसर पर संगीत और नृत्य का संगम प्रो. कल्याणदास महंत, प्रो. अश्विनी केशरवानी
कत्थक के विशिष्ट घरानों में रायगढ़ घराने का महत्वपूर्ण स्थान है। इस घराने को जिन प्रतिभाओं ने उन्नत किया है उनमें कल्याणदास महंत का विशिष्ट स्थान है। आइए, संगीत और नृत्य से जुड़े और मध्यप्रदेश शासन द्वारा ‘शिखर सम्मान‘ से सम्मानित इस कलाकार के जीवन के पृष्ठों पर दृष्टिपात करें।
संगीत और नृत्य एक दूसरे से जुड़ी दो विधाएं, लेकिन एक दूसरे में काफी घुली मिली, फिर भी बहुत कम प्रतिभाएं ऐसी होती हैं जिनका इन दोनों विधाओं पर समान अधिकार होता है।कल्याणदास महंत उन्हीं बिरली प्रतिभाओं में से एक हैं। कहते हैं, प्रतिभा जन्मजात होती हैं लेकिन प्रतिभा को अगर माहौल भी अनुकूल मिल जाये तो प्रतिभा के उस अंकुर को एक लहलहाते पेड़ में परिवर्तित होते देर नहीं लगती। कल्याणदास महंत के साथ भी ऐसा ही हुआ।
10 अक्टूबर 1921 को बिलासपुर जिले के मड़वा (नवापारा) ग्राम में कुशालदास महंत के घर द्वितीय पुत्ररत्न के रूप में कल्याणदास का जन्म हुआ। उनका बचपन पिता और बड़े भाई के संगीतमय माहौल में बीता, जिससे सात वर्ष की उम्र से ही संगीत (नृत्य और गायन) की ओर इनका झुकाव बढ़ता ही गया। बड़े भाई ‘इसराज‘ बजाते थे, जिससे आसपास के तबला और हारमोनियम वादक और गायक कलाकारों की बैठक इनके घर आये दिन हुआ करती थी। बालक कल्याण की रूचि इससे स्वाभाविक रूप से बढ़ती गयी।
कला चंद्रपुर से सारंगढ़ ले आयी
कल्याणदास जी कहते हैं, ‘गांवों में गम्मत और नाचा हुआ करता था। मेरी रूचि देखकर लोग मुझे आमंत्रित करने लगे। उनका खुश होना मुझे उत्साहित करता था। आज जो सम्मान मुझे मिला है, यह उसी का प्रतिफल है। एक बार चंद्रपुर के जमींदार शशिभूषण सिंह का हमारे घर आगमन हुआ उस दिन संयोग से बोलवा उस्ताद और लल्लूलाल तबला और हारमोनियम पर संगत कर रहे थे। बड़े भाई इसराज बजा रहे थे। बस, मेरे नृत्य का सितारा चमक उठा। मुझे आज भी उस दिन गाये गीत के बोल याद हैं। चंद्रपुर के जमींदार उसी से आकर्षित होकर मुझे चंद्रपुर ले आये … ‘यमुना तट में राम, खेलत होरी यमुना तट में।‘ नृत्य विधा में मेरी कीर्ति चारों ओर फैलने लगी और एक दिन गांव में सनसनी फैल गयी जब सारंगढ़ रियासत के सिपाही परवाना लेकर हमारे घर आये। पहले तो सिपाही को देखकर हम लोग डरे, बाद में जब उन्होंने परवाना पढ़कर सुनाया और मुझे राजदरबार में ससम्मान ले जाने की अपनी मंशा जाहिर की तो खुशी से मैं उनके साथ हो लिया। इस प्रकार मैं चंद्रपुर से सारंगढ़ आ गया। यहां राजदरबार में मेरा नृत्य-गायन हुआ-
बहियां रे, घर जाने को छोड़ मोरी,
राह-बाट मोरी रोकत-टोकत है…।
मेरा बाल नृत्य देखकर राजा बहादुर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दीवान की सलाह मानकर मुझे दरबार में रहने की अनुमति दे दी। सारंगढ़ रियासत में मेरी उपस्थिति से सबसे ज्यादा खुशी राजकुमारी वासंती देवी को हुई। उनका संगीत के प्रति झुकाव था। मेरे नृत्य-गायन से प्रसन्न होकर वे हारमोनियम पर संगत करतीं और गीत गाती थीं-‘दिया बिना सूनी रे, हवेली कौनो काम की…।‘
