कहानी : संतोष झांझी
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अनुबंध
-संतोष झांझी
[ भिलाई-छत्तीसगढ़ ]
शान्ता बालकनी में खड़ी सामने बाग में
खेलते बच्चों को देख रही थी। घर से पुरानी साड़ी
लाकर बच्चों ने नीम की डाल पर झूला बांध लिया
था। अब बारी बारी से एक दूसरे को झूला रहे थे ।
बीच बीच में गलत गिनती गिनने को लेकर उनमें
झगड़ा हो जाता तो खूब शोर होता फिर थोड़ी ही
देर बाद समझौता, झूला झूलनें के लालच में कोई
भी रूठकर बाग छोड़कर नही गया।
पश्चिम में लाल गोले का रूप धर कर धीरे
धीरे मद्धम होते डूबते सूरज के साथ साथ बाग सूना
होने लगा। शान्ता नें एक लंबी साँस ली।बाग का
सूनापन पूरी हवेली में पसर गया था।इस सूनेपन को
भरनें की बहुत कोशिश की थी शांता ने।बड़े से बड़ा
डाक्टर,हकीम,कलकत्ता दिल्ली, मद्रास, बम्बई, गंडा
ताबीज़,पूजा पाठ उपवास सब कर डाला। सत्रह साल
तक बालगोपाल के लिये तरसती ठकुराइन माँ चल
बसी। वह कभी भी ठाकुर रणवीर सिंह को दूसरी
शादी के लिये राजी नहीं कर पाईं। छोटी ठकुराइन शांता
ने जब खुद पति पर दूसरी शादी का दबाव बनाया तो
ठाकुर साहब ने शान्ता से बातचीत बंद करदी और अपनें
सोने का इंतजाम दूसरे कमरे में कर लिया।ठकुराइन
हार गई पति के इस प्रेम के सामने। डाक्टरों ने साफ कह
दिया था ठाकुर साहब एकदम ठीक हैं बस आप माँ नहीं
बन सकतीं
ठकुराइन ने किसी रिश्तेदार का बच्चा गोद लेना भी ठीक
नहीं समझा।अब ठकुराइन ने एक अलग ही उपाय सोच
लिया था इतनी बड़ी जमींदारी, इतनी बड़ी हवेली और
बस दो ही प्राणी ? बाकी नौकर चाकरों की फौज,,,, ऐसे
नहीं चलेगा। कुछ तो करना पड़ेगा,,,, वारिस तो होना ही
चाहिये।ठाकुर रणवीर सिंह का वारिस,,उनका अपना खून
,उन्हीं की औलाद चाहिये थी ठकुराइन को,,ठाकुर साहब
जैसे ही संस्कारवान बच्चे।
ठकुराइन नें पूरे कस्बे में और आसपास अपनें खोजी
मुनीम और पुराने वफादार नौकर को लगा रखा था।
नौकरानी आकर खबर दे गई।
,,मुनीम जी आये हैं,,
ठकुराइन पायल और गहने छलकाती चौबारा से सीढ़ियाँ
उतर नीचे पहुंची। मुनीम जी आज खुश नजर आये।
ठकुराइन सिंहासनारूढ हुई।
,,पांत लागूं ठकुराइन,,
,,का बात है? इ बेर आने में पंन्द्रह दिन लगा दिये? का गद्दी
से फुरसत नाय मिली ?
