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कविता आसपास : महेंद्र मद्धेशिया
{ 1}
मंजिल की ओर
खुली हुई आँख के सपनों को
साकार किया जाए
घर से निकले हैं, तो बस
घर पर इतना उपकार किया जाए।
माता-पिता की आशा को
बहन-भाई की अभिलाषा को
नव-नव आकार दिया जाए।
खुली हुई आँख के सपनों को
साकार किया जाए
घर से निकले हैं, तो बस
घर पर इतना उपकार किया जाए।
भ्रम को जीवन में लाकर
भ्रमित नहीं होना है
निराशा आती है
तो आपा नहीं खोना है
निराशा के क्षण में
लक्ष्य एक किया जाए।
खुली हुई आँख के सपनों को
साकार किया जाए
घर से निकले हैं, तो बस
घर पर इतना उपकार किया जाए।
जीत रहे सदा प्रतिमान बनकर
हार रहे मेहमान बनकर
प्रतिपल मंज़िल की ओर
इस-क़दर बढ़ा जाए।
खुली हुई आँख के सपनों को
साकार किया जाए
घर से निकले हैं, तो बस
घर पर इतना उपकार किया जाए।
{ 2 }
रामराज्य और आधुनिकता शासन – व्यवस्था
आजकल चौराहों पर
रामराज्य की चर्चा करते हुए
दो-चार लोगों का मिलना
स्वाभाविक है।
जनसभा की बैठक में
सत्ताधारी पूछता है कि
हमारी शासन-व्यवस्था
कैसी लग रही है आपको!
इन्हीं दो-चार लोगों के साथ
अनगिनत आवाज़ें
एक साथ निकलती है—
रामराज्य की तरह।
मैं पूछता हूँ कि
क्या रामराज्य में मनुष्य
भूखा, नंगा और अनिकेत था?
जैसे कई प्रश्न,
जिसका उत्तर सिर्फ़
नहीं होगा है।
{ 3 }
नग्नता
हमने
वस्त्र की अर्द्ध-नग्नता पर
विचार किया,
किन्तु
बलात्कार, अपहरण, हत्या आदि
हिंसा के क्षेत्र में
विचारों की नग्नता का क्या ?
जो दिन-प्रतिदिन
मानवता को
चुनौती दे रही है।
{ 4 }
जनता और नेता
जनता,
ताश के पत्ते में पड़ा
गुलाम है।
जिसका मतदान के अतिरिक्त
कोई कार्य नहीं हैं,
जब तक कि
ताश के
सारे पत्ते मौज़ूद हों।
नेता,
जुआरी के तरह
दिखने वाला
खिलाड़ी है,
जो चुनाव में
गुलाम को बादशाह बनाकर
खेलता है
और जीत जाता है।
{ 5 }
पीड़ा
पीड़ा; दिखती नहीं है,
किन्तु
अनुभव की जा सकती है—
स्वयं को
पीड़ित के स्थान पर रखकर ।
[ •महेंद्र मद्धेशिया, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु, सलहन्तपुर post- ककरहवां, जनपद सिद्ध।र्थनगर, उत्तरप्रदेश के छात्र हैं. •’ छत्तीसगढ़ आसपास ‘ में इनकी कविताएँ पूर्व में भी प्रकाशित हो चुकी है. •संपर्क – 72660 21791 ]
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