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कथायान : प्रेमलता यदु
▪️ कहानी : तरक्की
▪️ प्रेमलता यदु
[ बिलासपुर छत्तीसगढ़ ]
कुछ दिनों से सुंदरलाल जी जब भी अपने बेटे वैदिक से फोन पर बातें करते, उन्हें वैदिक की आवाज बुझी हुई सी लगती. उन्हें ऐसा लगता मानो उनका बेटा नाखुश व परेशान हैं. उसकी आवाज में वह खनक नहीं है जो पहले कभी हुआ करती थी. पहले जब भी वैदिक उनसे बातें करता, उसकी बातों में उत्साह व खुशी होती जो अब कहीं गुम हो गई है ऐसा सुंदरलाल जी को महसूस होने लगा था.
दो साल पहले वैदिक को बंगलूरू के एक बड़ी कंपनी से नौकरी का प्रस्ताव आया और वह अपनी पत्नी झरना व बेटे वेदांत के संग अपने छोटे से शहर की तंग गलियों को छोड़ महानगर की चमचमाती चौड़ी सड़कों पर रेस लगाने और सब से आगे निकल जाने की चाह में दौड़ पड़ा. वैदिक ने बंगलूरू की कंपनी ज्वाइन कर ली और अपना घर, अपना शहर, अपने लोगों, सब छोड़ कर तरक्की की चाह में निकल पड़ा.
वैदिक भी बाकी युवाओं की तरह अपनी जीवन में तरक्की करना चाहता था. जीवन में वो सारी सुख सुविधाएं अर्जित करना चाहता था जो आज के हर युवा का सपना व जुनून होता है. वैदिक एक लग्जरियस लाइफ स्टाइल ज़ीना चाहता था जिसमें आलीशान मकान, बड़ी गाड़ी, मंहगा फोन और कपड़े से लेकर घर का हर एक सामान ब्रांडेड हो. वैदिक के यह सारे सपने नौकरी लगने के दो साल के भीतर ही पूरे हो गए.
जब वैदिक ने लोन लेकर फोर बी.एच.के. फ्लैट लिया तो सुंदरलाल जी और उनकी पत्नी शोभा बंगलुरू गृह-प्रवेश में पहुंचे. शोभा अपने बेटे का महानगर में इतना बड़ा फ्लैट देख कर फूले नहीं समा रही थी. सुंदरलाल जी भी बहुत प्रसन्न थे किन्तु जैसे ही उन्हें ई.एम.आई की मोटी रकम की जानकारी हुई उनके माथे पर चिंता की लकीरें खींच गई और उन्होंने वैदिक से कहा –
” बेटा वैदिक नई नई नौकरी है. इतनी जल्दी इतना बड़ा मकान लेने की क्या जरूरत थी. वह भी इतनी अधिक ई.एम.आई. पर, तुम्हारी आधी तनख्वाह तो ई.एम.आई चुकाने में ही चली जाएगी. फिर घर खर्च के अलावा भी तो कई छोटे बड़े खर्च होते हैं.”
सुंदरलाल जी के ऐसा कहने पर उस वक्त वैदिक ने अपने पिता की चिंताओं को दूर करते हुए कहा था –
” पापा आप क्यों परेशान होते हैं. मैं सब मैनेज कर लूंगा. आपके समय में रिटायरमेंट के बाद मकान बनाया जाता था लेकिन अब ऐसा नहीं है, जमाना बदल गया है. आप चिंता मत करिए. सब हो जाएगा.”
बेटे की बात सुन सुंदरलाल जी चुप हो गए क्योंकि वाकई समय बदल चुका था उनके ज़माने में ई.एम.आई. जैसी सुविधा तो थी ही नहीं . जितना चादर उतना ही पैर फैलाना चाहिए जैसे जुमले का उपयोग किया जाता था. कर्ज लेकर नहीं मितव्ययिता से पैसे जमा करके सुख-सुविधाएं जुटाई जाती थी परन्तु आजकल ऐसा नहीं है.
