कहानी : उर्मिला शुक्ल
🟥
अम्मा की डोली
– उर्मिला शुक्ल
[ रायपुर छत्तीसगढ़]
डोली सजानी है मुझे | अम्मा की डोली| उन्हें विदा करना है | कैसे कर पाऊँगी मैं ?जग की रीत तो यह है कि माँ अपनी बेटी की डोली सजाती है | विदा करती है उसे | उसके श्रृंगार का एक –एक सामान जुटाती है ;मगर आज मुझे अम्मा को … ? यह विदा आसान नहीं है मेरे लिए ,पर… करना होगा |’ सोचती तनया अम्मा का बक्सा खँगाल रही थी | वह ढूँढ़ रही थी वह चुनरी ,जिसे ओढ़ा कर माँ की विदाई करनी थी | उसके हाथ बक्सा खंगाल रहे थे ;मगर मन ? मन तो सम्हाले नहीं सम्हल रहा था | चुनरी मिली तो करवा चौथ के कई दृश्य आँखों में तैर उठे | ‘ इसी चुनरी को ओढ़ कर अर्घ दिया करती थीं और आज इसे ही ओढ़ कर …! ’ सोचा और फफक उठी | आँखें भादों की ओरवनी सी चूने लगीं ;मगर उसने को मन को बलात रोका |
‘ नहीं ! अभी नहीं | अभी समय ही कहाँ है मेरे पास कि ….| अभी कितना कुछ संजोना बाकी है | बप्पा भी तो नहीं आये अब तक | उनको खबर किये बारह घंटे से अधिक हो गये ! अब तक तो आ जाना था ! ’ सोच तीतन याने अंसुआयी आँखों को पोछ लिया | बप्पा का नंबर मिलाया ,तो मोबाईल पर कोई सुगबुग तक नहीं उभरी | उस इलाके में नेटवर्क भी तो …..| कितना कुछ संजोना है अभी | साड़ी ,ब्लाउज , टिकुली ,सेंदुर और चूड़ी | और बिछिया भी तो | बप्पा आ जाते तो ….पर अब तो यह सब मुझे ही करना होगा , वहभी अभी कुछ ही घंटों में ? तो क्या ऑनलाइन खरीदारी करूं ? पर इतनी जल्दी तो ऑनलाइन से डिलीवरी सम्भव ही नहीं | फिर अम्मा की पसंद भी तो ? उनकी पसंद तो एकदम ही अलग रही है | बिलकुल अनूठी | चूड़ियाँ तो उन्हें लाल बुंदकी वाली ही पसंदहैं और जम्फर ? मरून मखमली जम्फर तो कितना पसंद रहाहै उन्हें ; मगर कहाँ खरीद पायीं | नून तेल लकड़ी के जाल में उलझी उनकी यह छोटी सी ख्वाहिश भी ख्वाहिश ही रह गयी थी ;मगर आज उनकी विदाई है | आज तो उनकी पसंद की हर चीज जुटानी है मुझे| आज वह सब करना है मुझे ,जो मेरी विदा पर उन्हें करना था | तो क्या दोनों विदाई एक जैसी है ? ’ सोचती तनया के भीतर में एक ज्वार सा उठा | आँखें फिर बरसने लगीं ;मगर उस ज्वार में डूबने उतराने का समय ही नहीं था उसके पास | बैठकर रोने के लिए भी फुर्सत चाहिए और उसके पास फुर्सत बिलकुल नहीं थी | सो अपने को समेटा और उठ खड़ी हुई | ‘ मगर बाजार कैसे जाऊँ? अम्मा को यूँ अकेली छोड़ना भी तो ..? सो वह सोच नहीं पार ही थी क्या करे ? कैसे मैनेज करे सब ? मगर करना तो होगा |आज अपना इकलौता होना बहुत खल रहा था उसे | ‘कुछ ही देर में पंडित जी आ जायेंगे | सो अब और इंतजार करना उचित नहीं | ‘सोचा और–
“सुनो सुखमनी ! तुम आकर अम्मा के पास बैठो | मैं बाजार हो आती हूँ | “
सुखमनी कामवाली है | उसे और घरों में भी जाना था | ‘ ऐसे बिन बताये नागा करेगी तो बाई लोग कितना कुड़ कुड़ करेगा है | फेन बी अइसा समे में संग देना तो पड़ता न |’ सोचा फिर