बाद में उनकी शादी रायगढ़ के राजा चक्रधरसिंह से हुई। विवाहोपरांत वे रायगढ़ आ गयीं। मेरा नृत्य-गायन जैसे निर्जीव हो गया। लेकिन किस्मत को यह मंजूर नहीं था और एक दिन राजा चक्रधरसिंह के आगमन से ही मेरा सितारा पुनः चमक उठा। मेरा नृत्य देखकर वे अति प्रसन्न हुए। संगीत के पारखी तो वे थे ही, मेरा बाल नृत्य उन्हें मोहित कर गया और वे मुझे रायगढ़ ले आये। यहां मेरे जैसे और भी कलाकार थे। मुझे कार्तिकराम, फिरतूदास और बर्मनलाल का साथ मिला। हम उम्र साथ से हमारा उत्साह दोगुना होता, प्रतिस्पर्धा की होड़ से हमारी कला में निखार आता गया।
संगीतमय रियासत
रायगढ़ रियासत शुरू से ही संगीतमय रही है। आजादी और सत्ता हस्तांतरण के बाद सदियों से चले आ रहे भारतीय राज्यों तथा रियासतों के सभी विशेषाधिकार समाप्त कर भारतीय संघ में इनका विलय कर दिया गया। जिसके बाद यह रियासत इतिहास के पन्नों में कैद होकर, गुमनामी के अंधेरे में धीरे धीरे अपना अस्तित्व खोने लगी। लेकिन कुछ रियासतें ऐसी भी थीं, जिन्हें साहित्य, संगीत और कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए आज भी याद किया जाता है। छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्वी भाग में रायगढ़ रियासत और और राजा चक्रधरसिंह का नाम भारतीय संगीत और कत्थक नृत्य के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखता है। राजसी ऐश्वर्य, भोग-विलास और झूठी प्रतिष्ठा की लालसा से दूर उन्होंने अपना जीवन संगीत, कला और साहित्य को समर्पित कर दिया। फलस्वरूप 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रायगढ़ दरबार की ख्याति कत्थक नृत्य के क्षेत्र में समूचे भारत में सिर चढ़कर बोलने लगी थी। राजा चक्रधरसिंह के योगदान के कारण ही लखनऊ, जयपुर और बनारस जैसे कत्थक के विशिष्ट घरानों के साथ रायगढ़ घराने का भी नाम जुड़ गया। सन् 1924 में उनके बढ़े भाई राजा नटवरसिंह की आकस्मि मृत्यु के उपरांत, राजगद्दी सम्हालने के बाद उनका ज्यादा समय साहित्य, संगीत और कला में ही व्यतीत होने लगा। वे छत्तीसगढ़ के प्रतिभावान कालाकारों को खोजकर उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था कर, उनकी प्रतिभा को उभारने लगे।
इन्हीं प्रतिभाओं में कातिकराम, कल्याणदास, फिरतूदास और बर्मनलाल प्रमुख हैं। देश के चोटी के कलाकारों को अपने दरबार में आमंत्रित कर उन्हें कत्थक, गायन और तबला वादन की शिक्षा देने का प्रबंध किया गया तथा स्वयं राजा चक्रधरसिंह ने भी इन गुरूओं से संगीत के शास्त्रीय पक्ष तथा तबला वादन की शिक्षा ग्रहण की। इनके अथक प्रयास और लगन से, कत्थक के विद्वान गुरूओं के सानिघ्य और दीक्षा से चारों कलाकार देश-विदेश में ख्याति अर्जित करने लगे। कार्तिक-कल्याण की जोड़ी तो बहुत मशहूर हुई। 1935 में कलकत्ता में आयोजित आल इंडिया बंगाल म्यूजिक कान्फ्रेंस में इन्हें स्वर्ण और रजत पदक मिला। 1937 में इन्होंने इलाहाबाद संगीत सम्मेलन में स्वर्ण और रजत पदक प्राप्त किया। 1936 में दिल्ली आल इंडिया म्यूजिक कान्फ्रेंस में कल्याणदास को विशेष सम्मान एवं नृत्य प्रोफेसर की उपाधि प्रदान की गयी।
