पुस्तक समीक्षा, मोटरा संग मया नंदागे – लेखक, बलदाऊ राम साहू
-समीक्षक,महेंद्र सिंह वर्मा
श्री महेन्द्र सिंह वर्मा एक साहित्यकार ही नहीं, एक दार्शनिक भी है। बहुआयामी श्री वर्मा भाषा, सहित्य और संगीत के साधक भी हैं । उन्होंने मेरी पुस्तक “मोटरा संग मया नँदागे” पर समीक्षा की है, आपके समक्ष प्रस्तुत है।
लोक परंपराओं पर नई दृष्टि
(बलदाऊ राम साहू की पुस्तक ‘मोटरा संग मया नंदागे’ की समीक्षा)
– महेन्द्र वर्मा
छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद से ही छत्तीसगढ़ी भाषा में लेखन को पर्याप्त महत्त्व दिया जाने लगा है I पत्र-पत्रिकाओं में स्थानीय संस्कृति और परंपरा से संबंधित साहित्य छत्तीसगढ़ी भाषा में निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं I रचनाकारों की पुस्तकें भी प्रकाशित हो रही हैं किन्तु अधिकांश लेखन परंपरागत विषयों पर ही हो रहा है, समीक्षात्मक और चिंतनपरक लेखन बहुत कम हुआ है I ‘मोटरा संग मया नंदा गे’ बलदाऊ राम साहू की नई गद्य कृति है जिसमें ऐसे विषयों पर लिखा गया है जिन पर पहले नहीं लिखा गया I छत्तीसगढ़ी के रचनाकारों में बलदाऊ राम साहू एक जाना-पहचाना नाम है I मूलतः ये कवि हैं किन्तु पत्र-पत्रिकाओं में इनके लिखे आलेखों ने भी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है I एक दर्जन से अधिक पुस्तकों के रचयिता बलदाऊ राम के गद्य लेखन में विषय की नवीनता तो है ही, उसके प्रस्तुतीकरण में विचारों और भावों की भी नवीनता परिलक्षित होती है I उनके ऐसे ही कुछ चयनित आलेखों का संकलन ‘मोटरा संग मया नंदागे’ शीर्षक से अभिव्यक्ति प्रकाशन, नई दिल्ली से पुस्तकाकार प्रकाशित हुई है I
इस पुस्तक में उनके द्वारा समय-समय पर छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखे गए चयनित आलेख हैं I ये आलेख विषय-वस्तु के आधार पर तीन खण्डों में विभाजित हैं I पहले खंड में भाषा, साहित्य, शिक्षा जैसे विषयों पर 9 आलेख हैं I दूसरे खंड में छत्तीसगढ़ी संस्कृति और पर्व- परम्पराओं पर 11 आलेख हैं और तीसरे खंड में छत्तीसगढ़ की 5 महान विभूतियों पर 6 आलेख हैं I पहले खंड के आलेखों में जिन विषयों को लिया गया है उन में विशेष बात यह है कि इन पर छत्तीसगढ़ी में पहली बार लिखा गया I इस खंड में मातृभाषा, लोक से शिक्षा, बोली और भाषा जैसे विषयों पर समीक्षात्मक आलेख संकलित हैं I बलदाऊ राम साहू को भाषा और उसके शिक्षण पर कार्य करने का सुदीर्घ अनुभव है इसलिए इन विषयों पर उनके विचार महत्वपूर्ण हैं I