“ हो | मय बैठती |”आकर अम्मा के पास बैठ गयी |
‘ सबसे पहले कपड़ा बाजार जाना ठीक रहेगा |’ तनया ने सोचा और बाजार की ओर चल पड़ी | उसे कोई बहुत खरीदारी तो करनी नहीं थी ,बस एक साड़ी और जम्फर ही खरीदना था | सो एक दुकान में पहुँची – “चुनरी प्रिंट की साड़ी …..| लालरंग की…|“कहते हुए आँखें फिर बेकाबू हो उठीं ,और आवाज भर्रा गयी | अब तक का सहेजा मन बिखरने बिखरने को हो आया | उसने आँसुओं को बलात रोका भी ; मगर कुछ जिद्दी बूँदें पलकों तक आ ही गयीं, जिन्हें उसने जल्दी से पोंछ लिया |
“दीदी क्या मंगवाऊँ ? कोफी –चाय |”उसके मन से अनभिज्ञ दुकानदार ने अपनी व्यापारिकता निभाई |
“न | ”तनया ने मना किया |
“अच्छा कोल्ड ड्रिंक बुलवाता हूँ | जा रे दीदी के लिए एक ठंडा लेके आ | “उसने लड़के को आवाज दी | वह एक कुशल व्यापारी था | ग्राहक को खुश करने का तरीका जानता था |
“नहीं ! भैया कुछ भी नहीं चाहिए | आप तो जल्दी से लाल चुनरी …| “ कहते कहते आँखें फिर छलक उठीं | अबकी उसने भी आँसू देख लिये थे | सो चुपचाप पानी का गिलास बढ़ा दिया |अब तनया पानी के साथ अपने आँसू पीने की कोशिश कर रही थी ;मगर नाकाम रही |सो डबडबायी नजरों से आलमारी में चुनरी तलाशने लगीं | उसने देखा वहाँ सलमा सितारा वाली तमाम साड़ियाँ थीं ;मगर चुनरी प्रिंट नजर नहीं आई? लड़के ने कई – कई आलमारियाँ खँगालीं | कुछ साड़ियाँ निकालीं भी | वो साड़ियाँ चुनरी प्रिंट तो थीं; मगर वैसी नहीं ,जैसी अम्मा को पसंद थीं |
“दीदी आप उपर जाके देख लो | शायद……| “फिर वह एक दूसरे लड़के से मुखातिब हुआ “ये सोनउ जा दीदी को स्टोर में लेजा | “
तनया उसके पीछे चल पड़ी | संकरी सी जगह में एकदम खड़ी सीढियाँ | लड़का तो अभ्यस्त था |सो जल्दी से गया चढ़ ;मगर वह ? दीवार के सहारे ले देके ही पहुँच पायी | ऊपर साड़ियों का ढेर लगा था | वह देर तक उस ढेर कोउलटता – पलटता रहा;मगर वांछित साड़ी नहीं मिली ,तो एक बंधे गटठर को खोला | एक साड़ी मिली ; मगर वह पीले रंग की थी | पर उसे तो लाल ही चाहिए थी | आज वह कोई समझौता नहीं चाहती थी | सो उठ गयी | लड़के को राहत सी हुई ; मगर मालिक निराश हुआ | वह ग्राहक को खाली लौटाना नहीं चाहता था | सो उसने एक और कोशिश की | “सोनउ जा दीदी को पीछे वाले गोडाउन में लेजा |”
“नहीं !रहने दीजिये | मुझे देर हो रही है | “
“अच्छा दीदी ! फिर आना | “कहते हुए वह कुछ निराश सा दिखा |
तनया ने दूसरी दुकान का रुख किया ;मगर वहाँ भी निराश ही हुई | फिर और कई दुकानें देखीं पर वांछित साड़ी नहीं मिली | ‘ तो क्या आज भी उनकी इच्छा पूरी नहीं होगी ? ‘सोचती वह बाजार की पीछे वाली गली में जा पहुँची | उस गली में छोटी –छोटी दुकाने थीं | सो बहुत उम्मीद तो नहीं थी ;मगर उसने उन दुकानों में पूछना शुरू किया – “चुनरी प्रिंट की लाल साड़ी है क्या ? “ वह दुकान के बाहर से ही पूछती