कविता आसपास : ‘ धूप गुन गुनाने लगी ‘ – डॉ. प्रेमकुमार पाण्डेय
धूप गुनगुनाने लगी
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नवोढ़ा धूप अब गुनगुनाने लगी
यामिनी लिहाफ में जाने लगी
चांदनी से दर्द सम्हाला न गया
सूनी रात में आंसू बहाने लगी।
उषा झट से आंसू पोंछने लगी
तितलियां भी पर तोलने लगीं
दर्द को कुछ यूं सम्हाला गया
सरसों भी मंद-मंद डोलने लगी।
कनक बालियां यूं लहराने लगीं
तीसी भी खूब रंग दिखाने लगी
चिड़ा घोंसले के द्वार खोल गया
गौरैय्या बादलों को हटाने लगी।
मटर छीमियों पर इठलाने लगी
बालियां फिर से सर उठाने लगीं
सारा जहां खुद में ही खोता गया
धरा बच्चों सी खिलखिलाने लगी।
नदी खुद में गोता लगाने लगी
घंटियां भी प्रभाती गाने लगीं
सर्द चादर को भी समेटा गया
बछिया कुलाचेंभर रम्भाने लगी।
चहुं ओर खुशियां पसरने लगीं
पनघट पर पायल छमकने लगी
आनन्द को भी आनन्द आ गया
बेदर्द शाम सूरज ही डुबोने लगी।
नवोढ़ा धूप अब गुनगुनाने लगी
यामिनी लिहाफ में जाने लगी
चांदनी से दर्द सम्हाला न गया
सूनी रात में आंसू बहाने लगी।
-डॉ. प्रेमकुमार पाण्डेय
[ कवि केंद्रीय विद्यालय वेंकट गिरी आंध्रप्रदेश में पदस्थ हैं. *• 98265 61819 ]
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