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कुछ जमीन से कुछ हवा से : कुछ जाँ निसारों की याद में – विनोद साव
इस बार २९ जून को ईद पड़ी और २९ जुलाई को मोहर्रम पड़ा. इस बीच उम्र के एक लम्बे पड़ाव में उन मुसलमान साथियों की याद आई जिनके साथ ज़िन्दगी मजेदार और बिन्दास गुजरी. हमारी प्राइमरी स्कूल के सबसे अच्छे शिक्षक शेख चमरू शेख थे और हाई स्कूल के शिक्षक दादू मियां शेख थे. एक अस्सी पार करके अभी जन्नत नशीं हुए हैं और दूसरे को मरहूम हुए एक वक्त हो गया. प्राइमरी स्कूल वाले शेख सर को राजकपूर पसंद थे इसलिए वे गाते भी मुकेश के गाने थे ‘सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है.’ फुर्सत पाने पर टाटपट्टी में बैठे सुकुमार बच्चों की पीठ खोलकर उनके और अपने सिर झुकाकर एक साँस में जितनी धौल जमाना होता जमा दिया करते थे. इस अनोखे ढंग से ज़माने वाले वे अकेले शिक्षक रहे. पर वह नेहरू का सच्चा लोकतान्त्रिक जमाना था जिसमें हर शिक्षक छात्रों की धुनाई करके भी मुहब्बत और भाईचारे का पैगाम देता आ रहा था.
ये दोनों शेख सर आपस में भाई भले न रहे हों पर उनके बीच भाईचारा बना हुआ था. इनमें बड़े शेख यानि दादू मियां शेख सर का कोई जवाब नहीं था. उनके सांवले रंग वाले चेहरे को उनके घुंघराले बाल और उनकी मूंछ ने और भी चमकदार बना दिया था. उनके रहते हर साल कक्षा सजावट प्रतियोगिता में दादू मियां सर की कक्षा ही पहला स्थान पाती थी इसलिए उनकी कक्षा में भर्ती होने के लिए छात्र जी-जान लगा देते थे. छोटे शेख राजकपूर लगते थे तो बड़े शेख दिलीपकुमार की तरह गंभीर आर्टिस्ट लगते थे और सर की बोलने, चलने, बैडमिंटन खेलने की हर अदा छात्रों में छा जाती थी. गाँव में कुम्हार की बनाई कुछ खास गणेश की मूर्तियों को शेख सर खूबसूरत रंगों में रंगा करते थे. आजकल उनके हुनर की ऐसी बानगी उनके बेटे शेख युनुस बखूबी दिखा रहे हैं जो बड़े चित्रकार हो गए हैं. गाँव के बच्चों में कला, संस्कृति और खेलकूद का अभ्यास डालने में इन दोनों शेख सरों का बड़ा हाथ रहा.
ऐसे सांस्कृतिक पर्वों को मनाने में हमारे मोहल्ले की मुसलमान महिलाएं भी खूब आगे आती थीं. जब हर साल दिवाली में वे लोगों के घरों में रंगोली मांडने का काम शौक और ख़ुशी से करती थीं. हमारे घर आज भी करती हैं क्योंकि पिछली तीन पीढ़ियों से हमारे घरेलू काम काज वे ही करती आ रही हैं. हमें देखकर मोहल्ले में बहुतों ने भी उन्हें अपने घर लगा लिया है. शहर में ताजिया निकलता था तब मुझे गाँव में रहने वाले एक जीजाजी की याद आ जाती है जो ताजिया निकलने पर उनके साथ शेर नाच भी कर लिया करते थे. मजा तब भी आता था जब भारत पाकिस्तान क्रिकेट चलता था तब हमारे शहर के क्रिकेट प्रेमियों के बीच भी हिंदुस्तान पाकिस्तान बन जाता था. शहर वाले एक तरफ होते थे तो ताकियापारा के साथी दूसरी तरफ और जिन होटलों दुकानों में बड़े रेडियो से कमेंट्री आ रही होती थी वहां माहौल गरम हो उठता था. लेकिन इस गरमा गरमी की गंध चंद दिनों में कपूर की तरह उड़ जाया करती थी और यह गरमी रिश्तों के ताप में तब्दील हो जाती थी. जब शहर के सारे त्योहार होली दिवाली रक्षाबंधन हम मना रहे होते थे तब रंग गुलाल पिचकारी फटाके राखी चूड़ी हमीद और फातिमा बेच रहे होते थे.