और नकार मिलने पर आगे चल पड़ती | वह लगभग निराश ही हो चुकी थी | सो जब एक दुकानदार ने हामी भरी ,तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ | वह दुकान बहुत ही छोटी थी | दुकान भी नहीं एक छोटी सी गुमटी जैसी थी ;मगर वहाँ वो साड़ी मिल गयी | फिर उसने रेडीमेड जम्फर लिया | इन दिनों मखमल का जम्फरनुमा ब्लाउज फैशन में भी था | सो आसानी से मिल गया | अब चूड़ी , सिंदूर ,टिकुली और बिछिया लेनी थी | सिंदूर भी किसी ब्रांड का नहीं, निखालिस बंगाली सिंदूर लेना था |वही पसंद था अम्मा को | अब तो सिंदूर की स्टिक का जमाना आ गया था | सो बंगाली सिंदूर ही आसानी से नहीं मिलता था ,फिर बंगाली सिंदूर ? मगर उसे तो वही लेना था | सो मनिहारी गली की ओर चल पड़ी | सिंदूर और टिकुली ली | चूड़ियाँ खरीदते समय अम्मा की गोरी कलाइयाँ आँखों में उतर आयीं और आँखें फिर अंसुआ आयीं | दूकान पर एक छोटी लड़की थी | वह अकचकाई सी देख रही थी उसे | चूड़ियाँ लेकर वह आगे बढ़ी|अब बिछिया बची थी | ‘ अम्मा को मछर मुँदरी (मछली के आकार की )बिछिया पसंद थी | बड़े ज्वेलर्स के यहाँ तो नहीं ही मिलेनी थी | |’सो सुनार गली की ओर मुड़ गयी | एक दुकानदार ने मछली वाली ढेरों बिछिया दिखाईं | तरह तरह की मछलियाँ थीं | छोटी– बड़ी ,मझोली और ,सादी (बिना मीना वाली ) मीना वाली भी | उसने अंगुष्ठा सहित पाँच जोड़ी मझोली बिछिया चुनी |आज उनके पैर की कोई भी ऊँगली खाली नहीं रखनी थी उसे | सारा सामान सहेजकर ढलती दोपहर घर पहुँची | बप्पा तो अभी तक नहीं पहुँचे थे | उनका मोबाईल ट्राइ किया ,तो फिर वही सन्नाटा ! कुछ देर कोशिश की फिर -‘ पंडित जी आते होंगे | उनके आने के पहले सारी व्यवस्था बनानी होगी | ’ सोचा और जल्दी– जल्दी सारा बिखराव समेटा | दरी बिछाकर लोगों के बैठने का इंतजाम किया | इस बीच उसने अम्मा की ओर एक बार भी नहीं देखा | जान बूझकर नहीं देखा अगर देख लेती तो …..मगर अब ? अब तो अम्मा को ही तैयार करना था | सो उनकी ओर बढ़ी ;मगर उनका मुह देखते ही जोर की हूक उठी | लगा जैसे कलेजा ही बाहर आ जायेगा | उसका मन किया उनसे लिपटकर जोर– जोर से रोये; मगर समय ? समय कहाँ था कि … ? अभी तो शव अम्मा को नहलवाना था | सो सात सुहागिनों की जरूरत थी | ‘ गाँव में सात सोहगइलें मिलकर नहलाती हैं ; मगर यहाँ ? उड़ीसा की सीमा पर बसे इस कस्बे के सरकारी आवास में किसे बुलाऊँ मैं ? गाँव में तो सब गोतियारिने इकट्ठी हो जाती हैं | सो सात सुहागिने आसानीसे मिल जाती हैं , पर यहाँ तो कोई परिवार सहित रहता ही नहीं | सो सब मुझे ही करना होगा ;मगर मैं तो सुहागिन नहीं | फिर भी करना तो होगा ’ सोचा और उठाकर उन्हें अपने सहारे बिठा लिया| फिर बुकवा ( सरसों का उबटन ) लगाने लगी ‘ अम्मा ने मुझे इस तरह न जाने कितनी बार नहलाया होगा ? यह कहाँ सोचा था मैंने कि कभी भी मुझे इन्हें यूँ ..?’