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‘कुछ जमीन से कुछ हवा से’ : खतरनाक होता है सपनों का मर जाना- विनोद साव
यह कथाकार देवांशु के कथा-संग्रह का नाम है और संग्रह में इस शीर्षक से एक कहानी भी है. देवांशु जी कई वर्षों से साहित्य एवं विचार की एक त्रैमासिक पत्रिका ‘पाठ’ का संपादन कर रहे हैं. उन्होंने आठवें दशक के उत्तरार्द्ध से कहानी लेखन आरंभ कर दिया था. पत्रकारिता और रंगकर्म में उनकी रूचि रही है और इसलिए भी उनकी कथाओं के संवादों में बड़ी तरलता और प्रवाह है. वे अपनी कथा के पात्रों को पाठक के मानस पटल में बिठा लेते हैं. उनके पहले भी काव्य-संग्रह और कथा-संग्रह प्रकाशित होकर पुरस्कृत हो चुके हैं. यह उनका तीसरा संग्रह है जिसे परिकल्पना प्रकाशन, दिल्ली ने छापा है. सम्प्रति छत्तीसगढ़ विद्युत मंडल से अवकाश ग्रहण कर देवांशु जी बिलासपुर में निवासरत हैं.
उनके संग्रह में कुछ अनोखी बातें हैं. उनकी कथाओं के कई पात्रों के नाम जाने माने साहित्यकारों से मिलते जुलते से नाम हैं यथा- नवारुण भट्टाचार्य, पुरुषोत्तम अग्रवाल, विनोद साव, लोकबाबू. संग्रह की एक कहानी का शीर्षक है ‘लोकबाबू की चीख’. यह भी देखने में आया कि संग्रह में बतौर भूमिका जो आलेख दिखा वह वरिष्ठ लेखिका नमिता सिंह का आलेख है जो कभी ‘वागर्थ’ में प्रकाशित हुआ था. इसका संग्रह से तो संबंध नहीं है पर कथा की विकासयात्रा से सम्बद्धता है जिसका शीर्षक है ‘रचनात्मकता के नए रास्ते तलाशने होंगे.’
संग्रह के लेखक ने अपनी इस कृति को समर्पित करते हुए लिखा है ‘वरिष्ठ साहित्यकार परितोष चक्रवर्ती, विजय, तरसेम गुजराल, परदेशीराम वर्मा एवं सतीश जायसवाल जी – जिन लोगों को पढ़कर लिखना सीखा.’
संग्रह में सपनों के मर जाने का जिक्र कुछ और कहानियों में हुआ है. एक कहानी में एक बच्चे के सपनों का मर जाना है और एक दूसरी कथा ‘आसमान चुप है’ की पत्रकारिता में संलग्न युवा महिला शांता घोष के सपनों का मर जाना उद्धृत हुआ है. कहानी के अंत में शांता घोष को गोली मार दी जाती है जिसमें उसकी मृत्यु तो नहीं होती पर उसके साथ घटी घटना का अख़बारों में ही जिक्र न कर विरोधियों द्वारा उसकी आकाँक्षाओं का गला घोंट दिया जाता है.
बहरहाल, हम यहां बस एक कहानी की चर्चा करेंगे जो इस संग्रह का नाम भी है. कहानी के मुख्य पात्र अखिलेश बाबू हैं जो छुट्टी लगने पर हावड़ा में पढ़ रही अपनी बेटी को लाने जा रहे हैं. बांग्ला या कोलकाता या हावड़ा पर आधारित कहानियों में सार्वजनिक जीवन में बांग्ला मानुस के ह्रदय में महिलाओं व बच्चों के प्रति संवेदना राह चलते कहीं भी देखने को मिल जाती हैं. कोलकाता की सिटी बसों में भी जहाँ हर चढ़ने वाली महिला के लिए हर बैठा हुआ पुरुष सवार अपनी सीट छोड़ देता है ताकि महिलाएं चलती बस ,में खड़ी न रहें, सुविधाजनक ढंग से बैठ जाएं. बस में अपनी शाला जाने बच्चों का समूह जब चढ़ता है तब वे सभी बच्चे बस में बैठे सवारों से बिना पूछे उनकी गोद में जा बैठते हैं. यह सौहार्द्र भरा नागरिक बोध बंगाल के शहरों में दिख जाता है.
‘खतरनाक होता है, सपनों का मर जाना’ इस कहानी के यात्री जिस हावड़ा जाने वाली ट्रेन में बैठे हुए हैं वहां चलती ट्रेन में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं… और मुसाफिरों को इस बात पर आपत्ति भी नहीं है कि एक कोई बालक गेंदबाजी कर रहा है और दूसरा बालक बल्लेबाजी कर रहा है. बोगी के भीतर उस रास्तानुमा जगह जहाँ से यात्री व फेरी वाले आना-जाना करते हैं एक लड़का हम उम्र लड़के के साथ बैट-बाल खेल रहा है. वे दोनों काफी समय से खेल रहे हैं कभी कभी उनके हाथों से छूटकर आसपास की बर्थ पर बैठे लोगों के पास गेंद चली जा रही थी. कुछ लोग नाराज तो हो रहे थे, फिर भी मुस्कुरा कर उनके हाथों में गेंद लौटा रहे थे. अखिलेश बाबू भी जब ऊंघ रहे थे तब उनके चश्मे को गेंद लगी और वे हडबडा कर उठ गए थे. उन्होंने नाराज होकर देखा तब लड़के ने कहा “सॉरी अंकल”.
