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विशेष : पद्म श्री मुकुटधर पांडेय [ जन्म 30 सितम्बर 1895 : निधन 6 नवम्बर 1989 ]
सांस्कृतिक विरासत और धरोहर को सहेजने की जरूरत –
देश जब स्वतंत्रता आंदोलन को गति दे रहा था उस समय बहुत सी विभूतियां साहित्य ,कला,संगीत,संस्कृति,इतिहास के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन को ऊर्जा ,उत्साह, संबलऔर शक्ति देने के साथ साथ अपनी संस्कृति, प्रकृति,मानवता और इतिहास को बचाने का काम भी कर रहे थे। ऐसी ही विभूतियों में छत्तीसगढ के छोटे से ग्राम बालपुर,चंद्रपुर में जन्मे छायावाद के प्रवर्तक पद्म श्री मुकुटधर पांडे का नाम प्रथम पंक्तियों में शामिल है।
छत्तीसगढ़ में महान विभूतियों ,कला ,संगीत, साहित्य,संस्कृति ,इतिहास,पुरातत्व इत्यादि की समृद्ध विरासत है । पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद आर्थिक, सामाजिक,राजनैतिक , सांस्कृतिक विरासत और धरोहर के संरक्षण एवं उसकी समृद्धि के सपनों के साकार होने की उम्मीद जगी थी।
लेकिन यह दुखद है कि केवल राजनैतिक महत्वाकांक्षा हावी हो गई और समृद्ध छत्तीसगढ़ राजनैतिक दांवपेंच में उलझ कर रहा गया। छत्तीसगढ़ राज्य बने लगभग 23 वर्ष से ज्यादा हो गए हैं और हमने कोयला, लोहा, स्टील,और बड़े बड़े उद्योगों को तो स्थापित कर लिया, परन्तु हमारी कृषि , संस्कृति,कला – सभ्यता,ऐतिहासिक विरासत , इतिहास,प्रकृति ,लोकसंस्कृति और साहित्य को केवल प्रचार प्रसार का माध्यम बनाकर हासिए पर छोड़ दिया गया है।
एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक उत्सव चक्रधर समारोह का मुख्य उद्देश्य, उसकी आत्मा,गरिमा और मर्यादा भी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की शिकार हो गई। शासन और प्रशासन समारोह को सांस्कृतिक संस्थाओं से पृथक कर एक परिवार की चौखट पर पटक कर कैद कर दिया है। राजनैतिक दांव पेंच को छोड़कर सबकुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।*
समाज शास्त्रियों एवं संस्कृति कर्मियों की यह स्पष्ट मान्यता है कि -“किसी भी समाज,राज्य ,और राष्ट्र की पहचान उसकी संस्कृति और सभ्यता से होती है। उसे संरक्षित कर समृद्ध और उन्नत शील बनाना नागरिक व सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होती है।सांस्कृतिक विरासत और धरोहर को सहेजने की जरूरत।इसीलिए समाजशास्त्रियों की यह स्पष्ट है कि – यदि किसी राष्ट्र को समाप्त करना है तो उसकी संस्कृति , कला, साहित्य,और सभ्यता को समाप्त कर दो।
हमें उम्मीद है सरकार सांस्कृतिक विरासत और धरोहर को सहेजने का प्रयत्न करेगी साथ ही साथ राज्य की तस्वीर और तकदीर बदलेगी। सरकार को इस दिशा में ठोस और सार्थक कदम उठाने की जरूरत है।
जीवनवृत –
जन्म 30 सितम्बर 1895 – {छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले के एक छोटे से गाँव बालपुर में।}निधन 06 नवम्बर 1989 निवास बैकुंठपुर,रायगढ़ छत्तीसगढ़ में। प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई । पिता पं.चिंतामणी पाण्डेय संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। पिता चिंतामणी और पितामह सालिगराम पांडेय जहाँ साहित्यिक अभिरूचि वाले थे वहीं माता देवहुति देवी, धर्म और ममता की प्रतिमूर्ति थीं।भाईयों में पुरूषोत्तम प्रसाद, पद्मलोचन,लोचन प्रसाद , चंद्रशेखर, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा बहनों में चंदनकुमारी, यज्ञकुमारी, सूर्यकुमारी और आनंद कुमारी थीं।भाईयों में पं० लोचन प्रसाद पाण्डेय हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार एवं पुरातत्व विद थे ।सुसंस्कृत, धार्मिक और परम्परावादी घर में मुकुटधर पांडेय सबसे छोटे थे।
साहित्यिक अवदान –