,आपके ही काम मं लगे रहे ठकुराइन, मुनीम ने फुसफुसाकर
जो कुछ भी बताया उसे सुनकर ठकुराइन कुछ देर सोचती
रही,, फिर बोली ,, कौन जाति है ?,,
,,जाति नीच नईं हे जी,,, वो सब पता कर के ही आपके पास
आया हूँ जी,, बस अपनी गरीबी से बेहाल हैं।,, मुनीम बोला।
,,ठीक है कल जब ठाकुर साहब की बग्घी हवेली से निकले
उन तीनो को लेकर आ जाना। कोनो को कानों कान खबर
ना होवे।,
,,जी जो हुकुम ठकुराइन,। मुनीम जी चले गये।
दूसरे दिन बैसाखियो के सहारे केशव सिंह ने धीरे धीरे ड्योढ़ी
में प्रवेश किया। पीछे पीछे घूंघट किये पैबंद लगा लहंगा
पहनें, उसकी औरत थी, उससे चिपकी खड़ी थी सोलह सतरह
साल की अच्छे नाक नक़्श और गर्द चेहरे वाली लड़की वीरा।
तीनों के हाथ पांव और बालों को देखकर लग रहा था तेल से
उनका संपर्क छूटे वर्षो गुजर चुके हैं।तीनो ने झुककर प्रणाम
किया। ठकुराइन ने ओसारे मे रखे तखत की तरफ इशारा
किया।तीनों धीरे धीरे संकोच से सर झुकाये तखत पर बैठे
बस जरा सा टिक गये।मुनीम जी एक तरफ खड़े थे।इशारे
से ठकुराइन नें उन्हें जाने की इज़ाजत देदी। कुछ देर सभी
चुप्पी साधे बैठे रहे।ठकुराइन ने ही बात शुरू की।
,,ए छोरी को ब्याह ऐसे आदमी संग करवा वारे हो, जिनके
पोते पोतियों की उमर भी तीस पार है। बुढऊ तो चार दिन
मं परलोकवासी हो जावेगे। उसके बाद का सोचा है तुम
लोगन नें? तुम जानत हो न कि ऊ बीमार है। तुम्हारी
बिटिया शादी के लिये नहीं, तीमारदारी के लिये चाही उनका,
सेवा चाकरो की खातिर,,, समझे,,,,
जी,,जी,,,जी पता तो है जी,,,,पर,,,केशव सिंह लडखडाये,
,, पता है फिर भी ?अपनें पेट की जाई नहीं है इसलिये ?,,
भगवान से डरो, केशव सिंह,,,बुढऊ के मरते ही उनके बेटों
और पोतों के हाथ का खिलौना बनके रह जायेगी छोरी,,,
या मरवा दी जावेगी। अच्छा जे बताओ , का लगाई है उनने
छोरी की कीमत ? ठकुराइन ने तीखी जुबान से पूछा।
,, पाँच ,,,हजार,,, केशव सिंह जैसे तैसे बोला
उसकी घरवाली रो रो कर हलाकान हो रही थी बोली,,,,
,, ठकुराइन ! नन्द ननदोई परलोक वासी हुइ गये,, विशवास
करो इ वीरा हमरी जान से भी प्यारी है पर जे बात हम
कोन को बतावे ? इनका एक पांव काटना पड़ा, जमीन
बिक गई। रोज़ी रोटी कमाने लायक भी न रह गये। उपर
से जवान बिटिया के कारण गाँव के शोहदों से परेशान हैं।
रात बारात दरबज्जा पीटते हैं। आवाजें लगाते है। इज्जत
तो वैसे बचाना मुश्किल हो रही है मालकिन ,,,, तो सोचा
इसका कुछ ठीया कर दे। जानकी रो रोकरठकुराइन के
पैरों के पास ढेर हो गई। ठकुराइन की आँखें आँसुओं
से लबालब थी।
वीरा की रज़ामंदी से चारों के बीच एक समझौता हुआ।
यह भी कह सकते हैं कि एक सौदा हुआ। मुनीम जी की
पुकार हुई,,कुछ कागजात तैयार किये गये। केशव सिंह
जानकी,वीरा और ठकुराइन के दस्तखत हुए।
,,हमारी पाँच एकड़ जमीन आज से तुम्हारी केशव सिंह
मजूर लगाकर खेती करो। कमाई खाओ,,,वीर यहाँ
इज्जत से रहेगी पर आज के बाद तुम्हारे घरां नहीं जावेगी।
तुम दूनो चाहो तो कभी कभी आकर मिल सकते हो। जिस
दिन हमारी मुराद पूरी हुई,, समझो तुमने नगद बीस हजार
और मिल जावेंगे।
साल भर तक वीरा को स्वस्थ सुन्दर बनाने के लिये