कार्तिक-कल्याण मेरी आंखें हैं
एक वाकिए का जिक्र करते हुए कल्याणदास जी ने बताया कि 1937 में इलाहाबाद में आयोजित आॅल इंडिया म्यूजिक कान्फ्रेंस में हमारे प्रदर्शन से प्रभावित होकर दतिया और नेपाल के महाराजा ने कार्तिक-कल्याण और फिरतूदास को कुछ समय के लिए अपने राज्य में ले जाने की अनुमति देने का जब अनुरोध किया, तब राजा चक्रधरसिंह ने जवाब दिया था- ‘कार्तिक-कल्याण मेरी आंखें हैं और फिरतू-बर्मन मेरी भुजा, जिन्हें मैं किसी भी कीमत पर एक क्षण के लिए भी अपने से अलग नहीं कर सकता।‘
रायगढ़ दरबार में आमंत्रित संगीतज्ञों में जयपुर घराने के पंडित जगन्नाथ प्रसाद पहले गुरू थे। उन्होंने तीन वर्ष तक यहां कत्थक की शिक्षा दी। इसके पश्चात 1930 में पं. जयलाल यहां आये और राजा चक्रधरसिंह के अंतिम समय तक रहे। कत्थक के प्रख्यात गुरू और लखनऊ घराने से सम्बद्ध पं. कालिकाप्रसाद के तीनों पुत्र अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज जैसे चोटी के कलाकारों ने भी समय समय पर रायगढ़ दरबार को सुशोभित किया। बिंदादीन महाराज के शिष्य सीताराम महाराज भी यहां रहे। उस्ताद कादर बख्श, अहमद जान थिरकवा जैसे प्रसिद्ध तबला वादक यहां बरसों रहे। इनके अतिरिक्त मुनीर खां, जमान खां, कामत खां, सादिक हुसैन आदि ने भी तबले की शिक्षा दी। कत्थक में गायन के लिए हाजी मोहम्मद, अनाथ बोस, नन्हें बाबू, धन्नू मिश्रा और नासिर खां भी रायगढ़ दरबार में रहे।
दरअसल रायगढ़ दरबार को संगीत एवं नृत्य के क्षेत्र में इतनी ख्याति इसलिए मिली, क्योंकि यहां प्रतिवर्ष गणंश मेला उत्सव मनाया जाता था जिसमें चोटी के कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री सुलक्षणा पंडित का बचपन भी रायगढ़ में ही बीता है।
मध्यप्रदेश शिखर सम्मान
सन् 1985 में मध्यप्रदेश शासन द्वारा प्रो. कल्याणदास महंत को ‘‘शिखर सम्मान‘‘ प्रदान किया गया। कला, संगीत और साहित्य की त्रिवेणी से सींचे कलाकारों में से कल्याणदास को सम्मान प्राप्त हुआ। आगे चलकर श्री कार्तिकराम और श्री बर्मनलाल को भी मध्यप्रदेश शासन द्वारा शिखर सम्मान प्रदान किया गया। सम्मान मिलने के बाद सर्वप्रथम किरोड़ीमल शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय रायगढ़ के वार्षिक स्नेह सम्मेलन में बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित कर सम्मानित किया गया। उनके शिष्य देश-विदेश में उसकी परंपरा को प्रचारित कर रहे हैं। लेकिन वे अपनी अंतिम सांस तक संगीत को समर्पित रहकर इंदिरा कला एवं संगीत विश्व विद्यालय खैरागढ़ में प्राध्यापक रहे। उन्होंने 19 अक्टूबर 1991 को अंतिम सांस लेकर संगीत परंपरा को अलविदा कहकर स्वर्गारोहण किया।
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