सन् 1909 में 14 वर्ष की उम्र में उनकी पहली कविता आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘स्वदेश बांधव’ में प्रकाशित हुई एवं सन् 1919 में उनका पहला कविता संग्रह ‘पूजा के फूल’ प्रकाशित हुआ। देश की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में लगातार लिखते हुए मुकुटधर पाण्डेय ने हिन्दी पद्य के साथ-साथ हिन्दी गद्य के विकास में भी अपना अहम योग दिया। पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित अनेक लेखों व कविताओं के साथ ही उनकी पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं – ‘पूजाफूल (1916), शैलबाला, लच्छमा (अनूदित उपन्यास, 1917), परिश्रम (निबंध, 1917), हृदयदान (1918), मामा (1918), छायावाद और अन्य निबंध (1983), स्मृतिपुंज (1983), विश्वबोध (1984), छायावाद और श्रेष्ठ निबंध (1984), मेघदूत (छत्तीसगढ़ी अनुवाद,1984) आदि प्रमुख हैं।
सम्मान अलंकरण –
हिन्दी के विकास में योगदान के लिये इन्हें विभिन्न अलंकरण एवं सम्मान प्रदान किये गये। भारत सरकार द्वारा इन्हें सन् 1976 में `पद्म श्री’ राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया गया। पं० रविशंकर विश्वविद्यालय द्वारा भी इन्हें मानद डी लिट की उपाधि प्रदान की गई। छाया वाद के प्रवर्तक के विभूषण से विभूषित किया जाने लगा।ऐतिहासिक गणेश मेला चक्रधर समारोह के पुनरुद्धार के लिए सन् 1984 में गठित श्री चक्रधर ललित कला केंद्र के संस्थापक अध्यक्ष
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समीक्षा –
डॉ. बलदेव साव ने छायावाद को लेकर जब पहली बार राष्ट्रीय प्रतिष्ठित साहित्यक पत्रिकाओं और राष्ट्रीय कवियों के मध्य विमर्श में लाया। उनके काव्य संग्रह प्रकाशित करवाए। छायावादी युग के स्थापित प्रमुख कवियों
जयशंकर प्रसाद (1889-1936),सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ (1897-1962),सुमित्रानंदन पंत (1900-1977)
महादेवी वर्मा (1907-1988),जयशंकर प्रसाद
महादेवी वर्मा आदि नाम प्रमुख थे।पद्मश्री मुकुटधर पांडे ने बहुत सफगोई से एकबार कहा था – मैने अपने भावों को शब्द दिया है।यह छायावाद है या कौन सा वाद है यह विद्वानों , विशेषज्ञों और साहित्य पंडितो का विषय है।”
पद्मश्री मुकुटधर पांडे की सहजता और सरलता पर राष्ट्रीय साहित्य जगत काफी प्रभावित था। उनकी रचनाओं की प्रतिध्वनि बहुत ही मार्मिक थी। भारत सरकार ने पद्मश्री के अलंकरण से अलंकृत किया।
तीन प्रसिद्ध कविता-
(1)
कुररी के प्रति / मुकुटधर पांडेय*
बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात
पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात
निद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वच्छंद
अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते हैं सानन्द
इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तित गात
पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात ?
देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल ?
क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीं था भूल ?
क्या उसका सौन्दर्य-सुरा से उठा हृदय तव ऊब ?
या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब ?
या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल ?
किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल ?
अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत बिलाप ?
ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप ?
किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग
जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग ?
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ?
बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप ?
यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद ?
या तुझको निज-जन्मभूमि की सता रही है याद ?
विमल व्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप
इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप
यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद ?
नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद ?
कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास
विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास
वहाँ कौन नक्षत्र–वृन्द करता आलोक प्रदान ?
गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान ?
कैसा स्निग्ध समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास
किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास ?