ठकुराइन ने दिनरात उसके खानपान पर नजर रखी।
दूध दही मक्खन, मेवे और फलों से उसके रखे सूखे
चेहरे पर स्वस्थ चमक नजर आने लगी। उपर से जवान
उम्र, अच्छा खाना और दिनभर आराम,चेहरा तो चमकना
ही था।
कई बार शांता ठकुराइन सोचती कहीं यह खिला-पिला कर
बकरे को जिबह करनें जैसा तो नहीं,,दूसरे ही पल सोचती
उस बूढे के परिवार मे इसकी हैसियत क्या होती ? यहाँ
उसे पत्नि की हैसियत छोड़ सारा मान सम्मान मिलेगा।
एकदम छोटी ठकुराइन जैसा,,,,,
इस सारी तैयारी से अबतक ठाकुर साहब अनजान थे।
वे दिनभर अपनी जमींदारी की देखरेख मे ही व्यस्त
रहते।इधर ठकुराइन वीरा को हवेली के तौर तरीके,
बातचीत का ढंग, उठना, बैठना सिखा रही थी।
ठाकुर साहब से अब ठकुराइन ने अपनी मंशा जाहिर
की। ठाकुर साहब हैरान,,,, आप जानती हैं आप क्या
करनें जा रही हैं ?अपनें हाथों आप अपना सर्वनाश
करनें जा रहीं है।
हम सब आपकी वंशबेल को फलते फूलते देखना देखना
चाहते हैं,,, आपनें सुना है न कि कोख किराये से लई जाती
है।फर्क बस इतना है कि हमने कोख किराये से नहीं ली
खरीदी है,,,
इसके बाद ठकुराइन नें सौदे की सारी बात ठाकुर साहब
को बता दी—“छोरी का जीवन नरक होवे से बचाओ है
हमने,,, दस हाथों मे बरबाद हो जाती छोरी,,, अब आप
जैसे सद्पुरूष के संग साथ में वह सुरक्षित हो गई ।
उसके मामा मामी की गरीबी भी दूर हुई गई। हमनें
अपनें मायके से मिली पाँच एकड़ जमीन उनको दे दी।
ठाकुर साहब निरूत्तर हो गये। वे जानते थे शांता किसी
के साथ कभी अन्याय नही कर सकती।
ऐसा तो आदिकाल से होता आया है।अक्षम राजाओ
की रानियों को भी राज्य का उत्तराधिकारी पैदा
करने के लिये ऋषियो के साथ नियोग करना होता
था ।महाभारत के धृतराष्ट्र और पांडु का जन्म भी
ऐसे ही हुआ था ।पत्नि के बाँझ होने पर दूसरी शादी
तो समाज मे युगों से प्रचलित है। जो दूसरी शादी नहीं
करना चाहते,उनके लिये टेस्ट ट्यूब बेबी या किराये की
कोख का भी चलन बड़े शहरों में हो गया है।
वीरा के कमरे को ठाकुर साहब के आरामगाह का रूप
दिया गया। वहाँ उनके आराम की हर वह वस्तु रखी गई
जो शान्ता ठकुराइन के कमरे मे थी। ठाकुर साहब कमरे
में गये, पर उल्टे पांव वापस आ गये । ठकुराइन परेशान
हो गई। ठाकुर साहब नें कह दिया—“हम नहीं जा सकते
वहाँ, लगता है जैसे हम किसी की मजबूरी का फायदा
उठाने जा रहे हैं।
हवेली की चाहरदीवारी के अंदर एक पुस्तैनी मंदिर था।
शान्ता ठकुराइन वीरा को लेकर वहाँ गई। ठाकुर साहब
भी वहाँ उपस्थित हुए। ठकुराइन के हाथ में सिंदूर की
डिबिया थी वो बोली —“वीरा ठाकुर साहब का साथ अगर
तुम्हें नागवार गुजरे तो अभी भगवान को छूकर बतादो।
हम तुमै कभी भी मजबूर नई करेंगे, अपनी जमीन भी
वापस नहीं लेंगे ,,अगर तुम्हें सब खुशी खुशी मंजूर होवै
तो जे सिन्दूर उठा के उनके नाम का अपणे हाथां से
अपनों मांग में सजा लो।
वीरा ने एक पल भी देर नहीं की। ठकुराइन के हाथ से
सिन्दूर लेकर उसने तुरन्त अपनी पूरी मांग सिन्दूर से
भर ली,, फिर झुककर ठाकुर साहब और ठकुराइन के
पाँव छू लिये।धीमी आवाज में सर झुका कर बोली-
—“हमारा तो जनम ही सुफल हो गया मालिक। नरक
