घोंसला- अंशुमन राय, प्रयागराज,इलाहाबाद.
“अरे!यह क्या? गौरैया ने तो ए. सी. में भी अपना घोंसला बनाना शुरू कर दिया है।कुछ ही दिनों में तो ए. सी. चलाने की नौबत आ जाएगी।तब क्या होगा? उसके बच्चे कहीं मर गए तो?
यह बातें कान में जाते ही,मैं दौड़कर बाहर गया और देखा कि बरामदे में जो ए. सी. का आउटलेट लगा है,उसी के तारों के बीच गौरैयाँ अपना घोंसला बना रहे हैं। घास-फूस, डोरी,प्लास्टिक के तार कुछ भी बाकी नहीं है। “कितनी मेहनत से यह अपना घोंसला बना रहे हैं!लेकिन जब ए. सी .चलाने की नौबत आएगी तब क्या होगा?
अगले ही पल मैंने वहाँ पर रखे लकड़ी के स्टूल पर चढ़कर उसका वह घोंसला, उसका वह आशियाना खींचकर नीचे गिरा दिया । तभी एक गौरैया वहाँ पर आ गयी और बरामदे की रेलिंग पर बैठकर एकटक अपने उस होने वाले आशियाना का हश्र देखने लगी।तभी मेरी धर्मपत्नी अंदर से आ गयी और यह दृश्य देखकर कहने लगी” क्या विडम्बना है?अगर कोई हमारा घर भी इसी तरह बर्बाद कर दे तब कैसा लगेगा?
उनकी यह बात सुनकर मुझे अपने कृत्य पर बड़ा पछतावा होने लगा और सहसा मेरी दृष्टि उस गौरैया पर गयी जो कभी मेरी ओर तो कभी अपने टूटे हुए घोंसले को देख रही थी।मुझे लगा कि वह जैसे मुझसे कहना चाह रही है-“हम आखिर जाए तो कहाँ जाए?तुम मनुष्य तो हर सुविधा जुटा ले रहे हो और हमको एक घोंसला भी बनाने नहीं दे रहे हो।ऐसा कैसे चलेगा? तभी वह गौरैया उड़ गयी और मैं अपने काँपते हुए हाथों से उसका वह टुटा हुआ घोंसला उठाकर कूड़े के ढेर में डाल आया।
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