सोचकर उसका मन फिर बेबस हुआ और आँखें बरसने लगीं | आँखों से बूँदें टपकतीं और पानी में चुपचाप समा जातीं | नहलाने के बाद साड़ी और जम्फर पहनाया | कँघी की और माथे पर लाल टिकुली लगायी , तो उनका चेहरा इस कदर दमक उठा कि लग ही नहीं रहा था कि अब वे…! यह लाल टिकुली ही तो इनकी आन थी | इसके साथ कभी कोई समझौता नहीं किया | कभी जिद करके वो उनके माथे पर कोई और टिकुली लगा देती ,तो वे झट से कहतीं– “तनि सीसा देखाव |” कई कोण से आईना देखतीं और – “नाहीं ई नीक नाहीं लागत है |”और अपनी मनपसंद लाल टिकुली लगा लेतीं | सो उसे लगा जैसे वे अभी कह उठेंगीं– “तनिक सीसा देखाव ;मगर नहीं | कुछ नहीं कहा उन्होंने | बस उनकी आँखें ताकती रहींउ से | “अम्मा ऐसे मत देखो | ऐसे देखोगी तो मैं ….| ”कहा और लिपट गयी उनसे | फिर तो वह अपने को सम्हाल ही नहीं पायी | उसके अन्तस् को कनकोरता रुलायी का एक भभका ही फूट पड़ा ; मगर जी भरकर रो लेना उसके नसीब में था ही कहाँ | सो उसकी रुलाई फूटी ही थी कि–
“बिटिया ! सब तैयारी हो गयी न ?”
पंडित जी की आवाज सुनते ही अपनी रुलायी को पीछे ठेला और अंसुआयी आँखों से उनके निर्देश पालने लगी| काला तिल, आटा ,दूध ,गंगाजल कुश और भी जो कुछ उन्होंने माँगा उन्हें देती रही | अब तक उसके ऑफिसर और कुछ और लोग भी आ गये थे | उनके साथ कुछ बड़ी बूढ़ी स्त्रियाँ भी थीं | सो पंडित जी के निर्देशों में उनकी सलाहें भी शामिल हो गयीं | वह यंत्रवत सबका कहा किये जा रही थी ,तभी पंडित जी ने कहा–
“बिटिया ! तुम्हारे बाबू जी कहाँ हैं ? अंतिम सिंदूर तो वही लगायेंगे न | “
पंडित जी की बात सुन उसकी नजरें द्वार की ओर उठीं| लगा अब तक शायद आ गये हों ; मगर निराशा ही हाथ लगी | सो उसने उनका नंबर मिलाया | अबकी टूऊँ –टूऊँ की ध्वनि उभरी ,तो एक आस सी जगी ;मगर फिर –“आपने जिस व्यक्ति को फोन किया है वह कवरेज क्षेत्र से …|”दुःख और निराशा के इस समय में ,मोबाइल में फीड यह संदेश उसे अच्छा नहीं लगा | सो उसने बीच में ही फोन काट दिया और ओंदित जी से मुखातिब हुई – “ थोडा और इंतजार कर लेते हैं | जंगल का रास्ता है जरूर कोई परेशानी हुई होगी |”कहा फिर – ‘ अब तक तो आ जाना था उन्हें | बप्पा ऐसे लापरवाह तो कभी नहीं रहे कि …! फिर अम्मा के लिए ? अम्मा तो उनके प्राणों में बसती थीं | ’ सोचकर मन की भीतर परत में एक आशंका सी खड़की कि कहीं कुछ अनहोनी… | इन दिनों वहाँ दन्तेलों (जंगली हाथी ) ने कितना आतंक मचा रखा है | आये दिन दल के दल गाँव में घुस आते हैं|जाने कितने लोगों को …. .| ’ यह सोचकर ही मन डूबने लगा तो – ‘ नहीं ! ऐसा कुछ नहीं होगा | ’ सोचा और उस आंशका को पीछे ठेल दिया और फिर से नंबर डायल किया;मगर फिर वही टूऊँ–टूऊँ की आवाज़ उभरी और फिर – “आपने जिस ……..| ”उसका मन हुआ कि बोलने वाली को घसीट कर मोबाईल से बाहर फेंक दे | या फिर बुक्का फाड़कर रो पड़े ;मगर दोनों में से कुछ भी नहीं कर पायी और बार– बार नंबर मिलाती रही |