से हम इस सुरग में आगये। मालकिन ने हमैं बचाय लिया
भुखमरी से भी और दरिन्दों से भी,,,,, इस देह और प्राणों
के केवल आप ही मालिक हो और हमारे प्राण छूटने तक
आप ही मालिक रहोगे। हमैं स्वीकार कर लो मालिक,,,,
दसवें महीनों फूल सी सुन्दर बिटिया ठकुराइन की गोद
मे आ गई। ठकुराइन बच्ची की मालिश से लेकर
नहलाने तक सब अपनी आँखो के सामानों करवाती,
दिन भर बच्ची को खुद लिये फिरती,,बस दूध पिलाने के
लिये वीरा बुलाई जाती।वीरा बच्ची को दूध पिलाते समय
थोड़ी देर के लिये उसे प्यार करती, सहलाती फिर अपने
कमरे मे लौट जाती।
वह सोचती एक बच्चा हो गया, अब क्या कभी ठाकुर
साहब के दीदार नही होंगे ? जिस दिन पता चला वीरा
को गर्भ है उसदिन के बाद से वो कभी वीरा के पास नहीं
आये। बच्ची एक साल की हो गई। अब वह गाय का दूध
पीने लगी थी, ठुमका ठुमका कर चलती,, पूरी हवेली मे
दौड़ती,,, वीरा दूर से उसके खेल देखती,,उसकी किलकारियाँ
सुनती रहती।
महरी बता गई—“ठकुराइन ने कहा है शाम को नहा लेना,,
वीरा के चेहरे पर हया की एक मौन मुस्कान फैल गई।
गालों पर गुलाबी आभा चमक उठी। उसने शाम को
नहा कर खुद को खुशबू से तर किया। सिन्दूर से मांग भरी।
गहनों से खुद को सजाया, मुँह को लौंग इलायची से सुवासित
किया। एक माह बाद वीरा का पाँव फिर भारी था। ठाकुर
साहब का आना फिर बन्द हो गया।
जब दूसरी बार भी बेटी पैदा हुई तो वीरा के मन में तीसरी
बार की उम्मीद जाग उठी। वह तीसरी बार ठाकुर साहब के
आने का इंतजार करनें लगी। दोनो बार एक डेढ महीने की
सोहबत में भी ठाकुर साहब वीरा की तरफ से एकदम निर्वीकार
रहे , बस डेढ दो घंटे उसके कमरे में गुजारे और चुपचाप उठ
कर चले जाते। उन्हें कुछ देर रोके रखनें के लिये वह उनके
पांव दबाने लगती पर उन्हें वीरा के कमरे में कभी नींद नहीं
आई।
दूसरी बच्ची भी ठकुराइन के ही पास रहती,,वहीं सोती। जचकी
मे वीरा के खानपान सेवाटहल में कभी कोई कमी नही की गई
सब ठकुराइन अपनी देख रेख में करवाती।
बच्चे के एक डेढ साल का होने के बाद वीरा को ठाकुर साहब
का एक डेढ महीने का साथ मिलता। दो बच्चों की माँ बनकर
अच्छे खानपान और खुशी ने वीरा को यौवन फल से भरपूर
कर दिया। आजकल उसपर नजर नहीं टिकती। ठकुराइन भी
उसके रूप की चमक को ठगी सी देखती रह जाती। सुन्दर नाक
नक्श गुलाबी रंगत, और यौवन भार से लदे शरीर।
तीसरी बार ठाकुर साहब का साथ मिला था वीरा को,, दो महीने
की पूरी साठ रातें,। ठकुराइन भी दो दो बच्चों मे व्यस्त,,अब
उसके एक एक दिन का हिसाब नहीं रखती। ठाकुर साहब को भी
अब लौटनें की जल्दीबाजी नही रहती,, पांव दबवाते हुए उसे
चुपचाप देखते रहते हैं। कभी कभी कोई बात भी कर लेते हैं। किसी
बात पर हंसते भी हैं वीरा के साथ। वीरा उनके प्रेम मे सराबोर,,
पूरी तरह से समर्पित,,,,,
इस बार पूरी हवेली में खुशियाँ छा गई। खूबसूरत स्वस्थ बेटे
को जन्म दिया था वीरा ने,,,ठकुराइन ने खुश होकर ठाकुर साहब
के हाथों वीरा को हीरे का नेकलेस भेंट किया था। बेटा ठकुराइन
ले गई।ठाकुर साहब का आना तो गर्भ ठहरने के तुरन्त बाद ही
बंद हो जाता था। वीरा के लिये तो फिर उस वीरान कमरे की
