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पुस्तक समीक्षा : श्वांसों का अनुप्रास [कवि – महेंद्र वर्मा : समीक्षक – बलदाऊ राम साहू]

2 years ago
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‘ श्वांसों का अनुप्रास ‘ अभिव्यक्ति प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित केवल एक गजल संग्रह है ऐसा नहीं कह सकता क्योंकि इसमें 75 गजलें, 25 दोहे , 10 गीत और 12 नव गीतों का सुंदर संयोजन है। आदरणीय महेंद्र वर्मा की रचनाओं से यह जान पड़ता है कि वे मूल रूप में एक समाजशास्त्री हैं। उन्होंने समाज को जिस रूप में देखा है, समाज की पीड़ा को देखा, समग्र रूप में समाज को समझा है और उसे अपने अंदाज में ग़ज़लों, दोहों, और नवगीतों में अभिव्यक्त किया है । उनका काव्य संग्रह समय के साथ बातचीत करता हुआ दिखता है। सही कहा जाए तो साहित्यकार समय का पहरुआ होता है। महेन्द्र जी के इस काव्य संग्रह में आज का समाज दिखता है। वे जगह-जगह समाज की चिंता करते हुए दिखते हैं। वे अपनी बातें बड़ी गहराई से कहते हैं। उनका कहने का अंदाज कभी-कभी तो पूर्णतः दार्शनिक हो जाता है। मैं इस ग़ज़ल संग्रह की पहली ग़ज़ल से ही अभिभूत हूँ। आप भी उनकी इस ग़ज़ल से उनकी अभिव्यक्ति कौशल को पहचानेंगे और उनके विचारों को, उनके दृष्टिकोण को भी समझ सकेंगे। वे कहते हैं –
आदमी को आदमी-सा फिर बना दे देवता,
काल का पहिया जरा उल्टा घुमा दे देवता।
लोग सदियों से तुम्हारे नाम पर हैं लड़ रहे,
अक्ल के दो दाँत उनके फिर उगा दे देवता।

महेंद्र वर्मा जी अपनी बात जब कहते हैं तो वह अनुभूति पर आधारित होता है।
सहमे-से हैं लोग न जाने किसका डर है,
यही नजारा रात यही दिन का मंजर है।
सच कहते हैं लोग समय बलवान बहुत है,
रहा कोई महलों में लेकिन अब बेघर है।
*********
सुनते हैं रोने से दुख हल्का होता है,
कैसे जीते होंगे फिर न रोने वाले।
संत कबीर का एक गीत उन लोगों के लिए कहा है, जो लोग समाज में ईश्वर भक्ति की आड़ में ढोंग, आडम्बर फैलाकर ईश्वर को पुकारने के लिए जोर-जोर से मंदिरों में घंटा आदि बजाते हैं,ढोल ताशे बजाते हैं और लाऊड स्पीकर लगाकर ईश्वर की प्रार्थना आदि करते है।” गीत है, ‘चींटी के पग नेउर बाजे, तो भी साहेब सुनता है।’ महेंद्र जी इसे अपने अंदाज में कहते हैं –
चींटी के पग नेउर को भी सुनता हूँ
ढोल मंजीरे औ’ जयकारे बहुत हुए।
सहमी-सी है झील शिकारे बहुत हुए
और उधर तट पर मछुआरे बहुत हुए।

पुस्तक का शीर्षक ‘श्वासों का अनुप्रास’ निश्चय ही काव्यात्मक है। श्वास निरंतर आते-जाते रहते हैं।आने-जाने का एक निश्चित अनुक्रम होता है। इसी तथ्य को एक ग़ज़ल में वे कहते हैं –
जीवन लय को साध रहे हैं,
श्वासों अनुप्रास अभी भी।
सच को कारावास अभी भी
भ्रम पर सब की आस अभी भी।

महेंद्र जी का कहने का अंदाज उनका पूर्णतः मौलिक है। उनकी
पूरी रचना लयात्मकता से भरी हुई है। चाहे वे ग़ज़लें कहें या फिर गीत। इस काव्य संग्रह की बड़ी विशेषता तो कहन है। लेकिन छंदों में लिखी ग़ज़लें बरबस गाने का आग्रह करती है। ग़ज़लों में उर्दू की बहरों को साधने की अपेक्षा आपने कहन को अधिक सशक्त बनाया है। यही कारण है आपकी ग़ज़लें समाज सापेक्ष हो गई हैं। कहन में इतनी गहराई है कि पाठक रम-सा जाता है । गंभीर चिंतन से युक्त रचनाएँ हमें सोचने के लिए मजबूर करती हैं। वे सहज रूप में कह देते हैं-
छंदों के तेवर बिगड़े हैं
गीत-ग़ज़ल में भी झगड़े हैं।
आदरणीय महेंद्र जी सामाजिक आडंबरों के खिलाफ दिखते हैं उनकी लगभग सभी रचनाओं का तेवर समाज में हो रहे छल, कपट, छद्म के विरुद्ध है। आप एक ग़ज़ल में लिखते हैं-
लम्हा एक पुराना ढूंढ़,
फिर खोया अफसाना ढूंढ़

