▪️ व्यंग्य : दीवाली के कूंचे से यूँ लक्ष्मी जी निकलीं ❗ – राजेंद्र शर्मा
लक्ष्मी निवास की ड्योढ़ी की सीढियां चढ़ते-चढ़ते, उलूक राज का दिल अनिष्ट की आशंकाओं से बैठा जा रहा था। ऑफीशियली देवी लक्ष्मी के नाम किए गए इकलौते दिन पर भी इतना सन्नाटा! गहमा-गहमी दूर, जरा सी खटर-पटर तक नहीं। शाम घिरने को आ रही थी और अंधेरा बढ़ा आता था, पर उसे रोकने को एक दिया तक नहीं। भारी परों सेे ड्योढ़ी पार कर के दरवाजे से ही देवी के कक्ष में उसने झांककर देखा, तो दिल बैठ ही गया। भीतर जो स्त्री काया दिखाई देे रही थी, उसमें बड़े त्यौहार वाली देवी की छोड़ो, किसी छोटी-मोटी देवी वाली भी कोई बात नहीं थी। बेतरतीब बिखरे बाल। सिलवट भरी साड़ी। गला-हाथ सब सूने। थका हुआ सा चेहरा। आंखों में गहरी थकान और उदासी। उलूक राज ने चरणों में शीष नवाते-नवाते मन की आशंका जताई – देवी, तबियत तो ठीक है? फिर खुद ही जोड़ दिया–तबियत को भी आज के ही दिन…। देवी ने कुछ खीझ कर कहा, तबियत ही तो खराब है, पर तन की नहीं, मन की। जब टैम ही खराब हो, तो मन अच्छा रह भी कैसे सकता है?
फिर भी उलूक राज को मन खराब होने की बात से कुछ तसल्ली ही मिली। यानी उसकी देवी का त्यौहार पूरी तरह से खराब होने से अब भी बचाया सकता था! मन के खराब होने के पीछे देवी की शिकायतों के बारे में उलूक राज को पहले से कुछ अंदाजा तो था। दैवीय सवारियों की गप-शप में उसने काफी कुछ सुना था। किसी को कम तो किसी को ज्यादा, छोटे-बड़े सभी देवी-देवताओं को अपनी कद्र घटाए जाने की शिकायत थी। कटे पर नमक छिडक़ने वाली बात यह थी कि कद्र में कमी कोई पब्लिक ने नहीं की थी, उल्टे पब्लिक तो टीवी युग में देवी-देवताओं का और ज्यादा भरोसा करने लगी थी। फिर भी कद्र घट रही थी, क्योंकि नरेंद्र-नरेंद्र कर के एक नया महा-देवता आ गया था, जो पुजाने की ज्यादा से ज्यादा जगह घेरता जा रहा था। उलूक राज सोच में पड़ गए कि देवी लक्ष्मी को समझाएं, तो समझाएं कैसे कि अपना इकलौता त्यौहार खराब नहीं करें।
आखिरकार, उलूक राज के दिमाग की बत्ती जली और उन्होंने आत्मदया जगाने का पुराना दांव आजमाया। कहने लगे कि देखा, आपको मेरी वजह से फिर से शर्मिंदा होना पड़ गया ना? मैंने तो आपसे पहले ही कहा था कि मुझे रिटायर कर दें और कोई नयी सवारी रख लें, जो तेज भी हो और आरामदेह भी। और हां, दिमागदार भी। पर आप हैं कि परम्परा के चक्कर में पुराने जमाने की सवारी से ही चिपकी हुई हैं। लक्ष्मी जी ने चौंक कर हैरानी से देखा, ये बात कहां से आयी। पर उलूक तो उनकी तरफ देखे बिना जो कहना था, कहता गया। मैं तो कहता हूं कि इसी बार से आप अपनी नयी सवारी कर लो। इस बार मौका है, उसे हाथ से मत जाने दीजिए। चीता वापस आ ही चुका है और उसे सवारी बनाने के लिए किसी और देवी-देवता ने अब तक दावा भी नहीं किया है। आप झट से चीता सवार हो जाएं। दुर्गा अगर शेर पर सवार हो सकती हैं, तो आप चीते पर तो सवार हो ही सकती हैं। रौब में भले शेर से कम हो, पर रफ्तार में चीता नंबर वन है। फिर कोई आप को उल्लू सवार का उलाहना…। लक्ष्मी जी को उलूक की ओर मुखातिब होना ही पड़ा। लाढ़ से सिर थपथपाते हुए बोलीं–पगलेे, तुझसे ये किस ने कहा कि तेरी वजह से मेरा मन खराब है। बात वह तो है ही नहीं।
