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समीक्षा : ‘ लोक की नब्ज पर धड़कती कविताएं – उर्मिला शुक्ल
जब दुःख की बात आती है , तो जेहन में स्त्रियों का चेहरा ही उभरता है | यह उभरना गैरवाजिब भी नहीं | सो ‘ पोखर भर दुःख ‘ शीर्षक पढ़ते ही लगता है इस संग्रह की कविताएँ स्त्रियों की पीड़ा का दुखगान मात्र होगी ;मगर नहीं | इस संग्रह की कविताएँ दुख को फलाँग कर बाजारवाद और उससे से उपजे अवसाद तक पहुँच कर उसे देती है –
“ कमलनाल के ठूंठों से बिंधी , बची रही पोखर की छाती,रोपी गई सुंदरता अस्थाई थी, जो बिक गई बाज़ार, अब कौन आएगा इस ठाँव , ठूंठ की बस्ती में भला कौन ठहरता है , गाय गोरू आते हैं पूछते हैं हाल , दादुर मछली और घोंघे बतियाते हैं मन भर, पांत में खड़े बगुले किनारे से , सुनते हैं उसके मन का अनकहा , नया फेमान आया है कि, यहाँ अब बनेगा बारात घर |”
यह मृदुला सिंह का पहला कविता संग्रह है। ये कविताएँ समाज की प्रति छाया हैं | इस संग्रह में संकलित कविताओं में स्त्री का दुख ही नहीं ,उसके सपने भी हैं | इसलिए इसमें आशा और उम्मीद के वह पंख भी हैं ,जो उड़ान भरने को सन्नद्ध हैं | ये सपने पूरी स्त्री जाति के सपने हैं | सो इन सपनों में एक ओर हैं गुलाबी रिबन वाली लडकियों की चमकीली आँखें हैं ,जो गुलाबी सपने देख रही हैं – “ नीली स्कर्ट और गुलाबी रिबन बाँधे, स्कूल जाती हुई ये लडकियाँ , जगती आँखों के स्वप्न में , उतार लाती हैं आसमान, अपनी हथेलियों पर | ”
,तो दूसरी ओर घूँघट के भीतर से आकाश निहारती वो आँखें भी है जिनके हिस्से में कभी आकाशआया ही नहीं – “लाक डाउन का असर नहीं होता , उन तमाम औरतों पर ,जिन्होंने कभी नहीं लाँघी घर की चौहद्दी
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कुछ औरतें कभी कह न सकीं , उनका भी घुटता रहा है जी , यूँ बरस – बरस की अंतहीन घरबंदी में ”
ये औरतें घर की चारदीवारी में आजीवन कैद रहीं ;मगर उसके बाहर निकने की कोशिश नहीं | घर चारदीवारी को ही अपनी नियति मान गुजारती रहीं अपना जीवन ;मगर उनकी आगे वाली पीढ़ी को ये चारदीवारी रोक नहीं पायी और वो निकल पड़ी अपना आकाश तलाशने –
“ माँ ! तुम्हारी कहानी सुनते बड़ी हुई हूँ ,पैसा – पैसा जोड़ा है प्रतिरोध, समय के गुल्लक में , फोडूंगी इक दिन जरूर , बहुरुपिये समाज के माथे पर ,और बाँट दूँगी तमाम बेटियों को ,बनेंगे उनके हाथ और मजबूत |”
मृदुला सिंह की कविताओं में संवेदना है ,सामजिक सरोकार है और दृष्टि संपन्न वैचारिकता | यहाँ स्त्री का सुख-दुख अपनी गझिन संवेदना के साथ उपस्थित है ;मगर आज के दौर का स्त्री विमर्श नहीं है यहाँ । मृदुला सिंह स्त्री की देह पर न ठहर कर उसके मन की पीड़ा को थहाती हैं | इन कविताओं की स्त्री लोक के भीतर और लोक के बाहर,दोनो जगह उपस्थित है- “ इतनी दूर से पैदल आती हो , देखो सलवार की किनारियां कितनी मैली हैं , लेकिन मुझे अच्छा लगा था, जब तुमने उस दिन कहा था, कि तुम रोपा लगा रही थी, इसलिए नहीं ले सकी थी वक्त पर दाखिला, छमाही में जब टाॅप किया था तुमने, तो जी चाहा था गले से लगा लूं तुमको।’