भला मिलेगा क्या गुलाब से
बरगद एक सयाना ढूंढ़।

महेंद्र वर्मा जी की ग़ज़लों को पढ़ने के बाद गजलों की दी गई समस्त परिभाषाएँ अप्रासंगिक लगती हैं । उन्होंने तो दिशाएँ मोड़ दी है, गजल को एक ऊंचाई दी है। एक नई परिभाषा रची है। जब दुष्यंत कुमार जी ने हिंदी गजलें कहीं तब उनकी गजलों में समसामयिकता ने स्थान पाया और गजलों की रुढ़ियाँ टूटी। महेंद्र वर्मा जी दुष्यंत कुमार से एक कदम आगे दिखते हैं ।
कल से नए वर्ष का आगमन हो रहा है। वे कहते हैं-
ढूंढो कोई कहाँ पर रहती मानवता
मानव से भयभीत सहमती मानवता।
मेरे दुख को अनदेखा न कर देना
नए वर्ष से अनुनय करती मानवता।

महेंद्र जी की कुछ ग़ज़लें बहुत ही सहज और सरल अर्थ ग्राह्य है जैसे बाल गीत हो।
सूरज- सा हरकारा दिन
फिरता मारा-मारा दिन।
कहा सुबह ने हँस लो थोड़ा
फिर रोना है सारा दिन।
और यह भी-

मुट्ठी खोलो देख जरा,
क्या खोया क्या पाया है।
महेंद्र वर्मा एक किसान परिवार से आते हैं। इसलिए उन्होंने किसान की पीड़ा को देखा है, भोगा है, इसलिए वे कहते हैं-
फसल उगा सबको जीवन दूँ, मुझ भूखे को मौत मिली।

आज समाज में धर्म, जाति,पंथ के नाम से लोग लड़ रहे हैं कदापि यह सहा नहीं जाता। इस पर वे कहते हैं-

मज़हबों के नाम पे बस खून की नदियाँ बहीं,
जो कबीरा ने कही उन साखियों का क्या हुआ।

मंदिर-मस्जिद क्यों भटकूं
जब मेरा तीरथ नेक,
शब्दों का सुरसदन बना है मेरे चारों ओर।

उनका दार्शनिक अंदाज इस तरह अभिव्यक्त होता है-

बुलबुले सी ज़िन्दगानी, या खुदा,
है कोई झूठी कहानी, या खुदा।
पाँव धरती पर गड़े सबके मगर,
ख्वाब बुनते आसमानी, या खुदा।

पीड़ा को सहना और पीड़ा को कहना कोई महेंद्र जी से सीखे-
यादों को विस्मृत कर देना बहुत कठिन है,
खुद को ही धोखा दे पाना बहुत कठिन है ।
जाने कैसी चोट लगी है अंतःतल में,
टूटे दिल को आस बँधाना बहुत कठिन है।

इस संग्रह पर इंग्लैंड में रहने वाली भारतीय साहित्यकार उषा राजे सक्सेना जी कहती हैं-
“कुछ पंक्तियाँ तो ऐसी हैं कि पढ़ने के बाद देर तक मन में मंदिर की घंटियों जैसी गूंजती रहती हैं। साथ ही चिंताएँ मन को आहत करती हैं। ये कविताएँ अंधेरे में प्रिज्म की तरह चमकती है,जो तरतीब के साथ लिखी गई है।”

जब एक समीक्षक के रूप में उनकी रचनाओं की बारीकी से मैं रूबरू हुआ , तो मेरी तो नींद ही उड़ गई ।
उन्होंन नवगीतों मेँ जिन बिंबों का प्रयोग किया है, वे अनोखे हैं-
कुछ भी नहीं था
पर शून्य भी नहीं था
चीख रहे उद्गाता।

जगती का रंगमंच
उर्जा का है प्रपंच
अकुलाए से लगते
आज महाभूत पंच
दिक् ने जो काल से
तोड़ लिया नाता।

दोहों के माध्यम से महेंद्र जी सीधे-सरल विचार रखते हैं-
युवा शक्ति मिलकर करे, यदि कोई भी काम
मिले सफलता हर कदम, निश्चित है परिणाम।
अहंकार जो पालता , पतन सुनिश्चित होय,
बीज प्रेम अरु नेह का, निरहंकारी बोय।
उनके दोहो में प्रकृति के जो रंग हैं, उसे भी आप देखें- फागुन आता देखकर उपवन हुआ निहाल,
अपने तन पर लेपता, केसर और गुलाल।
तन हो गया पलास-सा, मन महुए का फूल
फिर फगुवा की धूम है, फिर रंगों की धूल।
टेसू पर उसने किया बंकिम दृष्टि निपात,
लाल लाज से हो गया, वसन हीन था गात।

बिल्कुल दार्शनिक अंदाज के दोहे-

रात रो रही रात भर, अपनी आंखें मूँद
पीर सहेजा फूल ने,बूँद बूँद फिर बूँद।
सूरज हमने क्या किया, क्यों करता परिहास।
धुआँ-धुआँ सी जिंदगी, धुंध-धुंध विश्वास।

महेंद्र वर्मा जी की प्रवृत्ति में सहजता,सरलता और तरलता है। यही सरलता, तरलता उनकी काव्यात्मक अनुभूति में है। वे सहज रूप में दोहे कहते हैं –

धरती मेरा गांव हैं, मानव मेरा मीत,
सारा जग परिवार है, गाएँ सब मिल गीत।
विपदा को मत कोसिए,करती यह उपकार।
बिन खरचे मिलता विपुल,अनुभव का उपहार।।
“कविता संग्रह की श्वसों का अनुप्रास की अधिकांश कविताएँ अंतर्मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। इसकी हर शे’र अपनों से बातें करती है। वास्तव में इस संग्रह में खो जाने का मन करता है।”

•समीक्षक संपर्क –
•94076 50458

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