विशेष : शादी की 32वीं सालगिरह पर पत्नी के नाम… डॉ. प्रेमकुमार पाण्डेय [केंद्रीय विद्यालय, वेंकटगिरी, आंध्रप्रदेश]
प्रिये
तुम मेरे कोट की
बाईं ओर लगी
अधखुली कली-सी
परिणय के बाद
आई थी
जीवन में
कल्पवृक्ष की तरह।
मेरे सुख-दुख की
संगी-साथी
मेरी इच्छाओं को ही
सब कुछ मान
अपनी कोमल भावनाओं को
सहेजकर
रख दिया था
बहोरा सेन्हुर के
सिन्होरा में
परछन के बाद ही।
मेरे परिवार का
सुख-दुख
हंसना-रोना
जीना- मरना
सबको अपना मानकर
भलीभाँति निभाते हुए
कंधा दिया था
भिगोने और हंसने के लिए
सभी को
क्योंकि
ऐसा मुझे अच्छा लगता था
और बढता था
मेरा मान उससे।
तुमने कर्तव्य को
इस हद तक निभाया कि
वह लोगों के अधिकार में
तब्दील हो गया.
लोग ऊंची आवाज में
गुण्डों की तरह
अपने हिस्से के
कर्तव्य पालन के लिए
अधिकार पूर्वक
कहने और चीखने लगे
मौन झील-सी तुम
अतरंगित सुनती रही।
इसमें
तुम्हारा कोई दोष नहीं
तुम नमक की डली-सी
पसीज कर
भरती रही स्वाद
मैं
दूसरों के हिस्से की
जिम्मेदारी
किसी न किसी बहाने
काट-काटकर
तुम्हारे पाले में
फेंकता रहा
तुम हरदम
कुछ नया रचती रही
मेरे लिए।
तुम
धीरे- धीरे
मौन होती जा रही हो
आज आंखों में नमी देख
लगता है कि-
तुम बहुत आगे निकल गई
और मैं
हार गया
बहुत बुरी तरह।
अब मैं
सिर्फ तुम्हारे लिए
समय को
घुमा देना चाहता हूं कि
तुम
स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ
मेरे साथ चलो
गोलगप्पे खाने और
अंत में मांगो
मीठे वाले
उसे खाकर बढा दो हाथ
दही वाले के लिए.
हम-तुम
बैठ पार्क की
हरी लान पर
एक-दूसरे को देखते
नि:शब्द हो
मौन भावनाओं का
आदान-प्रदान करें।
तुम वही
गाडी से उतरती
गुडिया बन जाओ
मेरे पदचिह्नों पर
पैर रखकर
ड्योढ़ी की ओर बढती
नववधू।
आओ
हम-तुम निकलते हैं
लम्बी यात्रा पर
जहाँ तुम होगी
मैं होऊंगा
तुम्हें जितनी बातें करनी हो
करना
मैं सुनूँगा चुपचाप
तुमको।
आईस्क्रीम खाकर
चाय की जिद करना
फिर बर्फ के साथ
गन्ने का रस पीकर
खूब छींकना
मैं तुम्हें मना नहीं करूँगा।
मैं जानता हूं
मैंने तुम्हारे साथ
अन्याय किया है
एकबार फिर तुम
सिन्होरा खोलकर
अपनी कोमल भावनाओं के साथ
जी उठो
क्योंकि
मैं प्रयाश्चित करना चाहता हूं
मैं तुम्हारी
गुलाबी-मुस्कान
देखना चाहता हूं।
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