- Home
- Chhattisgarh
- समीक्षा : ‘बस्तर बस्तर यह अरण्य तो दण्ड का है महाराज!’ लेखक- लोकबाबू : समीक्षक- सुशील यादव
समीक्षा : ‘बस्तर बस्तर यह अरण्य तो दण्ड का है महाराज!’ लेखक- लोकबाबू : समीक्षक- सुशील यादव
देश के ख्यातिलब्ध कथाकार लोकबाबू की चर्चित उपन्यास ‘बस्तर बस्तर : यह अरण्य तो दण्ड का है महाराज!’ एक महत्वपूर्ण कृति है.
‘बस्तर बस्तर’ कृति जो बस्तर की संस्कृति, परंपराएँ और वहां के लोगों के जीवन को दर्शाती है। इस पुस्तक में लेखक ने बस्तर के ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ को बड़े ही गहराई से प्रस्तुत किया है।
इस कृति के माध्यम से लोकबाबू ने बस्तर की हवाई यात्रा करावा दी है | बस्तर की संस्कृति को नजदीक से देखे होने का , वहां के शोषण ,लूट , अधिकारियों की कूट चालें , पुलिसिया बर्बरता , नक्सलवादियों का आतंक सबूत जगह –जगह विद्यमान मिलते हैं |
प्रेम –प्रसंग को इतनी तन्मयता के साथ, विचारों की गहराई ,और मानवीयता की सूक्ष्म नजरों से कोई बिरला ही देख पाता है |
बस्तर –बस्तर उपन्यास के आरंभिक पठन में आभास हुआ कि लेखक ने कड़ी मेहनत की होगी | बस्तर के भूगोल को समझने ,अबुझमाढ को बुझने और वहां की संस्कृति से दो चार होने में पसीना जरुर निकल गया होगा ?
घोटुल परंपरा को इशारे में समझा देना आज की वासना जनित कुत्सित विचारों वाली पीढ़ी के लिए एक मिसाल सा है | लोकबाबू इसमें सफल हैं |
आरंभिक संक्षेप यह है कि एक नायिका हिडिमा को जंगल विभाग का आरक्षक ,सर के बोझा में लकड़ियों के साथ पकड़ लेता है ,उसकी आजीविका कुल्हाड़ी छुड़ा लेता है |
इसे वापस देने के बदले रोज नए बहाने से देह शोषण करता है | जंगल में नायिका के लिए एक झोपड़ी नुमा कुटी तान देता है , अपने एश का सामान महुआ जल ,चखना जमाए रखता है |
नायिका कुल्हाड़ी मांगती है , वो स्नो पाउडर में उलझा देता है |नायिका जब गर्भवती होने की सूचना देती है तो गायब हो जाता है |
उसकी एवज में आया वन आरक्षक इसी लालच को दुहराने की फिराक में होता है तो वह अपनी कुल्हाड़ी उठा लेती है | नया आरक्षक भागने से पहले पुराने के बारे में सुनाता है उसकी शादी हो गई है , दो बच्चो का पिता है वो |
ठगी नायिका , पुराने परिचित बिटबीटा यानि एकदम कालेकलूटे से जो घोटुल में व्यवस्था का काम करने वाला होता है , मगर ,हर किसी को मदद देने वाले हूँगा के संपर्क में आती है |
हूँगा ,जो हिडमा के पिछले इतिहास से वाकिफ था उसे गौण करते हुए अपनाने को तैयार हो जाता है |
हिडमा के विधुर पिता अपने अकेले होने से थोडा विचलित दीखते हैं मगर हूँगा के घर जमाई बनने पर अति प्रसन्न हो जाते हैं |
कालांतर में हिदिमा को बेटी पैदा होती है नाम “इरमा” रखा जाता है |
इरमा का जवानी की देहलीज में नायक रघु से मुलाकात सगाई तक पहुच पाती है , दोनों बस्तर की वादियों में मोटर साईकिल से घूमते घामते , अच्छे दिन के करीब होते हैं तभी बस्तर में सलवा जुडूम यानि तथकथित जनजागरण का शांति अभियान यानी सरकारी आदेश के तहत आदिवासियों की सुरक्षा हेतु शिविर में रहने ठहरने की बाध्यता घोषित हो जाती है , उधर एक और “गुफा-पलटन” युवा वर्ग को अपने दल में खीचने के प्रयास में गाँव-गाव में अपने आन्दोलन में शामिल होने को कहता है | लीडर इरमा के साहसिक दखल से उत्साहित हो के अपने दल में शामिल होने की बात कहता है| लाल सलाम की गूँज शांत वादियों में आदिवासी घरों में देर तक सुनी जाती है |
