नवगीत -अक्षरा हूँ

5 years ago
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वार भीतर तक करूँगा
अक्षरा हूँ

तुम अकारण ही
झलकते जा रहे हो
अपने ख़ालीपन पर
इतरा रहे हो
शांत रहता हूँ हमेशा
मैं भरा हूँ

हर पथिक को छाँव
देना चाहता हूँ
पक्षियों को ठाँव
देना चाहता हूँ
कट चुका हूँ बारहा
फिर भी हरा हूँ

आँधियों से हारकर
भागा नहीं हूँ
डोर हूँ मज़बूत
मैं धागा नहीं हूँ
वक़्त ने मुझको तपाया है
खरा हूँ

डॉ. माणिक विश्वकर्मा’नवरंग’
कोरबा,छत्तीसगढ़.
संपर्क-94241 41875

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