अखिलेश बाबू की नजर लड़के के दांयें पांव पर पडी जो कि अपंग है, संभवतः पोलियो के कारण ऐसा हो. तब अखिलेश बाबू द्रवित हुए. वे स्वयं भी कभी कोलकाता में पढ़े थे और अपने स्कूल के फुटबाल खिलाडी थे. उन्हें थोडा यह मलाल भी है कि विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय खेल फुटबाल होने के बाद भी हमारा देश क्रिकेट की दीवानगी से भर गया है… और यह दशा वे बंगाल में भी देख रहे हैं जहाँ फुटबाल का कोई अंतर्राष्ट्रीय खिलाडी तो नहीं हुआ पर भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी बंगाली दादा सौरभ गांगुली कर गए और अंतर्राष्ट्रीय खिलाडी हो गए. यह विचार बांग्ला मानुस के मुखरन में तो नहीं पर उनके भीतरी द्वंद में है. अखिलेश बाबू फुटबाल के खिलाडी थे इसलिए उनकी खेल भावना ने बच्चे के खिलाडी पन के प्रति सदाशयता बरती. बातचीत में वे बालक से पूछ बैठते हैं “तुम्हारे बैट पर यह किसका ऑटोग्राफ है?”
“विराट कोहली का” बालक यह बताता है वह विराट कोहली का बड़ा प्रशंसक है और यह बैट उनके मामा जी ने लाकर दिया है. जब वे किसी मैच में कोहली से मिलकर उनका आटोग्राफ ले पाए थे. इस बैट को उसने अपने भांजे को दे दिया था क्रिकेट के प्रति उसकी दीवानगी को देखकर.
“मैं इस बैट को हमेशा संभालकर रखता हूँ किसी भी दोस्त को नहीं देता. इस बैट को मैं हमेशा अपने पास रखता हूँ.” बालक यह बताता है. अखिलेश बाबू जीवन की कठिन चुनौतियों का सामना करने का उसके अदम्य साहस को देखकर बहुत चकित हैं. उन्हें जीवन में ज्ञात हुए उन खिलाडियों का स्मरण आया जो अपने हाथ पांव खोने के बावजूद भी अनेक मैडल व ट्राफी जीत जाते हैं. इसका एक ही राज है उन बच्चों की लगन, मेहनत व एकाग्रता. उन्हें बालक प्रांजल में भी यह विश्वास दिखाई देता है. वह निश्चय ही अपनी अपंगता को हराकर खेल जगत में एक नया इतिहास रचेगा.
आधी रात एकाएक किसी की चीख से अखिलेश बाबू की नींद खुल गई. बोगी की सभी बत्तियां जल उठीं. पता चला कि किसी शरारती तत्व ने प्रांजल के बैट बाल को फेंक दिया है, जिसे उसने अपने सिरहाने रखा था. बच्चा जोर जोर से रो रहा था जिसे मम्मी पापा समझा रहे थे. इस बैट को चुराकर किसी को क्या मिल सकता था पर किसी संवेदन हीन पाषाण ह्रदय ने यह हरकत तो की है. वह बैट तो एक सामान्य-सी चीज है पर अब उस बच्चे के लिए उसका गुम हो जाना तो उसके अरमानों पर वज्रपात हो जाने से क्या कम है? उसके लिए दूसरी बैट ले देंगे पर वह बैट उसके आदर्श और प्रेरक शक्ति विराट कोहली का हस्ताक्षर युक्त होगा क्या? अरमानों और सपनों के पीछे कोई आदर्श होते हैं, अदम्य प्रेरणा होती है, कोई प्रकाश पुंज होता जिसकी आभा हमें अपने रचनात्मक प्रभाव से घेरे रहती है तब किसी लक्ष्य की प्राप्ति हो पाती है. तब किसी भी प्रतिभा और विशेषकर एक प्रतिभावान बालक या बालिका के साथ यह घट जाना उसके सपनों का विनाश है. उसके लक्ष्य का ध्वस्त होना है. जैसे सौ ग्राम वजन कम न हो पाने के कारण किसी पहलवान का ओलंपिक मैडल से वंचित हो जाना है.
इस कहानी में हम किसी प्रवंचना या वंचना के शिकार हो जाने वाली अपनी प्रतिभाओं के प्रति कितने जवाबदेह होते हैं यह विमर्श तो दिखता ही है. प्रांजल के लिए वह बैट बाल महज एक लकड़ी व रबर का समान नहीं था. वह उसके लिए अपना एक संसार था उसकी खुशियों का उम्मीदों का, जिसे किसी ने चुरा लिया. पाश की कविता की उन पंक्तियों की तरह “खतरनाक होता है किसी के सपनों का मर जाना…”
इसका ब्लर्ब लेखन करते हुए सुजश कुमार शर्मा लिखते हैं कि “संघर्षों का यह आयाम देवांशु की कहानियों में बखूबी उभरकर आते हैं. उनकी वैचारिकी, संघर्ष का स्वरुप, परिस्थितयों के साथ प्रतिक्रिया और अंतत: जीवन के विभिन्न मील के पत्थरों को पार करने की प्रक्रिया को समझने के लिए उनकी कहानियां से गुजरना है, अपितु वर्तमान वक्त की सड़कों पर बिखरे विसंगतियों व विडम्बनाओं के काँटों से दो-चार होना भी है. देवांशु का आत्मसंघर्ष उन्हें भीतर से जिन्दा रखा है और सामाजिक संघर्ष के मध्य वे और भी निखरकर आए हैं.”
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