“बिटिया बहुत अबेर हो रही है | दिन बूड़ने से पहले ही …|”पंडित जी ने चिंता जताई |”
“क्या हुआ ? फोन नहीं उठा रहे क्या ? ”एक आंटी ने पूछा,तो तनया से कुछ बोला ही नहीं गया | सो वह चुप रही और उसकी चुप्पी से और बातें निकल पड़ीं –
“लगता है घरवाली से बिछड़ने का गहरा सदमा लगा है उनको| तभी तो …?”दूसरी ने कहा |
“हाँ बहन जी ! हमाये जेठ तो जेठानी का जाना बर्दास्त ही नहीं कर पाएऔर वो भी सिधार गये |
यह सिधारने वाली बात भाले की नोक सी सीधे उसके मन में जा धँसी | उसका मन हुआ उनसे कह दे – “प्लीज ऐसी बातें न करें ;.मगर कह नहीं पायी ,तो उनके बीच ऐसे तमाम किस्से चल पड़े | उन किस्सों ने उसे को इस कदर व्याकुल कर दिया कि वहाँ बैठ पाना ही मुश्किल होग या| सो उठकर बाहर चली गयी और देर तक गली के मोड़ को निहारती रही | जाने कितने लोग आ – जा रहे थे;मगर उसे जिनका इंतजार था ,उनका कोई पता न था |
“बिटिया अब और इंतजार नहीं कर सकते | दिन रहते ही दाहकर्म निपटाना होगा | “पंडित जी ने कहा |
उसने एक बार फिर फोन लगाया |अबकी कोई आवाज़ ही नहीं आई |उसका मन लरज उठा | फिर तो उसने लगतार कई बार फोन लगाया ; मगर वही सन्नाटा ! ‘ अब …? यहाँ इस गाँवनुमा कस्बे में ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं कि कल तक रुका जा सके | तो..? ’
“बिटिया ! अब तो सब तुम्हें ही करना होगा | तुम्हीं अंतिम सिंदूर लगाकर विदा करो अपनी माँ को | “
उसने पंडित जी को देखा | यह कहते हुए उनका चेहरा बिलकुल सपाट था | उनके लिए सिंदूर लगाना एक क्रिया थी,जिसे इस आपतकाल में उसके हाथों सम्पन्न होना था ,पर उसके लिए यह मात्र क्रिया नहीं थी | ‘ यह अंतिम सिंदूर ही तो अम्मा का जीवनलक्ष्य था | उनकी एकमात्र चाह थी कि वे पति के हाथों अंतिम सिंदूर पाएँ और सुहागन विदा हों |
“न हम चाही राजा महल दुमहला |
न हम चाही नवलख हार जी |
हमका तो चाही राजा माँगभर सेंदुरवा |
चाही तो बस अहिवात जी |
हमका न चाही राजा घोड़ा अउ गाड़ी |
चाही न कउनव सउगात जी |
हमका तो चाही राजा छोटकी सी डोलिया |
अउ हम चाही तुमका कंहार जी | “
इस गीत को गाते हुए उनके मन में एक स्वप्न सा पलता | वे बप्पा से अक्सर कहतीं तुम देखना “मैं तो तुम्हारे काँधे पर चढ़कर ही जाऊँगी”और आज वही काँधा ..? ’ सोचा | फिर सिंदूर की डिबिया उठाई ;मगर अम्मा की माँग में लगाने पहले, एक बार फिर दरवाजे की ओर देखा कि शायद ..| फिर काँपते हाथों से खाली माँग पूरने लगी ,तो अब तक बरबस रोकी रुलाई फूट पड़ी और वह हिलक हिलक कर रोने लगी | अभी वह जी भर रो भी नहीं पाई थी कि–
“ बिटिया ! जल्दी करो समय बीता जा रहा है | ” “पंडित जी ने चेताया तो फिर देह उनके निर्देश पालने लगी ;मगर मन…. |
“बिटिया माँ की पलकें बंद कर दो | खुली आँखों से संसार का मोह राह रोकेगा और मोक्ष में बाधा आएगी | “ पंडित जी ने कहा |
