होली विशेष : तारकनाथ चौधुरी
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मुहावरों जैसी होली
– तारकनाथ चौधुरी
[ चरोदा-भिलाई, जिला-दुर्ग, छत्तीसगढ़ ]
कोई मुहावरा लगता है,लोकोक्ति कोई सच करता।
मस्ती में मस्ताने नाचे ढोल-नगाडा़ जब बजता।
गली-मुहल्ले में दिखते हैं, झुंड के झुंड ही रंगे सियार।
कौवौं सी कर्कश ध्वनियों में, करते रहते हैंं चित्कार।।
अपनी-अपनी डफली बजाते छेड़ते दिखते अपना राग।
अंधों में काना राजा बन,कोई झूमकर गाता फाग।।
चेहरे पल-पल गिरगिट की तरह ही रंग बदलते रहते।
डंके की चोट पर विरोथी के लिए ज़हर उगलते रहते।
थुत्त नशेडी़ पान-सिगरेट के देते हैं जब दुगुने दाम।
दुकानदार पा जाता आम के आम गुठलियों के दाम।।
हुड़दंगी टोली के पीछे जब हैं दौड़ते कुत्ते।
सिर पर पैर लेकर हैं भागते और हाँफते रहते।।
अपनी प्रिया के गालों को जो रंगने से वंचित होते।
साँप लोटता छाती पर उनके रह-रह विचलित होते।।
दिल की पिचकारी में भर लो रंग प्रेम का होली में।
बैर पुराना भूल जगा लो तरंग प्रेम का होली में।।
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