मातृभाषा और समझ से संबंधित एक लेख में बलदाऊ राम लिखते है- “चाहे लइका मन होवय चाहे शिक्षक, दूनों अपन मातृभाषा म जतिक अच्छा अभिव्यक्ति दे पाथे ओतकी दूसर भाषा म नइ कर पावय I ये पाय के लइका मन के मातृभाषा ल कक्षा म उचित स्थान देना आवस्यक हे I” यह बात प्रारंभिक शिक्षा के सन्दर्भ में पूरी तरह सही है I भाषा अउ बोली संबंधी लेख में उन्होंने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है- “आम भारतीय मन के मानना हे के सबो भाषा के जननी संस्कृत आय फेर थोरकिन ये धारना के मोह ले निकल के देखे के आवसकता हे I का सही म एक भाषा दूसर भाषा ल जनम दे सकत हे ?” छत्तीसगढ़ी के माननकीकरण सबंधी लेख में वे भाषा के सबंध में एक प्रचलित धारणा का विरोध करते हुए लिखते हैं- “आजो बहुत अकन आदमी भाषा के सरूप अउ बिसेसता ल जाने बिना मुड़पेलवा कस पेले के काम करथे अउ येला हिंदी भाषा के बिकरित रूप म देखथें I सही कहे जाय त कोनो भाषा हर कोनो दूसर भाषा के बिकरित रूप नइ होय, ओमे ओकर खुद के बिसेसता अउ पहचान होथे I”
‘लोक शिक्षा के ब्यापकता अउ परभाव’ शीर्षक वाले लेख में लेखक ने विद्यालयीन शिक्षा की तुलना में लोक के सान्निध्य में प्राप्त शिक्षा को व्यावहारिक जीवन के लिए अधिक उपयोगी बताया है- “लोक के शिक्षा अनुभूत अउ स्व-प्रयास ले उपजे ज्ञान होथे जउन हा जीवन के लिए उपयोगी होथे I कोनो इस्कूल म हमला तऊँरना, पेड़ म चढ़ना, बात-बेवहार करना, समाज म उठना-बइठना, लोक मर्यादा के पालन करना ओ ढंग ले नइ सिखोय जउन ढंग ले हम लोक ले सीखथन I इही ले लोक के शिक्षा के ब्यापकता ल समझे अउ गुने जा सकत हे I” लेखक यह स्पष्ट करते हैं कि लोक संस्कृति के भाषिक रूप हाना और जनउला भी भाषा के सीखने में सहायक हैं I शैक्षिक सन्दर्भ में लिखे गए बलदाऊ राम के ये आलेख बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा से जुड़े कुछ अत्यंत आवश्यक बिन्दुओं को रेखांकित करते हैं I
दूसरे खंड में छत्तीसगढ़ के पर्वों और लोक परंपराओं पर केन्द्रित आलेखों में लेखक के मौलिक दृष्टिकोण की झलक स्पष्ट दिखाई देती है I तीज-त्योहारों को देखने-परखने का लेखक का अपना विशिष्ट नजरिया है I पहले लेख के प्रारंभ में ही वे लिखते हैं- “छत्तीसगढ़ के तीज-त्यौहार, संस्कार अउ परंपरा म चारों मुड़ा भाव के प्रधानता दिखथे I हर परंपरा म कुछु न कुछु भाव समाय होथे I जब ये परंपरा मन ला खंगाल के देखथन तब हम अचरज म पड़ जाथन कि हमर पुरखा मन म अतका सुग्घर भाव कहाँ अउ कइसे आइस होही I” विवाह संस्कार पर आधारित आलेख में रीति-रिवाजों का वर्णन नहीं है बल्कि उस के सामाजिक सरोकारों का उल्लेख किया गया है- “छत्तीसगढ़ के बिहाव के सुरू के तैयारी ले लेके जम्मो संस्कार ल ओरी-ओर खोधियाथन त समाज के उपस्थिति अउ योगदान ल परतेक्ष रूप म देख सकथन…….कोनो समाज अइसन नइ हे जेकर छत्तीसगढ़ के बिहाव संस्कार म परतेक्ष, अपरतेक्ष भागीदारी नइ होही I”