मोक्ष– वोक्ष में उसका विश्वास नहीं था ;मगर अम्मा को था | उसने अम्मा की ओर देखा और उनकी पलकें बंद करने लगी ,तो उनकी आँखों में एक प्रतीक्षा सी नजर आयी |आँखों की कोर भी कुछ गीली सी लगी | ये उसके ही आँसूं थे जो अम्मा की पलकों पर चू पड़े थे ;मगर क्षणभर को उसे लगा था जैसे अम्मा के ही आँसू हों और वह“अम्मा“ कहकर उनसे फिर लिपट गयी | अबकी उसका रुदन इतना करुण था कि वहाँ बैठी महिलाएं भी सिसकने लगीं |
“बिटिया सम्हालो अपने को | मन कड़ाकर के माँ को विदा करो | “एक आंटी ने उसे अम्मा से अलगाया ,तो वह उन्हीं से लिपट गयी और गोहार पारकर रोने लगी ,पर उसकी किस्मत में दो घड़ी रोना भी तो नहीं था | सो पंडित जी के शब्द फिर कानों से टकराये– “बेटा जल्दी कर लो दिन…..| “
और कठपुतली सी चलती वह उनके निर्देश पालने लगी | डोली सजकर तैयार हुई | अब मुखाग्नि का सवाल उठा ,तो मन में अम्मा की चाह फिर उभरी|’ पति के हाथों से अग्नि पाना उनकी परम कामना थी और आज वही कामना ..? ’
“अब कोई और तो है नहीं ,तो मुखाग्नि तो तुमको ही देनी होगी | वैसे भी अब जमाना बदल रहा है | अब तो बेटियाँ भी मान्य होने लगी हैं| “ पंडित जी कह रहे थे ;मगर उसकी नजरें अभी भी द्वार पर अटकी थीं और मन पूछ रहा |अम्मा ने जीवनभर पत्निव्रत पाला था; तमाम देवधामी पूजे थे ;मगर इस समय जैसे क्या सबने उनका साथ छोड़ दिया |’अब तक द्वार पर बहुत से लोग एकत्र हो चुके थे |समय अपनी रफ्तार से भी तेज भागा जा रहा था |सो बोझिल कदमों से आगे बढ़ चली वह ;मगर अम्मा की डोली को काँधा लगाया तो –
उसकी आँखें धुँधला उठीं |उसके ओंठ थरथराये– “अम्मा ! तुमने तो मुझे डोली में ही बिठाने का सपना देखा होगा ;मगर आज मुझे यूँ…. | “कहते बाकी शब्द रुदन में छितरा गये और उसके कदम लड़खड़ा उठे| उसे लड़खड़ाते देख एक सहयोगी ने दोड़कर अर्थी को सहारा देना चाहा ;मगर तनया ने अपने जजबातों को पीछे ठेला और कदम आगे बढ़ा दिए और अम्मा की डोली अपनी यात्रा पर चल पड़ी | डोली को काँधे पर उठाये चलती तनया के एक हाथ में अग्नि प्रज्वलित हांड़ी थी | आँखों में छायी धुँध से सब धुँधला गया था ;मगर उसके कदन बढ़ते जा रहे थे |
मुक्तिधाम बहुत दूर था | सो साथ चलते सहयोगियों ने कंधा बदल लेने का इसरारकिया ; मगर तनया ने तो जैसे कुछ सुना ही नहीं | वह चलती रही |डोली मुक्तिधाम पहुँची , चिता तैयार हुई| तमाम कर्मकांडों हुए | | मुखाग्नि देते हुए मन फिर बिखरने लगा ;पर उसने सहेज लिया उसे; मगर कपाल क्रिया .? पंडित जी ने बाँस का मोटा सा डंडा उसके हाथ में पकड़ाया – “बिटिया ! अब कपाल क्रिया करना है ! लो इससे सिर छेदन करो|”
उसने बाँस हाथ में ले लिया और एकटक देखने लगी उसे और आँखों में चित्रों का एक कोलाज सा उभरा | उस कोलाज में जो सबसे बड़ा चित्र था उसमें अम्मा ने उसे अपने सिर पर बिठाया हुआ था और उसने पेड़ की सबसे ऊँची डाली पकड़ रखी थी | ’ जिस सिर पर बैठकर मैंने सबसे ऊँची डाली ……..| आज उसी सिर को यूँ …. ? ’ सोचा और उसके हाथ से बाँस छूट गया |
