होली विशेष : ठाकुर दशरथ सिंह भुवाल
दोहा
हिरण्यकश्यप असुर ने, पाया ढेरों वरदान ।
देय विष्णु पूजा नही, करने का फरमान ।।
जलने बैठी आग में, भाव रखे आल्हाद ।
लेय होलिका गोद में, बाल रूप प्रहलाद ।।
बाल न बांका भक्त का, होली हो गई खाख ।
जली भभक के आग जो,बची रही बस राख ।।
नाचय होरी गीत में, बाजय मृदंग ताल ।
झूमें मस्ती में सभी, उड़े अबीर-गुलाल ।।
लगे रहे तन में भले, रंग चाहे हजार ।
खुशियाँ मगर बिखेरती, प्रेम रंग त्यौहार ।।
रोला
भिगे रंग से देह, शरम से डूबे गोरी ।
झुके नीचे पट नैन, रही सकुचाए थोरी ।।
चारों तरफ गुलाल, गई छा रंगीन घटा।
रही फुहार बिखेर,इन्द्र की अनमोल छटा।।
मल-मल जोर अबीर,लगाया जो गालों में ।
होय चेहरा सुर्ख, सफेद चमक बालों में ।।
घोलें मटकी रंग, भरें अपनी पिचकारी ।
छिपकर पीछे मार, जोर से भीगे सारी ।।
होली का हुड़दंग,कभी पड़ जाता भारी ।
होय दुख बड़ा बहुत,फिरे जो अपनी पारी ।।
•ठाकुर दशरथ सिंह भुवाल
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