▪️ मशहूर शायर गीतकार साहिर लुधियानवी : ‘ जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है, जंग क्या मसअलों का हल देगी ‘ : वो सुबह कभी तो आएगी – गणेश कछवाहा.
मशहूर शायर एवं गीतकार साहिर लुधियानवी का जन्म संयोग से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन यानी आज 8 मार्च को लुधियाना में हुआ था।वैसे उनका असली नाम अब्दुल हई था पर साहिर नाम उन्होंने खुद रखा था जिसका अर्थ है जादूगर। पंजाब राज्य के लुधियाना में जन्म होने के कारण उनका यहां से खासा लगाव था इसलिए उनका नाम साहिर लुधियानवी हो गया था। उनके पिता एक धनी व्यक्ति थे मगर साहिर को बचपन से ही पिता का प्यार मिला नहीं था।
माता-पिता के अलगाव के बाद वो अपनी मां के साथ रहने लगे थे।मां के जीवन के दुख और संघर्ष ने साहिर के जीवन पर एक गहरी छाप छोड़ी थी। साहिर की पढ़ाई-लिखाई लुधियाना में ही हुई थी। कॉलेज के दिनों में ही उन्होंने अपनी शायरी से लोगों का दिल जीत लिया था। कॉलेज में उनकी दोस्ती अमृता प्रीतम से हुई थी। साहिर ने अमृता के दिल में वो जगह बनाई जिसे फिर कभी कोई और नहीं ले सका।
साहिर लुधियानवी पर फ़ैज़ और मजाज़ का ख़ासा प्रभाव पड़ा था। मात्र 24 साल में उनकी किताब ‘तल्ख़ियाँ’ बाज़ार में आ चुकी थी। उनकी पहली किताब का नाम ‘तल्ख़ियाँ’ था जिसका अर्थ है ‘कड़वाहटें’। जिससे उन्हें शोहरत की बुलंदियां भी प्राप्त हुई थी। साहिर उर्दू अख़बार ‘अदबे-लतीफ़’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ के मुदीर (संपादक) बन चुके थे।‘सवेरा’ में साहिर ने हुकूमते-पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लिखकर आफ़त मोल ले ली थी और नतीज़ा स्वरूप उनके नाम गिरफ़्तारी का वारंट भी जारी हो गया था।
साहिर के विचार साम्यवादी थे।साम्यवादी विचार से संपूर्ण और जीवन का संघर्ष शब्दों के ज़रिए लोगों तक पहुंचाने वाले साहिर लिखते हैं
“जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी “
साहिर लुधियानवी अपनी आत्मकथा ‘मैं साहिर हूँ’ में लिखते हैं कि – “मुझे ख़बर मिली कि हमीद को कराची में गिरफ़्तार कर लिया गया है. अब मैं ख़ुद को असुरक्षित और अकेला महसूस कर रहा था. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. एक दिन, जून 1948 की चिलचिलाती गर्मी में, शर्लक होम्स (मफ़लर, ओवरकोट, काले चश्मे और एक अंग्रेज़ी टोपी पहने हुए) के वेश में, मैं भारत आने के लिए निकल पड़ा.”
”सूरज इतना गर्म था कि चील तक ने अंडे छोड़ दिए थे. चोटी से एड़ी तक पसीना बह रहा था, मैं गर्मी की वजह से साँस नहीं ले पा रहा था. ज़ाहिर सी बात है इतनी गर्मी में ओवरकोट में लिपटा, एक छोटा सा सूटकेस लिए तांगे पर बैठा, मैं स्पष्ट रूप से दूसरों को बहुत अजीब लग रहा था. मैं इतना सहमा और घबराया हुआ था कि मैं डर के मारे बार-बार इधर-उधर देख रहा था. ज़ाहिरी तौर पर, मैं अपनी तरफ़ से शांत और लापरवाह रहने की बहुत कोशिश कर रहा था.”
साहिर लिखते हैं, “ये मेरी ख़ुशक़िस्मती थी कि उन दिनों भारत और पाकिस्तान के बीच यात्रा के लिए वीज़ा और पास पोर्ट की ज़रुरत नहीं थी. इसलिए मैं बहुत ही ख़ामोशी से लाहौर के वाल्टन हवाई अड्डे से दिल्ली के लिए रवाना हो गया. एक महीने बाद जब हमीद अख़्तर लाहौर वापस लौटे, तो घर ख़ाली देखकर हैरान रह गए. मैं और मेरी मां वहां नहीं थे, जो उनके अनुसार मकान को घर का दर्जा दे चुके थे और सभी दोस्तों की मेहमान नवाज़ी करते थे.”
फ़िल्मी सफ़र
बॉम्बे में साहिर ने बहुत ही संघर्ष के बाद फ़िल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाई और भारत के सबसे लोकप्रिय फ़िल्मी शायर बन गए. उन्होंने बहुत सी फ़िल्मों को अपने गीतों से सजाया जिनमें ‘आज़ादी की राह पर’, ‘नौजवान’, ‘बाज़ी’, ‘प्यासा’, ‘मिलाप’, ‘साधना’, ‘जाल’, ‘अंगारे’, ‘अलिफ़ लैला’, ‘शहंशाह’, ‘धूल का फूल’, ‘ताजमहल’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘अंदाज़’, ‘दाग़’, ‘कभी-कभी’ और ‘इन्साफ़ का तराज़ू’ जैसी फ़िल्में शामिल थीं.
उन्होंने फ़िल्म ‘ताजमहल’ और ‘कभी-कभी’ के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार हासिल किया.
साहिर लुधियानवी के कई शायरी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें ‘तल्ख़ियां’, ‘परछाइयां’, ‘गाता जाए बंजारा’ और ‘आओ कि कोई ख़्वाब बुनें’ शामिल हैं.
2013 में, भारतीय डाक विभाग ने उनके नाम से एक स्मारक डाक टिकट भी जारी किया
साल 1970 में, उन्हें भारत सरकार ने पद्म श्री से सम्मानित किया. साल 1972 में उन्हें सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था. साल 2013 में भारतीय डाक विभाग ने उनके नाम से एक स्मारक डाक टिकट भी जारी किया था.
25 अक्टूबर 1980 को मुंबई में साहिर लुधियानवी का निधन हो गया. उनका असली नाम अब्दुल हई था.
दुनिया को उम्मीद जगाती रचना –
वो सुबह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़मे गाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर-मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्ज़त जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को ना बेचा जाएगा
चाहत को ना कुचला जाएगा, इज्ज़त को न बेचा जाएगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इज़ारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
फ़आक़ों की चिताओ पर जिस दिन इन्सां न जलाए जाएंगे
सीने के दहकते दोज़ख में अरमां न जलाए जाएंगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।
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देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
ऐ रूह-ए-अस्र जाग कहाँ सो रही है तू
आवाज़ दे रहे हैं पयम्बर सलीब से
इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से
हर गाम पर है मजमा-ए-उश्शाक़ मुंतज़िर
मक़्तल की राह मिलती है कू-ए-हबीब से
इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ
जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से
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•गणेश कछवाहा
[रायगढ़ छत्तीसगढ़]
•संपर्क –
[94255 72284]
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