(सरस्वती, जुलाई, 1920)
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ग्राम्य जीवन —
छोटे-छोटे भवन स्वच्छ अति दृष्टि मनोहर आते हैं
रत्न जटित प्रासादों से भी बढ़कर शोभा पाते हैं
बट-पीपल की शीतल छाया फैली कैसी है चहुँ ओर
द्विजगण सुन्दर गान सुनाते नृत्य कहीं दिखलाते मोर ।
शान्ति पूर्ण लघु ग्राम बड़ा ही सुखमय होता है भाई
देखो नगरों से भी बढ़कर इनकी शोभा अधिकाई
कपट द्वेष छलहीन यहाँ के रहने वाले चतुर किसान
दिवस बिताते हैं प्रफुलित चित, करते अतिथि द्विजों का मान।
आस-पास में है फुलवारी कहीं-कहीं पर बाग अनूप
केले नारंगी के तरुगण दिखालते हैं सुन्दर रूप
नूतन मीठे फल बागों से नित खाने को मिलते हैं ।
देने को फुलेस–सा सौरभ पुष्प यहाँ नित खिलते हैं।
पास जलाशय के खेतों में ईख खड़ी लहराती है
हरी भरी यह फसल धान की कृषकों के मन भाती है
खेतों में आते ये देखो हिरणों के बच्चे चुप-चाप
यहाँ नहीं हैं छली शिकारी धरते सुख से पदचाप
कभी-कभी कृषकों के बालक उन्हें पकड़ने जाते हैं
दौड़-दौड़ के थक जाते वे कहाँ पकड़ में आते हैं ।
बहता एक सुनिर्मल झरना कल-कल शब्द सुनाता है
मानों कृषकों को उन्नति के लिए मार्ग बतलाता है
गोधन चरते कैसे सुन्दर गल घंटी बजती सुख मूल
चरवाहे फिरते हैं सुख से देखो ये तटनी के फूल
ग्राम्य जनों को लभ्य सदा है सब प्रकार सुख शांति अपार
झंझट हीन बिताते जीवन करते दान धर्म सुखसार
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महानदी
*कर रहे महानदी! इस भाँति करुण-क्रन्दन क्यों तेरे प्राण?
*देख तब कातरता यह आज, दया होती है मुझे महान।
*विगत-वैभव की अपने आज, हुई क्या तुझे अचानक याद?
*दीनता पर या अपनी तुझे, हो रहा है आन्तरिक विषाद?
सोचकर या प्रभुत्व-मद-जात, कुटिलता-मय निज कार्य-कलाप।
धर्म-भय से कम्पित-हृदय, कर रही है क्यों परिताप?
न कहती तू अपना कुछ हाल, ठहरती नहीं जरा तू आज।
धीवरों के बन्धन से तुझे, छूटने की है अथवा लाज?
हजारों लाखों कीट पतंग, और गो-महिष आदि पशु-भीर
उदर में तेरे हुए विलीन, हुई पर तुझको जरा न पीर।
दर्प से फैलाकर निज अंग, तीर के शष्यों का कर नाश,
लिया तूने बल-पूर्वक छीन, दीन-कृषकों के मुख का आस।
बहु काल से निश्चल थे खड़े, करारे पर तेरे जो झाड़।
बहा! ले गई सदा के लिए, हाय! तू जड़ से उन्हें उखाड़।
कहाँ ऊब तेरा यह औद्धत्य, आज क्यों फूटा तेरा भाग?
जल रही तेरे उर में देख, निरन्तर ‘धू-धू’ कर के आग।
पथिक दल को तूने था कभी, व्यर्थ रक्खा दिन-दिन भर रोक
वही तेरी छाती को आज, कुचलता चलता है हा! शोक!!
उग्र-लहरों में अपनी डाल, उलट दी तूने जिसकी नॉव;
उसी धीवर दम्पति ने तुझे, कैद में डाला पाकर दाँव।
बहा देती थी कोसों कभी मत्त नागों को भी तू जीत,
रोक सकती है तुझको आज, क्षुद्र-तम यह बालू की भीत।
बता हे महानदी विख्यात कहाँ तब महानता है आज?
कहाँ वह तेरा गर्जन घोर कहाँ जल मय विस्तृत-साम्राज्य?
प्राप्त करके कुछ पाशव-शक्ति, न होता तुझको जो अभिमान।
न होती तो शायद इस भाँति, दुर्दशा तेरी आज महान।
विनय है तुझसे चित्रोत्पले, भरे जो फिर तेरे कूल,
मोद में तो यह कातर-रुदन, कभी मत जाना अपना भूल।
{ हितकारिणी जुलाई 1989 }
– प्रस्तुति : गणेश कछवाहा
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