कविता आसपास : नरेंद्र देवांगन ‘ देव ‘ {मिनाक्षी नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़}
▪️ परिवर्तन प्रकृति की प्यास
यूँ ही नहीं आते पतझड़ों के मौसम,
लेके आती है अपने संग,
कुटिल मुस्कानों वाली जलन की चुभन,
यूं ही नहीं आते पतझड़ों के मौसम ।
पिचक गयी सरिता के पेट की उठान,
अलसाई पगडंडी, ऊंघते मचान ,
फसलों की रुनझुन के ठिठक गये पांव,
यूँ ही नहीं दिखते पतझड़ों के छांव।
नदी, नाले ,सूखी ताले,
पनघट के पांवों पे छाले,
मृगतृष्णा की आस में सूखी पथिकों के अधरों के प्याले,
माथे पर सिकन की बिम्ब घटा रही है मान,
यूँ ही नहीं दिखते पतझड़ों की शान ।
दहक रही है ज्वालाएँ,
लता, वृक्ष, मालायें,
वसुंधरा की कोख पर
शुष्क पड़ी है धाराएँ ,
पशु, पक्षी, मानव,प्राणीवृंद खोते जान ,
यूँ ही नहीं देत पतझड़ मूँछों पे तान ।
हरियाली के क्षितिज पर
अवसादों के स्मृति चिन्ह,
गरम लू के थपेड़ों की दे जाती है सौगात,
यूँ ही नहीं होती पतझड़ों की बरसात ।
सूखी टहनियों को होती है
प्रतीक्षारत यात्रियों की सहानुभूति की आस,
और न जाने कितने अवसादों के स्मृति चिन्ह को पाती है अपने पास।
तो क्या,
ये स्मृति चिन्ह सदियों से एक जैसे हैं?
हरियाली भी तो हुई थी
हावी कभी पतझड़ पर,
जलती हुई मुसकानों पर
ढाये थे अपने कहर ।
मुझे आज उसी कहर की आस है,
क्योंकि परिवर्तन, प्रकृति की प्यास है।
परिवर्तन ,प्रकृति की प्यास है।।
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