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पुस्तक समीक्षा : ‘ तुम्हीं से ज़िया है ‘ : गज़लकार – सुभाष पाठक ‘ ज़िया ‘ : समीक्षक – महेश ‘ अश्क ‘ : बेहतर की उम्मीद जगाता शायर सुभाष पाठक ‘ ज़िया ‘ – महेश ‘अश्क’
‘ तुम्हीं से ज़िया है ‘ ये शीर्षक है सुभाष पाठक ‘ज़िया‘ साहब के दूसरे ग़ज़ल संग्रह का, एक सौ छ: ग़ज़लों और कुछ चुनिंदा अश्आर को समेटे यह संग्रह बीते बरस प्रकाशित हुआ,और फ़िलहाल सर्व-सुलभ है।
‘ज़िया’ साहब का नाम ग़ज़ल के हवाले से अपरिचित नहीं है, ग़ज़ल लिखनेवाले हों या गानेवाले, मुक्त कण्ठ से उनकी शायरी की सराहना करते है,यही नहीं, ग़ज़ल में उनकी कोशिशों के एवज़ उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार भी प्राप्त हैं,जो शायद यूँ ही नहीं है।
संग्रह की ग़ज़लें छंद और लम्बी-
लम्बी रदीफ़ों के निर्वाह के मामले में अमूमन निराश नहीं करतीं। कुल मिलाकर उल्लेखनीय ये है कि, संग्रह की ग़ज़लें, पढ़नेवाले को, पढ़ने के लिए उकसाती हैं।इसका एक कारण ज़िया साहेब के लहजे का ताज़ापन भी है।
उनके ये अश्आर देखे जा सकते हैं-
उसको महसूस करता है ये दिल
फूल तितली शजर हवाओं में..
लिखा था जिस पे मेरा नाम चाक से तुमने
जो देखता हूँ वो दीवार दिल धड़कता है ..
सूरज जब दिन की बातों से ऊब गया
परबत से उतरा दरिया में डूब गया..
ज़िंदगी के लिए ये काफ़ी है
तुम हमारे हो, हम तुम्हारे हैं..
दिल पे क्या-क्या सितम नहीं गुज़रे
शुक्र कीजे कि हम नहीं गुज़रे..
वो लम्हे ख़ामुशी मंसूब हैं जिनसे
वहीं दिल में बहुत आवाज़ करते हैं।
ये शेर संग्रह के शुरू के पन्नों से सरसरी तौर पर हैं,लेकिन इनकी विशेषता है कि पढ़नेवाले में ये धंसते और घुलते हैं।इनमें मैटर है, इनके निर्वाह में बरजस्तगी है और ये हमारी ज़िंदगी से जुड़ी सच्चाई बयान करते हैं।
पाठक जी की शायरी का बुनियादी मौज़ू फ़िलहाल इश्क़ या प्रेम है, और इसे अभी और परिपक्व होकर सामने आना है, ऊपर उल्लिखित शेर इस संदर्भ में देखे जा सकते हैं।
ध्यान देने की बात है कि ग़ज़ल के दायरे में इश्क़िया मौज़ू बहु-आयामी है और तरहदार भी, नतीतन प्रेम-विषयक कविता या शेर भी, स्थूलत: प्रेम-विषयक शेर या कविता नहीं है, उसमें इतनी त्वरा और ऊर्जा होनी ही चाहिए कि वो हमारी ज़िंदगी से बासीपन छाँट कर हमें, ऊर्जस्वित और उदात्त-चित्त बनने की तरफ़ बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर सके। कहना नहीं होगा कि ऊपर उल्लिखित शेर इसी दिशा में हैं ।
यहाँ अगर ग़ज़ल के शेरों की अच्छाई की बात करें तो स्पष्ट है कि ग़ज़ल के शेर का टेक्निकली करेक्ट होना ही महत्वपूर्ण नहीं है, ग़ज़ल के शेर को अर्थ-समृद्ध होना चाहिए, और शेर का अर्थ-सघन या समृद्ध होना तब संभव है , जब वो जिस भाषा में सामने आ रहा है, वो भाषा,,, सामान्य सतह की भाषा से,,,, हटकर इस योग्य हो, कि उसके माध्यम से साहित्यिक-युक्तियों को सक्रिय करते हुए, रचनात्मक-संभावनाओं का, यथासंभव भरपूर संदोहन संभव हो सके।
अफ़सोसनाक है कि हिंदी में ग़ज़ल से जुड़ी ऐसी बातों को विमर्श के दायरे में लाने के बारे में फ़िलहाल कोई चिंता दिखाई नहीं देती, जो बतौर विधा ग़ज़ल को, रचना और समझ दोनों ही स्तरों पर समृद्ध करनेवाली और नये रचनाकारों को रास्ता दिखानेवाली हैं।
हम जानते हैं कि, किसी भी रचना-विधा की समृद्धि में सहायक विमर्श का वातावरण बनाना और उसे निरंतर अग्रसर रखना, संबंधित विधा की आलोचना का दायित्व है, लेकिन हिंदी में ग़ज़ल की बाबत, इस दृष्टि से जो परिदृश्य है, सबके सामने है। ऐसे में, ज़रूरी है कि हिंदी में ग़ज़ल के वो रचनाकार, जो अभी श्रम कर पाने की स्थिति में हैं, ग़ज़ल लिखने के साथ-साथ ग़ज़ल के आलोचना-पक्ष की भी तैयारी में जुटें।
यहाँ ध्यान देने योग्य य भी है कि , किसी भी काव्य-विधा के लिए कथ्य की मौजूदगी शर्त की तरह है, लेकिन कथ्य अपनेआप में कविता या शेर नहीं है, कथ्य को कविता या शेर बनाना होता है। कथ्य चूँकि जीवन-जगत से आते हैं, इसलिए सहज अपेक्षा होती है कि इस तरह जो कविता या शेर सामने आता है वह, जीवन-जगत के किसी नये पहलू का बेहतर, जीवंत और विश्वसनीय तर्जुमान हो।
उम्मीद बंधती है कि सुभाष पाठक ‘ज़िया’और उनकी तरह के अन्य अनेक रचनाकार जो बड़ी संजीदगी और शिद्दत से इस विधा को, अपना समय और श्रम दे रहे हैं, हिंदी ग़ज़ल के लिए आगे और भी बेहतर परिणाम उपस्थित कर सकेंगे ।
यह संग्रह ‘ अभिधा ‘ प्रकाशन नयी दिल्ली ने प्रकाशित किया है, मूल्य है तीन सौ रूपये ।
लेखक संपर्क :
88783 55676
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