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- ▪️ बुकर पुरस्कार प्राप्त कृति ‘ रेत समाधि ‘ चर्चा है पठनीयता के संकट में : विनोद साव.
▪️ बुकर पुरस्कार प्राप्त कृति ‘ रेत समाधि ‘ चर्चा है पठनीयता के संकट में : विनोद साव.
आखिरकार ३७६ पृष्ठों की गीतांजलि श्री की साठ लाख रुपयों के बुकर पुरस्कार प्राप्त कृति को मैंने पढ़ ही लिया. इसे अमेजान से हमारे रूचि-सम्पन्न अधिकारी महोदय सुनील कुमार जैन साहब ने रू. ९९५/- में मंगाया है. यह पुरस्कृत उपन्यास दुर्ग के अध्येता प्रखर बुद्धिजीवी कनक तिवारी से बिना किसी अनुशंसा के मुझ तक अग्रेषित हो गया था. ये कहते हुए कि “हमें तुम्हारी बहुत चिंता है विनोद.. किताब किसी से मिली थी वह तुम्हें दे दी है.” उनकी पढ़ाकू जीवन संगिनी पुष्पा जी बोलीं कि “तुम्हारी उम्र है सह लेने की। हम तो तबियत खराब कर बैठे । किताब अच्छी है हमीं उसके लायक नहीं बन पाए.” इन दिनों मैं भी गाँधी पर बोलने के लिए आमंत्रित होता रहा तो मुझे लगा कि इस ग्रंथ को पढना भी किसी सविनय अवज्ञा आन्दोलन से कम नहीं है.”
इसे पढ़ते समय फेसबुक में ट्रायल-टेस्टिंग के बतौर यह कहते हुए मैंने पोस्ट किया कि ‘रेत समाधि को पढ़ते पढ़ते खुद की समाधि न बन जाए.’ तब दिल्ली की व्यंग्यकार अनीता यादव ने सबसे पहले जुमला फेंका कि “हम तो समाधि से पूर्व ही निकल आए थे.” पुणे की लेखिका समीक्षा तैलंग ने अपनी समीक्षा न कर पाने की विवशता कही कि “मैं तो नहीं पढ़ पायी।“
भिलाई के भरतलाल साहब जो हिंदी और अंग्रेजी दोनों साहित्य में लिखने पढने बोलने में उम्दा प्रभाव छोड़ते हैं, ने अपने संशय को यों व्यक्त किया कि “आपका यह पोस्ट मुझे बहुत कुछ राहत देने वाला है। इसको (रेत समाधि) पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा कि आधुनिक हिंदी उपन्यास लेखन में हुए इस अद्भुत और विचित्र परिवर्तन से मैं पूर्णतः ही अनभिज्ञ हूँ। चलिए मेरे इस व्यर्थ के ही हीन-भावना वाला एहसास थोड़ा कम जरूर हुआ है.”
भिलाई के ही अवकाश प्राप्त वरिष्ठ प्रबंधक साहित्य के पाठक सुरेश गुप्ता ने कहा कि “मैं भी अभी तक अपने को ही दोषी समझ रहा था, और साथ ही सोच रहा था कि इसका अंग्रेजी अनुवादक कितना बड़ा ज्ञानी रहा होगा। या शायद हमें यह पुस्तक अंग्रेजी में ही लेनी चाहिए थी। चार महीने में साठ पृष्ठ पढ़ पाया।“
बी.एच.यू से अमेरिकन और भारतीय साहित्य की पढाई किए हुए मदन केशरी ने टिप्पणी की है “रुपए 995 में कमलेश्वर की सम्पूर्ण कहानियाँ और संपूर्ण उपन्यास (सजिल्द) खरीदे जा सकते हैं जो साठोत्तरी हिन्दी साहित्य की निधि हैं। फिर यह प्रायोजित चर्चा वाली पुस्तक क्यों पढ़ें!’ ज्ञातव्य हो कि कमलेश्वर और गीतांजलि श्री दोनों ही उत्तरप्रदेश के मैनपुरी के रहवासी हैं.