संवाद की संद देखकर उलूक ने उसमें पांव अड़ा दिया। तो बात क्या है? लक्ष्मी जी ने लंबी उसांस लेकर कहना शुरू किया। दीवाली किस का त्यौहार है – मेरा ना। साल में एक दिन का त्यौहार, आगे-पीछे के दिन भी जोड़ लें, तो भी ज्यादा से ज्यादा दो-तीन दिन। दूसरों के नौ-नौ, दस-दस दिन और मेरे एक दिन पर भी आफत। अब भाई लोग उसमें भी हैडलाइन्स चुरा रहे हैं। अयोध्या में दीवाली से एक दिन पहले अपनी अलग देव-दीपावली शुरू कर दी। हर साल लाखों दीयों का रिकार्ड बना रहे हैं और असली दीवाली को छोटा करने के लिए, अपनी वाली दीवाली की रेखा लंबी करते जा रहे हैं। हद्द तो यह कि इस बार तो खुद नरेंद्र देव भी देव दीवाली का डंका बजाने पहुंच रहे हैं। और बात सिर्फ दीयों के रिकार्ड की होती, तो मैं चुप भी रह जाती। पर ये नरेंद्र देव तो पहले दिन अमरनाथ, फिर बद्रीनाथ, ऐसे कर के दीवाली के मेरे दिन को पूरी तरह से हथियाते जा रहे हैं। फिर भी मैं खुशी-खुशी अपने दिन पर पूजा कराने का नाटक कैसे करती रह सकती हूं, तुम्हीं बताओ!
उलूक राज ने कहा कि आपकी शिकायत बिल्कुल वाजिब है। सच पूछिए तो कमोबेश ऐसी ही शिकायत दूसरे ज्यादातर देवी-देवताओं की भी है। पर अपनी छोटी बुद्धि से एक बात कहूंगा, जो नहीं जंचे तो उल्लू हूं, यह सोचकर माफ कर दीजिएगा। आप अगर सज-धजकर, तैयार होकर, खुद ही अपने दिन पर पूजा कराने के लिए नहीं निकलेंगी, तब तो आपसे दीवाली पूरी तरह से छिन ही जाएगी। हड़ताल-वड़ताल वाली यह ट्रेड यूनियन टैक्टिक्स, आप देवलोकवासियों के लिए नहीं है। आप तो बस इसकी जुगत बैठाओ कि आपकी दीवाली, देव दीवाली वगैरह से बड़ी कैसे हो। लक्ष्मी जी को उलूक राज की बात कुछ जंची तो। फिर भी कहने लगीं कि अगलों ने मेरे लिए, अपनी दीवाली को बड़ा करने का भी तो कोई मौका नहीं छोड़ा है। दीवाली की रात को हम-तुम, घूम-घूमकर जो थोड़ी बहुत धन वर्षा कर लिया करते थे, उसे रुकवाने के लिए ही तो मुफ्त की रेवडिय़ों का शोर मचाया जा रहा है। और अब तो हद्द ही हो गयी। मेरी दीवाली के टैम पर मुझसे बड़ा दाता बनकर दिखाने के लिए, नरेंद्र देव अब खुद अपने हाथों से सरकारी नौकरियों का पट्टा भी दे रहे हैं। इतने नाबराबरी के मुकाबले में मेरे लिए चांस ही कहां है!
उलूक राज ने कहा कि जी तो मेरा भी जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाने को करता है। पर वही बात है कि देवलोकवासियों और उनकी सवारियों को तो इसकी भी इजाजत नहीं है। सो जितनी दीवाली आप की है, कम से कम उतनी पर दावा तो बचाएं। कम से कम अपने हाथों से अपना नुकसान नहीं कराएं। जब तक बचे, परंपरा तो बचाएं। कम दीयों वाली सही, बिना धनवर्षा वाली सही, पटाखों से खाली सही, कम से कम दीवाली मनाएं।
लक्ष्मी जी भी फटाफट तैयार हुईं और अपने प्रिय उलूक पर सवार होकर, निकल गयीं दीवाली की रात में छुटपुट धनवर्षा करने।
•राजेंद्र शर्मा
[ •व्यंग्यकार राजेंद्र शर्मा ‘ लोकलहर ‘ के संपादक हैं ]
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