समीक्ष्य पुस्तक का शीर्षक ‘मोटरा संग मया नंदा गे’ जिस आलेख से लिया गया है वह छत्तीसगढ़ की संस्कृति के एक विशिष्ट भावनात्मक पक्ष को उभारता है I लेखक की इन पंक्तियों में न केवल इस लेख का बल्कि पुस्तक का शीर्षक ‘मोटरा संग मया नंदागे’ रखे जाने का मर्म निहित है- “पहिली के जमाना म झोला-झंगरा नई राहय I जब दाई-माई मन कोनो गाँव-गंवतरी जाँय तब अपन समान ल एक ठन ‘मोटरा’ बांध के ले जाँय I मोटर के गजब महत्त्व राहय I अइसे लागय कि मोटर म मया बंधाय हे I जइसे पहुना आय, तुरते ओकर मोटरा ल घर वाले हर भीतरी म बड सनमान के संग भितराय I मोटर के भितराना एक तरह ले पहुना के मान होय I”
‘माटी के बर्तन’ लेख में बलदाऊ राम ने दुहना, कसैली, कनौंजी, मरका-मरकी आदि मिटटी के पारंपरिक बर्तनों का सुरुचिपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया है I इस पुस्तक में समाहित कुछ पर्वों जैसे- छेरछेरा, हरेली, राखी और ईद के न केवल भावात्मक बल्कि तार्किक स्वरूप का भी विवेचन लेखक ने किया है I
तीसरे खंड में छत्तीसगढ़ के 5 विभूतियों- संत कबीर, संत घासीदास, माता राजिम, स्वामी आत्मानंद और पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी पर विशेष आलेख हैं I ये सभी विभूतियाँ छत्तीसगढ़ की संस्कृति और साहित्य का प्रतिनिधित्व करती हैं I लेखक ने इनके विचारों को लोक की शिक्षा से संयुक्त किया है I संत गुरु घासीदास के सन्दर्भ में वे लिखते हैं- “ महान संत गुरु घासीदास हर छत्तीसगढ़िया मनखे मन के आत्मगौरव ल जगाए के बात कहिस I उंकार उपदेस म सामाजिक सोच के संगे-संग अध्यात्मिक अउ दार्सनिक चिन्तन समाय रहिस I उही हर लोक-शिक्षा के माध्यम बनिस अउ समरस समाज बनाय के रद्दा बनाइस I”
छत्तीसगढ़ी में लिखी गई इस पुस्तक की भाषा में सरलग, खोधियाना, मुड़पेलना, अड़बड़, जम्मो, मुँहअखरा, चुल, खमसमिन्झरा, बड़हर जैसे ठेठ छत्तीसगढ़ी शब्दों और झोला-झंगरा, गाँव-गँवतरी, दाई-माई, तीर-तिखार, सेर-सीधा जैसे शब्दयुग्मों का प्रयोग छत्तीसगढ़ की लोक-भावना का समुचित चित्रण करता है और पुस्तक को रुचिकर बनाता है I कहीं-कहीं जहाँ छत्तीसगढ़ी के शब्द प्रयुक्त हो सकते हैं वहां हिंदी के शब्दों का प्रयोग हो गया है, जैसे- अनुमान, सुवासित, प्रकटीकरण, क्रोध, नारी-जीवन, अनिवार्य आदि I इन के स्थान पर क्रमशः अंदाजा, मह्महावत, परगट करई, रिस या गुस्सा, माई लोगन के जिनगी, जरूरी आदि छत्तीसगढ़ी में प्रचलित शब्दों का प्रयोग हो सकता है I
छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखी गई यह पहली पुस्तक है जिस में भाषा, संस्कृति और परंपरा को लोक की शिक्षा के साथ संयुक्त करते हुए विषय-वस्तु की विवेचना की गई है I सभी वर्गों के लिए पठनीय और संग्रहणीय बलदाऊ राम साहू की यह पुस्तक छत्तीसगढ़ी गद्य-लेखन की परंपरा में नई संभावनाओं के द्वार खोलती है I