बंगलूरू से लौटने के पश्चात् एक दिन वैदिक ने फोन पर जानकारी दी कि उसने नई कार भी ई.एम.आई पर खरीद लिया है. इस तरह वैदिक जब कभी भी फोन करता कुछ नया सामान खरीदने की जानकारी देता जिसे सुनकर सुंदरलाल जी चिंतित हो जाते परंतु वे कहते कुछ नहीं. आज जब सुंदरलाल जी ने वैदिक को फोन किया तो उन्हें ऐसा लगा जैसे वैदिक कहना कुछ चाह रहा है और कह कुछ रहा है, उसकी बातों से निराशा झलक रही थी. वह बहुत परेशान हैं ऐसा उन्हें आभास हो गया परंतु सुंदरलाल जी बेटे के मन की बात चाह कर भी जान नहीं पाएं. वैदिक के फोन रखने के बाद सुंदरलाल जी का मन विचलित होने लगा उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने अपनी बहू झरना से बात कर वैदिक की परेशानियों का कारण जानना चाहा किन्तु निराशा ही हाथ लगी. झरना ने कहा –
“पापा जी वैदिक की परेशानियों की वजह तो मुझे भी नहीं मालूम है. पिछले तीन चार महीनों से तनाव में रहते हैं ना ठीक से खाते हैं,ना कुछ बताते हैं. गुमसुम से रहते हैं. ना पहले की तरह हंसते हैं और ना ही मुस्कुराते हैं.”
झरना की बातें सुन सुंदरलाल जी समझ गए कि उनका बेटा परेशानी व मुसीबत में है और उसे उनकी जरूरत है. वे दूसरे ही दिन अपनी पत्नी के संग बंगलूरू पहुंच गए. अपने माता-पिता को इस तरह अचानक आया देख वैदिक भावुक हो उठा. कुछ समय तक तो वैदिक अपनी परेशानियों को अपने भीतर ही दबाए रखने का प्रयास करता रहा परन्तु जैसे ही सुंदरलाल जी ने वैदिक के सिर पर अपना हाथ फेरा, वैदिक टूट गया और अपने पिता को कस कर गले से लगाते हुए बोला-
” पापा मैं ई.एम.आई और क्रेडिट कार्ड के भंवर जाल में पूरी तरह से फंस गया हूं. मुझे समझ ही नहीं आ रहा है कि मैं इससे कैसे बाहर निकल पाऊंगा. मैंने अपने इंक्रीमेंट और प्रमोशन के भरोसे ई.एम.आई भरने और क्रेडिट कार्ड से रूपए खर्च किए थे. अब कंपनी में रिसेशन आने की वजह से मुझे ना ही प्रमोशन मिलेगा और ना इंक्रीमेंट. अब मैं सब कैसे मैनेज कर पाऊंगा.”
वैदिक के ऐसा कहते ही सुंदरलाल जी अपने पॉकेट से एक चैक निकाल कर उसे देते हुए बोले –
” बेटा यह लो चैक, इसे भुनाकर तुम क्रेडिट कार्ड और अपने सारे छोटे-मोटे लोन चुका दो. उसके बाद तुम्हारे पास केवल होम लोन और कार लोन का ही ई.एम.आई रह जाएगा जिसे हम दोनों बाप-बेटे मिल कर हर महीने भर दिया करेंगे.”
अपने पिता का सहयोग और आश्वासन पा कर वैदिक के चहेरे की चमक लौट आई. यह देख कर सुंदरलाल जी की आंखों में भी खुशी के आंसू झलक आए और उन्होंने दोबारा वैदिक को गले से लगाते हुए कहा –
” बेटा लोन और ई.एम.आई. हमारी सुविधा के लिए है लेकिन बिना वजह, बिना योजना या प्रयोजन के लोन लेना, ई.एम.आई के चक्रव्यूह में फंसना ना तो तरक्की है और ना ही बुद्धिमत्ता.”
आज वैदिक ने अपने पिता से कुछ नहीं कहा, बस एक छोटे बच्चे की भांति उनके गले से लगा रहा. वैदिक समझ चुका था कि आज उसके पिता जो कह रहे हैं सही कह रहे हैं.
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