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संस्मरणात्मक लघु कथा : प्रेरक दृश्य – तारक नाथ चौधुरी [चरोदा, भिलाई, जिला – दुर्ग, छत्तीसगढ़]
दिसंबर माह के लगते ही पर्यटन-स्थलों की रौनक चौगुनी हो जाती है।बागों में रंग-बिरंगे फूल खिलें ना खिलें,विविध परिधानों में किलकारियाँ भरते बच्चों की टोलियाँ -फुलवारियों की पर्याय बन जाती हैं।विद्यालयों,संस्थानों,सोसाइटियों,मुहल्लों में पिकनिक जाने की योजनायें बनने लगती हैं।स्थल का चुनाव और परिवहन सुविधा को लेकर लंबी बहसें जब किसी निर्णय पर आकर रुकती हैं तो नाश्ते और भोजन पर मत विभिन्नता एक नये बहस को जन्म देती है।अंत में यथायोग्य प्रभारियों का निर्धारण होता है।ऐसा हर उत्साही दलों के साथ पिकनिक जाने की योजना बनाते समय होता है केवल एक अपवाद को छोड़कर और वो है हमारा विद्यालय -जहाँ दादा के नाम से प्रतिष्ठित हिंदी के व्याख्याता ही रुपरेखा तैयार करते हैं और उस पर सबकी मुहर लगती है।
इस बार उन्होंने जतमई-घटारानी जाने का प्रस्ताव ज्योंहि सबके सम्मुख रखा-हर्षध्वनि और करतल का शोर ही सहमति के हस्ताक्षर हो गये थे।तिथि तय हुई, अपनी-अपनी जिम्मेवारियाँ सभी ने सहज स्वीकारीं और समझ लीं।नियत तिथि पर हम,सुनिश्चित समय में माता का जयकारा लगाते हुए रवाना हुए।
अंत्याक्षरी,चुटकुले,रोचक बातें,मूकाभिनय करते कब माता रानी की मनोरम पावन भूमि पर पहुँच गये पता ही नहीं चला और सभी के खिले चेहरों ने ये गवाही भी दे दी कि समवेत आनंद से कभी थकान नहीं आती।
हमारा रसोइया और उसके सहयोगी बडे़ सवेरे ही आ गये थे।अतः भोजन को लेकर साधारणतः होने वाली असुविधाओं से हमें दो- चार नहीं होना पडा़।कई दलों के लोग अब भी उपयुक्त और पर्याप्त जगह की तलाश में परेशान दिख रहे थे।
दोपहर जब हम भोजन से निवृत्त हो रहे थे तभी मेरी दृष्टि किसी काॅलेज के दर्जन भर लड़के-लड़कियों पर पडी़ जो अपना-अपना लंच बाॅक्स हाथों में लिए बेचैन लग रहे थे,क्योंकि आसपास की सारी जगहें पर्यटकों से अटी पडी़ थीं और उन्हें बैठकर खाने का ठौर नहीं मिल रहा था।तभी आदरणीय दादा को मैंने उनकी तरफ जाते देखा तो मैं भी साथ हो लिया।दादा अपनी चिरपरिचित मुस्कान के साथ उनसे मुखा़तिब होते हुए बोले-“हैलो एव्हरी वन!डोन्ट वरी,हमारे बच्चों ने खा लिया है,अब आप लोग आराम से इस कार्पेट पर बैठकर लंच का आनंद लें।”दादा की सहृदयता अनायास ही अपरिचितों को आत्मीय बना लेती है-आज फिर प्रमाणित हो गया।दादा के आग्रह को पुरस्कार की तरह स्वीकारते हुए सभी ने एक स्वर में उन्हें थैंक यू कहा और हरी कार्पेट पर आकर बैठ गये।अपने-अपने लंच बाॅक्स के व्यंजनों को साझा करते हुए उन सभी ने खाना शुरु किया और हमारे विद्यार्थियों ने हर एक आगे पानी का गिलास रखकर अपना कर्तव्य निभाया।स्थिति तब विरक्तिकर होने लगी जब वे एक-दूसरे पर खाली-गिलासों को,अवशिष्ट भोजन को और डिस्पोज़ल थालियों को फेंकने लगे और सारे कार्पेट में जूठन बिखरने लगा।उनका अशालीन व्यवहार देख दादा का क्रोध उबल पडा़ और अपने विद्यार्थियों से उन उद्दंडों की घेराबंदी करने का इशारा किया।फिर क्या था-जैसे ही वे उठकर जाने को हुए दादा की रोबदार आवाज़ ने उन्हें रोक दिया।वे बोले-“आप लोगों को शर्म नहीं आती,ज़रा सी भी कर्टसी नहीं है आप लोगों में।”जिन लोगों ने आपकी मदद की,आपका ध्यान रखा,उन्हें धन्यवाद कहने की बजाय उनके साफ-सुथरे कार्पेट पर अपने गंदे आचरण की छाप छोड़ दी।” “अब तो ये सारा कार्पेट आप लोग ही साफ करेंगे,तभी यहाँ से जा सकेंगे,देख रहे हैं न ये स्टुडेंट बेरियर,आसान नहीं होगा,इसे पार करना।”
दादा की गर्जना सुन वे एक साथ बोल पडे़-“साँरी सर! एक्स्ट्रीमली साॅरी!हम अभी कार्पेट साफ कर देते हैं।”
उन लोगों ने जब कार्पेट साफ करना शुरु किया,तब हमारे दल के सभी मंद-मंद मुस्कुराते हुए,आँखों के इशारे से और थम्स अप करते हुए दादा को दाद देने लगे।
दादा ने काॅलेज के उन विद्यार्थियों को अपने हाथों से काॅफी पिलाई और सदाचरण के कुछ टिप्स भी दिये।काॅफी पीकर वे दादा को प्रणाम किए ,हाथ जोड़कर पुनः क्षमा याचना की और आभार व्यक्त किया।
आज भी वो प्रेरक दृश्य जब स्मृति पटल पर उभरता है तो दादा के प्रति हृदय श्रद्धा से भर जाता है और अंतर्मन उन्हें प्रणाम करने को आकुल हो जाता है।
•लेखक संपर्क –
•83494 08210
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