कविता- विद्या गुप्ता दुर्ग, छत्तीसगढ़
आतंकित हो धरती
घूम रही है स्तब्ध
सबके चेहरे पर चमक रही है दुर्योधन की आंखें
हाथों में दुशासन
सब ने पकड़ रखा है
धरती की चूनर का हिस्सा
खींचो और खींचो
निर्वस्त्र हो रही है
हाहाकार करती धरती
जार जार रोती…..आह
जहर से भर गई
उसकी नदियां
धुंआ धुंआ आकाश
कालिमा से भर गई
हवा की चांदनी
पेड़ों की हरियाली
तलाशो……!!
सब से अपने अंदर
कहीं बचा हो
थोड़ा सा कृष्ण तो
दौड़कर बचा लो
नग्न होने से पहले
वसुंधरा को
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जमीन पर गिरा
टूटा पत्ता
क्या सचमुच टूट पाता है
पेड़ से
वह देखता है सतत
नई को कोंपलों की ओर
समझ लेता है अंततः
उद्भव और पराभव की नियति स्वीकार कर लेता है
कुदरत के नियम को
टूटा पत्ता खाक होकर
आता है जड़ों के करीब
मरकर रचता है फिर
सृजन का नया गीत
●विद्या गुप्ता जी की तमाम देश की प्रसिद्ध पत्रिकाओं-वागर्थ,नया ज्ञानोदय, नवनीत, समकालीन भारतीय साहित्य, अक्षरा, आजकल, अक्षर पर्व में सतत प्रकाशन
●एक कविता संग्रह’औऱ कितनी दूर एवं पारदर्शी होते हुए’ प्रकाशित
●आकाशवाणी और दूरदर्शन से सम्बद्ध
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