पत्रकारों में आसिफ इक़बाल जैसे ईमानदार पत्रकार मिले. वे बड़े मृदुभाषी थे पर समझौता परस्त नहीं थे और अपने काम के प्रति बड़े समर्पित थे. जिस समय मैं अख़बारों में स्तम्भ लेखन सीख रहा था वे एक अख़बार में सम्पादकीय सीख रहे थे. हम दोनों की सीखने की ट्यूनिंग जबरदस्त बैठी और हम दोनों अपने अपने फन में उस्ताद होकर निकले. हम दोनों के साथ बड़ी दुखद घटना साथ साथ घटी और कोरोना काल में हमने अपने बच्चों को खोया.
साहित्य में व्यंग्यकार लतीफ़ घोंघी का रहमोकरम था. एक बार बोले “घोंघी’ नाम तो व्यंग्य लिखने के लिए है लेकिन जैसे आप ‘साव’ हैं वैसे ही हम अपने समाज के ‘साव’ हैं. छोटी कविताओं के बड़े कवि नासिर अहमद सिकंदर और जनवादी शायर मुमताज से कभी गले मिलते तो कभी लड़ते झगड़ते पच्चीस बरस हो गए जिसकी अब रजत जयंती मनानी पड़ेगी. हमारे विभाग में एक शमसूल होदा थे जो बड़े मेधावी कार्मिक थे लेकिन इतने भावुक और प्रेमी दिल थे कि दफ्तर के कामों में उनकी रूचि कभी नहीं बैठी. ‘हुनर है मियां कदरदान नहीं है’ का अंदाज था. मैं उनका रिपोर्टिंग ऑफिसर था. काम न कर पाने के वास्ते जब उन पर विभागीय कार्रवाई हुई और तब उनके खिलाफ कोर्ट में गवाही देने मुझे जाना पड़ा. आखिरकार प्रबंधन ने उन्हें मुअत्तिल कर दिया. तब जाते समय मेरी टेबल को बजाते हुए उन्होंने रफ़ी साहब का एक नगमा सुनाया “तेरी जुल्फों से जुदाई तो नहीं मांगी थी.. कैद मांगी थी रिहाई तो नहीं मांगी थी.” गाते समय शमसूल भाई के हसीन चेहरे पर मुस्कान थी पर ऑंखें आंसुओं से भर गई थीं.
एथलीट ताजुद्दीन जैसे दौड़ने में तेज थे वैसे बोलने में रहे. हम सब उन्हें ताज कहा करते थे. जिनसे जमी तो जमी नहीं तो छूट गलियां सबको समान भाव से देते थे. मैने कहा “ताज भाई चल न यार ईदी लेंगे.” वे मुझे दुकानों में ले गए. जहाँ कुछ अरबी मेवे मिल रहे थे. मैंने एक खास छुहारे को लेने की इच्छा ज़ाहिर की. तब वे बोले “देख के लेना इसकी तासीर तेज है.” फिर बोले कि “सेवैयाँ यहां अच्छी है…पर ख्याल रखना कि सुपेला की दुकानों से मत लेना वो स्साले उसमें रंग डाल देते हैं.” असली तासीर तो ताज के पास दिखती है. आज याद आ गए ऐसे कुछ यारबाश. जिनके बारे में हम कह उठते हैं कि “भाईजान! इनका ख्याल रखना ये हमारे खास हैं… पुराने लोगों में से हैं जाँ निसारों में से हैं.”
•चित्र में बाएं से : कवि नासिर अहमद सिंकदर, शायर मुमताज और व्यंग्यकार विनोद साव
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