कवि और कविता : संध्या श्रीवास्तव [भिलाई : छत्तीसगढ़]
🌸 संध्या सिंदूरी
संध्या सिंदूरी आँचल समेट
निकल पड़ी संध्यांचल की ओर
लेकिन मुझे तो जाना था उस ओर
जहां मैं प्रार्थना के अंतिम स्वर में
ख़ामोशी से डूब जाऊँ
शुद्ध हृदय की राह पर
नीरव निश्छल निह्शब्द
अनुगूँज के तार थाम चलूँ
वहाँ जहाँ हैं
सूखे आँसुओ के निशान
उन नदियों के जिन्हें रेत के लिए
ज़िन्दा दफ़ना दिया गया है
मुझे समझना है पहाड़ को जो
धीर स्थिर गम्भीर स्थित है
पर्वत से कंकड़ बनने की प्रक्रिया
के द्वंद्व में भी कैसे निर्द्व्न्ध समाधिस्थ है
मुझे उधार लेनी है मुस्कान
उन वन उपवन से जो
कटते सिमटते सहमे से हैं
जो बिन मौसम बरसात होने पर भी
लहकते मचलते मुसकाते
प्रार्थना करते हैं कहीं किसी बीज के
अंकुरित होने की
बेशक सिन्दूरी सन्ध्या को जाना है
क्योंकि उसे मेरे दिल की कसक
को देवताओं तक पहुँचाना है
जहाँ से वो माँग लाती है
नयी सुबह नयी आशा सम्भावना
नव निर्माण ऊर्ज़ा
कुछ पा लेने की प्रतीक्षा.
▪️▪️▪️
🌸 ये एक ख्वाब है
ये एक खवाब है
जो देखा था कभी
भीगी भीगी पलकों में गहराता सा
नींदों में करवट करवट बदलता सा
ये एक ख़्वाब है जो देखा था कभी
शीत में चाय सा महकता
गृष्म में ओठों पर शरबत सा
आँधी रात में कहीं से झांकता
ये एक ख़्वाब है जो देखा था कभी
बहारों में महकता
त्योहारों में चहकता
धुंए सा पसरता
फुहारों में झरता
सुनसान गलियों में टहलता सा
ये एक ख़्वाब है जो देखा था कभी
शरद सा सुखद
बसंत सा मदमस्त
कभी छेड़ता
कभी तड़पाता
बेगानों के बीच अपना सा
ये एक ख़्वाब है जो देखा था कभी
यादों की
संदूकची में बंद
क़ीमती सामान जैसा
गीत गाता लहराता
अलहदा पहचान लिये
अनजाना सा
ये एक ख़्वाब है जो देखा था कभी.
▪️▪️▪️
🌸 मधु छन्द गीति
आत्मीयता की डोर बन्धे
अनजाने ही बेसुध से
श्वासों की लिपि से रचते
मधुछंद गीति अनेक
हैं प्रीति के शब्द अनंत
आज हैं निह्शब्द मन्त्र
केवल एकान्त बोल रहा
हृदय गगन में डोल रहा
क्षितिज में रोशन ये लाली
लगे प्रिस्म सी झिलमिल प्यारी
अनहद सी धड़कनों में
ख़ामोशी के सुर सजाती
ये मौन करें हैं संवाद
अंतस् करें है अनुनाद
है तिलस्मी जादू कैसा
भरता लम्हों में अनुराग
मंत्र मुग्ध टकटकी बांधे
प्रीत की डोर थामे थामे
बहते मन्नतों की लहरों में
जैसे जलता दिया बहता दोने में.
•कवयित्री संपर्क –
•99813 01586
🌸🌸🌸🌸🌸