प्रगतिशील कवि शरद कोकास ने कहा कि “मैंने तो साढ़े चार सौ रुपए वाली मंगाई है धीरे-धीरे पढ़ रहा हूं किस्तों में। इस साल पूरी कर लूंगा.” तब उनके जनवादी मित्र नासिर अहमद सिकंदर ने पूछा “आप सब भी कहाँ नई तकनीक की दुनिया खंगालते हैं, बाज़ारवाद के अक़ीदे में घुस जाते हैं। हम तो ये सब सिर्फ संस्कारों के लिए नही अब के सर्विस एग्जाम के प्रश्न पत्र में करेंट अफेयर्स के 50 नम्बरों के लिए पढ़ाने हेतु, रट्टामार पढ़ते हैं।“ ‘लहक’ के संपादक समीक्षक निर्भय देवयांश ने कहा कि “ दाम में छलांग दर छलांग.”
दुर्ग के बाल साहित्यकार कमलेश चंद्राकर ने मुफ्त में पढने वालों को फटकारा “मुफ्त की पढ़ोगे तो समाधि तो लगेगी ही। जरा खर्च करके पढ़ो, समाधि से बाहर निकल आओगे और ढूँढोगे लिखने वाले को। हमारे एक प्रबुद्ध मित्र ने खरीद लिया है झटके में और बोल रहे हैं, एक साल लगेगा पढ़ने में। हमें समझ आ गया वो लग गए हैं लेखक को ढूंढने में।“
तखतपुर के अध्ययनशील पाठक महेश पाण्डेय का यह सुझाव आया कि “पुरस्कार रेत समाधि को आद्योपांत पढ़ने वाले को भी मिलना चाहिए। यह कृति लेखक पाठक आलोचक सबके लिए दुरुह है“ तब टिप्पणी करने के लिए सदैव तत्पर राजिम के सक्रिय रचनाकर्मी दिनेश चौहान ने पूछा “महेश पाण्डेय जी, लगता है आप भी दावेदारों की सूची में शामिल होने की पात्रता रखते हैं.”
इस उपन्यास पर मुझसे यूट्यूब के लिए बातचीत भी हुई है जिसमें इसके अनेक सकारात्मक प्रसंगों पर भी बात हुई है. यहां उपरोक्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं पठनीयता का एक ‘सेम्पल” है. इससे एक बात तो साफ हुई कि ‘रेत समाधि को लिखने की जितनी बड़ी चुनौती लेखिका की रही है इसके पाठकों के सामने इसे पढ़े जाने की भी कम चुनौती नहीं रही है. लेखक रॉयल्टी पारिश्रमिक की आस रखता है तो ऐसे कृतिकारों के लिए लेखन का यह सौदा भरपूर लाभ का तो है.. सिवाय इस दुःख के कि पाठक कहाँ से लाएं. किताबें तो लोग खरीद लेंगे पर उन्हें कितनी पढ़ पाएँगे? लेखक लिखने के लिए बाध्य है तो पाठक अपना पैसा छुटाने पढ़ने के लिए बाध्य होता है. यह भी कहा जाता है कि पाठक के पास पढने का सलीका होना चाहिए.
पठनीयता के संकट की यह चर्चा बुकर पुरस्कार के बाद साहित्यिक पत्रिकाओं की ‘कृति-चर्चा’ में भी आई है. एक सीमित पारिवारिक कथा के चित्रण में कदम कदम पर विस्तार इतना अधिक की कहानी को टटोलना पड़ता है. कथा में निहित स्थितियों के चित्रण में आया मध्यांतर शिल्प और शैली के प्रयोगों में इतना उलझा कि प्रयोगशाला के भीतर ही रह गया. इसलिए भी गीतांजलि-श्री अनेक कृतियों की सर्जना के बाद भी एक अनजानी सी और कम पठित लेखिका रहीं. उपन्यास में पाश्चात्य प्रभाव से अभिजात्य जीवन जीता एक पारिवारिक द्वंद उपस्थित है. कथा का यह धरातल तथा पुरस्कार की प्रकाशन सम्बंधी शर्तों को पूरा करता हुआ इसका अंग्रेजी अनुवाद बहुत उम्दा हुआ हो और निर्णायकों को भा गया हो. इसलिए कृतिकार के लिए यह पुरस्कार एक बड़ी उपलब्धि रही. बावजूद इन चर्चाओं के गीतांजलि-श्री को बुकर जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से अलंकृत हो पहली बार एक भारतीय भाषा हिन्दी को गौरव दिला देने के लिए ढेरों बधाइयाँ. पुरस्कार पर वे कहती भी हैं कि ‘यह भाग्य है नक्षत्रों का खेल.”
•विनोद साव
•संपर्क –
•90098 84014
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