ये कविताएं आदिवासी जीवन,समाज और उनके लोकरंग के विविध दृश्य प्रस्तुत करती हैं | ये कविताएं आदिवासी समाज पर लिखी पर्यटकीय कौशल नतीजा नहीं हैं ,बल्कि उनके बीच रहकर उनमें ,पैठकर लिखी गई हैं। कवयित्री ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके सरगुजा के जन जीवन को बहुत नजदीक से देखा है | उसे भीतर तक महसूसा है इसलिए ये कविताएं आदिवासी समाज के सच से उपजी हैं। यूँ तो इन कविताओं का मूल स्वर स्त्री है;मगर इनमें जल,जंगल,जमीन की चिंता भी है। इस संग्रह की कविताएँ प्रकृति, समाज और मानव के सरोकारों की भी कविता हैं | इस संदर्भ में इन पंक्तियों को र खा जा सकता है हैं- “ इन दिनों सरगुजिहा माटी में, खिलते हैं सुदर आसमानी फूल, जिनकी उन्मुक्त हंसी, बिखर गई है ,यहां की कच्ची-पक्की सड़कों पर।“
मृदुला सिंह की आदिवासी लड़कियाँ आज की ,इस इक्कीसवीं सदी की लड़कियाँ हैं | वे जानती हैं उन्हें अपने हालात कैसे बदलने हैं-“ स्कूल जाती हुई ये लड़कियाँ ,जगती आँखों के स्वप्न में उतार लाती हैं आसमान ,अपनी हथेलियों पर |”
गुलाबी रंग स्त्री का रंग माना जाता है लेखिका को भी यह रंग प्रिय है | सो संग्रह में गुलाबी रंग कई बार आया है | एक कविता का शीर्षक है ‘ गुलाबी के हिस्से की भूख वाली फाइल, वह बोलती कम है मुस्कराती ज्यादा है,यह जो ज्यादा है, वही शोर है उसका,कहां है विकास?इधर आने से रोका है किसने,पुरानी धोती की तह में,संजो के रखा है उसने गुलाबी कार्ड ”
इस संग्रह की कविताओं में बिंबों का सृजन हुआ है। ये बिंब कविता में नये अर्थ भरते हैं | “ आओ हम रख दें,उनकी नन्हीं हथेलियों पर,थोड़ी सी धूप सुबह की,चिड़ियों का संगीत रख दें,मुस्कराते होंठों पर,और जुबां पर रख दें
कुएं के पानी का स्वाद। पाठक जब इन कविताओं को पढ़ेंगे , तो महसूसंगे कि यहाँ और भी बहुत से बिंब हैं जो अपनी समग्रता में उपस्थित है | मानवता की हिमायत करती ये कविताएँ जिन्दगी की बहुरंगी छवियों को उकेरती हैं| ,इनमें सुख,दुख,राग-विराग, संघर्ष,जिजीविषा,विद्रूप और विडंबनाएं हैं। बावजूद इसके ये कविताएं उम्मीद की कविताएं हैं
….भाषा की बात करें तो भाषा परिवेश के संग चहल कदमी करती नजर आती है |”हथेलियों पर धूप” , “ धरती की हरी गुलाबी कामनाओं के साथ ” जैसे खूबसूरत बंद हैं जो कविता को और भाव प्रवण बना देते हैं | इनमें लोक और प्रकृति से लिए गये अनेक बिब भी हैं कविता को और सजीव भी बनाते हैं ;मगर इनका अत्यधिक हिंगलिश हो जाना कहीं – कहीं खटकता भी है जैसे – “ ग्राउंड स्टाफ से सीखती हैं ,जीवन का पाठ ” यहाँ ग्राउंड स्टाफ की जगह जमीन से जुड़े या जमीनी लोगों से …..होता तो कविता और अच्छी बन पड़ती | इसी तरह शीर्षक कविता पोखर भर दुःख की यह पंक्ति – पीले वल्बों , विनर जैसे शब्दों की जगह हिंदी के शब्द ज्यादा प्रभावी होते | बावजूद इसके संग्रह की कविताएँ अपने को पढ़वा लेने का माद्दा रखती हैं | सो इस संग्रह के लिए मृदुला सिंह को बधाई | वे यूँ ही रचती रहें |
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संग्रह –
•पोखर भर दुख
•तरी हरि ना ना
– डॉ. मृदुला सिंह
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समीक्षक –
•उर्मिला शुक्ल
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•संपर्क –
•98932 94238
•75819 68951
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