वीरान दीवारें ही थी। बेटा होने के बाद अब ठाकुर साहब से मिलने
की कोई उम्मीद नहीं बची थी।
पर इस बार वीरा को अधिक दिन अकेली नही रहना पड़ा।ठाकुर
साहब का आना उसके सूना कमरे में शुरू हो गया। वह खुशी से
झूम उठी। तीन तीन बच्चों के कारण ठाकुर साहब आजकल बहुत
खुश और व्यस्त रहनें लगे थे। बड़ी बेटी शुभश्री को इस साल
स्कूल भेजते समय घर में एकदम उत्सव जैसा माहौल बन गया
था। इस बार वीरा का कमरा बहुत दिनों तक गुलजार रहा। अढ़ाई
तीन महीने बाद ही वीरा का पाँव भारी हुआ। वीरा खुश थी, इस बार
बेटा पैदा हुआ था। बड़े बेटे जैसा ही खूबसूरत,, एकदम ठाकुर साहब
जैसा,, वीरा के कमरे में चारों तरफ ठाकुर साहब की बड़ी बड़ी
तस्वीरें टंगी थी। वीरा सुबह उठते ही पहले उन्हें प्यार से निहारती,,
बच्चे वैसे ही थे एकदम ठाकुर साहब जैसे। यह सारी व्यवस्था
शान्ता ठकुराइन की थी पर वीरा के ह्दय मे भी एक ही तस्वीर थी
और वह थी ठाकुर साहब की।
नौ साल में पाँच बच्चे आगये। तीन बेटियां और दो बेटे,, पूरी
हवेली में बच्चों का शोरगुल, चहल-पहल रहती। सब ठकुराइन
की देख रेख मे होता।बच्चों का खाना पीना, पहनना ओढ़ना, पढाई
लिखाई सब,, बच्चे ठकुराइन के इर्द गिदर्द मंडराया,लड़ते,झगड़ते
रूठते,खेलते।ठकुराइन ही उनकी माँ थी। बच्चे कभी वीरा के पास
नहीं आये,उनकी माँ वीरा है यह बच्चों ने कभी नहीं जाना।उनका
पूरा संसार ठाकुर ठकुराइन के इर्द गिर्द था। वीरा दूर से चुपचाप
देखती रहती।
कभी कभी मामा मामी वीरा से मिलनें आते।वीरा को सुखी देख
खुश हो जाते। एक दिन मामी ने कहा—“सारो तेरो ही तो राज-पाट
है। बच्चे थारे है तो ठाकुर साहब भी तो थारे ही भये। काहे अपने
कमरे मं सिटी रवे है ? बाहर निकराकर, अपणे बच्चों संग खेल
ठकुराइन की का बिसात थारे सामणे ? वो ठहरी नपूती बाँझ,,,,
बीच में ही टोक दिया वीरा ने –“आज के बाद इस हवेली में पांव
नी धरणा मामी,,, मेरे को भड़काने आ गई ? छीः उनका एहसान
इतनी जल्दी भूलगी ? मैं ठाकुरजी की ब्याहता ना हूँ ,ए सिन्दूर
उनने नई भरा म्हारी मांग में,, हमनें खुद भरा है,। एक सौदा हुआ
था म्हारे संग उनका,, मैं जे बात कभी ना भूली,मैं उनकी खरीदी
बाँदी हूँ जिसे ठकुराइन के बराबर खाना कपड़े लत्ते जेवर सब
मिले पर मैं ठकुराइन के पाँव की जूती बरोबर भी ना हूँ । मामी
शर्मिन्दा होकर चली गई फिर कभी नहीं आई।
समय पंख लगाकर उड़ने लगा,,,अच्छे अच्छे गहनों कपड़ों से लदी
वीरा दिन पर दिन जर्द पड़ती गई,,,, बच्चे एक एक कर छोटे शहर
के छोटे स्कूलों से बड़े शहरों मे फिर विदेश पढनें चले गये।
ठकुराइन के पैरों मे खुशियों के पंख लग गये। वो ठाकुर साहब के
साथ कभी बच्चों के देखने शहर भागती ,कभी विदेश,, वीरा दूर से
परदों की ओट से,कभी खिड़की से, ठाकुर साहब के दर्शन करती,
मन ही मन उन्हें प्रणाम कर लेती। उसके तन मन का पहला और
अंतिम मालिक,, जिनसे अब जीवन में कभी मिलने की उसे कोई
उम्मीद नहीं थी।
दो बेटियों की शादियाँ बड़े बड़े घरानों में हुई। वीरा घर के एक
सदस्य की तरह ही ब्याह मे शामिल हुई। बड़े कुँवर वीरेन्द्र सिंह
अमेरिका से विदेशी बहू ब्याह लाये। ठाकुर ठकुराइन ने उससे छोटे