“ अरे बिटिया कपाल किरिया तो बहुते जरूरी है| जल्दी करो बिटिया नहीं तो कपाल अपने आप फूट जायेगा | तब तो सब बिखर जायेगा |”
“अब बिखरने को बचा ही क्या है जो ….? नहीं ! यह क्रूर कर्म नहीं होगा मुझसे | ”
“बिटिया तुमसे नहीं हो रहा ,तो हमही कर लेते हैं | का है कि इसके बगैर मोक्ष भी तो नहीं मिलेगा | “कहते हुए पंडित जी ने जमीन पर पड़े बाँस को उठाया और उसके हाथों का स्पर्श कराकर कपाल क्रिया करने लगे | उससे वह सब देखा नहींग या | सो दौड़कर बाहर निकली गयी और घर की ओर चल पड़ी | घर पहुँचकर सबसे पहले उस जगह को देखा जहाँ अम्मा…अब वह जगह खाली थी |मन फफकने को हुआ कि –
“दीदी गोबर |”
सुखमनी के हाथ में गोबर देख उसे याद आया अभी तो अम्मा की तरी लीपनी है | उसने गोबर हाथ में लिया और उस जगह को लीपने लगी ,जहाँ अम्मा को लिटाया गया था | तरी लीपते हुए उसे कहना था– “अम्मा अब तुम अपने लोक को जाओ ! अब इस घ रसे , इस दुनिया से तुम्हारा कोई नाता नहीं है | “पर बोल नहीं पायी और रुलाई फूट पड़ी और वह उसी ठौर पर सिर टिकाकर रो पड़ी | अब तकउ से रोने का समय ही नहीं मिल पाया था |सो जी भरकर रो लेना चाहती थी ;मगर तभी अचानक मोबाइल बज उठा | ‘ जरुर बप्पा होंगे |’ उसने लपककर फोन उठाया–
“आप गनेस दत्त के घर से बोल रही है ?”
“हाँ ! आप कौन ?” ‘ उस इलाके के लोग बप्पा को जंगल मास्टर कहते हैं | सब जानते हैं उन्हें| मगर ये ,तो क्या वे कहीं और.. | सोच ही रही थी कि –
“मैं थाने से बोल रहा हूँ | मेरे को इनका मोबाइल में आपका नंबर मिला | मैं सोचा आप इनका रिस्तादार होगा, तो…|”
“हाँ मैं उनकी बेटी … | कहाँ हैं वे ? मेरी उनसे बात कराइए प्लीज |” मोबाइल से कुछ देर तक कोई आवाज नहीं आई | उसेलगा फोन कट तो नहीं गया | सो उसने मोबाईल की स्क्रीन देखी तो सेकेंड्स के आँकड़े बढ़ते दिखे | “हलो ! हलो मेरी बात कराइए प्लीज | कहते हुए उसकी आवाज काँप उठी और धड़कने सेकेंड्स की रफ्तार को फलाँगने लगीं | उसे हर सेकेण्ड एक युग सरीखा लगने लगा | मोबाइल खामोश रहा |बहुत देर बाद कानों में एक धमाका सा हुआ – “हैलो कल रात कुछ दंतेल (हाथी )गाँव में घुस गये थे और गाँव में सबको रौंद डाले ….|आप जल्दी से जल्दी आ जाइए…. “
“दीदी का हुआ? बाबू जी आ रहे का ?“सुखमनी पूछ रही थी ;मगर वह जड़वत खड़ी रही |“दीदी बोलो न बाबू जी ….“.सुखमनी ने उसे पकड़कर जोर से झकझोरा ,तो उसने उसकी ओर देखा तो ;मगर लगा जैसे सुखमनी की छुअन उस तक पहुँची ही नहीं | उसकी आँखों की कोर में आँसू की बूँदें अरझ कर कठवा गयीं थीं |कुछ देर वह वैसी खड़ी रही | फिर उसके ओठों से अस्फुट से कुछ शब्द उभरे हाँ s! मैंआ… |”और उसके कदम चल पड़े थे एक दुःख से दूसरे दुःख की ओर |
•••••
•संपर्क-
•98932 94248
🟥🟥🟥🟥🟥🟥