ग़ज़ल, महफूज़ हम रखेंगे अपनी ये ज़िदगी को- गीता विश्वकर्मा ‘नेह’
महफूज़ हम रखेंगे अपनी ये ज़िदगी को
ये वायरस करोना निगले न आदमी को ।
खानाबदोश होकर रस्ते में फिर रहे हैं
समझेगा कौन उसकी हालात बेबसी को ।
साये में धूप के हैं फुटपाथ के निवासी
देखेगा कौन उसकी आँखों की तीरगी को ।
अपने ही घर में देखो इंसान कैद में है
आबोहवा को तरसे सहता है बेकली को ।
इक हाथ चाँद तारे दूजे में शम्स रक्खे
आँखें तरस रही है फिर भी क्यूँ रौशनी को ।
दैरौ हरम दिलों के खुल करके पास आये
संकट की इस घड़ी में बैठा है बंदगी को ।
दहशत में ज़िदगी है ख़ौफ़े-क़जा है सर पर
इंसानियत के खातिर पी लेंगे तिश्नग़ी को ।
फरमान रोज पढ़ते सरकार जो भी कहती
मानेंगे आँख मींचे पी.एम. की रहबरी को ।
इन आँधियों का तुझ पर कोई असर न होगा
समझा रहा है मौसम बागों की हर कली को ।
फुर्सत के इन पलों में चाहत भरी सी बातें
हम घूँट घूँट पीते साजन की आशिकी को ।
बस नेह दूर रहना मत और पास जाना
जालिम हुआ करोना समझो ये आगही को ।
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