कुंवर गजेन्द्र सिंह का ब्याह भी तुरन्त कर दिया। हवेली मे भव्य
समारोह था। दो दो शादियों की पार्टी,,, पूरी हवेली जगमगा रही थी।
वीरा अपने कमरे में बुखार मे पड़ी लगातार खांस रही थी। डाक्टर
दो बार आकर देख गया था। एक प्रशिक्षित नर्स और एक महरी
उसकी सेवा में लगी थी। सामनें रखी थी दस हजार की साड़ी और
जड़ाऊ जेवरों का सेट, वीरा देख रही थी, पर उठकर पहनने की
हिम्मत नहीं थी उसमे,,,, ठकुराइन इस सारी व्यवस्था के बीच भी
थोड़ी थोड़ी देर बाद आकर वीरा को देख जाती थीं। वीरा के सर पर
हाथ फेरते हुए ठकुराइन बोली—“वीरा हिम्मत करके जरा उठकर
देख तो सही,,आज तेरे दो दो दामाद,, दो दो बहुएँ, हवेली की रौनक
बने हुए हैं। सब से छोटी काव्यश्री के लिये भी जो लड़का पसंद किया
है उसे भी देख ले। तेरी बेटी और दामाद दोनों डाक्टर हैं। यह सारी
खुशियाँ, सारी बरकत तेरी ही तो दी हुई है वीरा।तेरा एहसान मैं कभी
चुका नहीं पाऊँगी वीरा,,,,
—“ऐसा न कहें ठकुराइन,,,यह सब आपका प्रताप है,आपका बड़प्पन,,
मै तो नाचीज बाँदी,,,,
ठकुराइन नें वीरा के मुँह पर हाथ रख दिया।
—“नहीं,,,नहीं ,, अब ये मत कहो। हमनें तुम्हें जितना दिया,,तुमने उससे
एक कण भी अधिक नहीं लिया,,इन सारी खुशियों के लिये हम तुम्हारे
आभारी है वीरा,,,,तुममें सौदे की शर्तों के आगे एक कदम भी कभी नहीं
बढाया,,,बस अब तुम जल्दी से ठीक हो जाओ,,,,,
नर्स और महरी को वीरा का ख्याल रखनें के लिये कहकर ठकुराइन
फिर मेहमानो को देखने चली गई।
किसी ने वीरा के पांव छुए,,वीरा चिहुंकी,,
—“कौन ?,,तुम,,, छोटी बहू हो ?
—“हाँ,, माँ हम जानते हैं, आप ही हमारी माँ है,,,
—-“जानती हो ? पर कैसे ? यह ,,यह गोरी गोरी देवी जैसी,, क्या बड़े कुंवर की,,,
—“हाँ, मैं आपकी बड़ी बहू हूँ छोटी माँ,, क्या हम आपको पसंद हैं? हमे
आशीर्वाद दो छोटी माँ,,
—“आशिर्वाद ? मेरा? नही,, वह तो ठकुराइन ही दे सकती हैं। मै,,, मेरी
दुआएं,,है,,
—“हम दोनों आपके दामाद है छोटी माँ,, हमें भी आपका आशीर्वाद चाहिये,,,
—“मै,,एक अदना औरत,,,मेरा आशीर्वाद,,,मेरी तो दुआएं ही,,, आप सब इतने
बड़े बड़े लोग,,,,और,,,मैं ??
—“मै आपकी डाक्टर बेटी बागेश्री,,,और माँ ये है आपके होने वाले डाक्टर
दामाद, पसंद है माँ,,,,
झटके से दृश्य बदल गया। ठकुराइन आवाज दे रही थी,, वीरा,,,वीरा ,आँखें
खोल वीरा,,, देख कौन कौन आया है,,, आँखें खोल ,, मै ठकुराइन,,,
एक पल वीरा की आँख खुली शायद डाक्टर के इंजेक्शन से,,
—-“मालकिन,,,, वीरा की जुबान लडखडाई,,,
—” हाँ,,हाँ,,, बोल वीरा क्या चाहिये,,, बोल ?माँग ले जो भी चाहिये,,,
—-” बस,,, एकबार,,,एकबार,,ठाकुर साहब,,मालिक से,, मिलना है,,
एक हाथ ने वीरा का माथा सहलाया, –बोलो वीरा,,मै तो तुम्हारे पास ही हूं
वीरा की आँखें एकबारगी पूरी खुल गई,,, ठाकुर साहब उदास चेहरे और
डबडबाई आँखों से वीरा को देख रहे थे,,दामाद बेटियां,,बेटे बहुओं से पूरा
कमरे भरा था,,,,,,,, वीरा के चेहरे पर एक तृप्ति भरी मुस्कान फैल गई ,,,,,
और उसकी आँखें ठाकुर साहब पर जाकर ठहर गई।
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