नक्सलियों की बैठक होती है , एकसाथ १०-१२ आदिवासी टपका दिए जाते हैं जिसमे हिडिमा उसका पति , हूँगा और भाई पनकू यानि ,इरमा के माता पिता मामा होते हैं | इरमा अपने छोटे भाई के साथ लापता है , बाद में उसके नाबालिक भाई की भी हत्या हो जाती है |
रघु नौकरी की तलाश और बीएड करने रायपुर गया होता है , वहां अपने पत्रकार दोस्त पैकरा की मदद से इरमा की खोज जारी रखता है | पत्रकार दोस्त इरमा के करीब पहुच पाने के बाद,स्थानीय मुखबिरी के चलते , पुलिस हाथो मारा जाता है |
वहीं इस पत्रकार के नजदीकी साथी आर पी सिह लोकल वरिष्ठ पत्रकार के माध्यम से रधु को ज्ञात होता है की इरमा जिन्दा है , वह उससे मिलने की उतुकता जाहिर करता है , जिसपर सिह पत्रकार इरमा पर हुई गुफा पलटन की क्रूरता को बताता है जिसकी वजह से वह नक्सल ज्योइन किए होती है |
सिह की चालाकी और पुलिस की भेदिया नीति का शिकार , रघु सरकारी नौकरी पा जाने के बाद जब ड्यटी ज्वाइन करने को होता है, तब इरमा से एक बार मिलने की ललक में वह नक्सल केम्प दर केम्प भटकता है | पुलिस अपने बुने जाल में उसके हर ठिकानों को पता कर लेती है |
इरमा से मिलने के एकं- कदम लगभग दूर होता हे तभी पुलिस घेर लेती है ,एक भद्दी माँ की गाली भर वह सुन पाता है, “चोप्प माइलोटिया” फिर इरमा दूर हो जाती है |
रघु को अहसास होता है की केवल उसकी उपस्थति मात्र से पुलिस हर वो घटना स्थल तक पहुच रही है जहाँ इरमा से मिलने की गुजाइश होती है , इसी से उसके मुखबिर होने का संदेह नक्सल को पैदा हो रहा है ,यह जान , वह एक छोटा खेद भरा पत्र लिख कर एक और मुलाकात की गुजारिश इरमा से करता है |
नियत दिन , समय और स्थान नदी पर बने एक पुलको बनाता है और वहीं पर वह बाट जोहता है|
समय गुजरते शाम हो जाती है , अंत में घर से लाए पानी के बोतल को पुल से नीचे इस संकल्प के साथ फेकता है कि बाटल दूसरी ओर बह निकलेगी तो वह इरमा को पूरी तरह भूल गाँव घर निकल जाएगा
|
पुल के दूसरी ओर इन्तजार करता है , बोतल किसी चट्टान में उलझ जाती है |
रघु कुछ पत्थर उस बाटल की तरफ फेकता है तभी उसके कानों में अनुगूँज सी सुनाई देती है “चोप्प माइलोटिया”
यानि पिछली मुलाकात में सुनी वही माँ की गाली सा संबोधन …….
##
श्री लोकबाबु कहते हैं , छाता और दिमाग जब खुले हों तभी काम का है , वर्ना ये बोझ लगता है |जिस प्रसंग में लोकबाबू ये कह गए हैं वो अक्षरश: सच के करीब है |
उपन्यास के प्रमुख तत्व:
प्रकृति का चित्रण: जंगल की हरियाली, प्राकृतिक सौंदर्य , नदी –पहाड़ –झरने को जीवंतता के साथ पेश किया है। इस चित्रण में पाठक खुद को उस वातावरण में महसूस करता है।
मानवता और संघर्ष: उपन्यास में आदिवासी जन , पुलिस , नक्सली के बीच के संघर्ष और बर्बरता को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है । कैसे इंसान अपनी स्वार्थी इच्छाओं की चाल में एक शांत और सीधे -सादे इलाके का संतुलन को बिगाड़ देता है।
संवेदनशीलता: इसमें रिश्तों संवेदनशीलता को , पात्रों की भावनाएँ को और उनके खुद के साथ होते संघर्ष को गहराई से व्यक्त व्यक्त किया हैं।
सामाजिक मुद्दे: बस्तर के सामाजिक मुद्दों को , जैसे पर्यावरण संरक्षण, आदिवासी संस्कृति का बचाव , आदिवासियों के अधिकारके प्रति राजनैतिक उदासीनता , अत्यंत प्रासंगिक तरीके से यत्र –तत्र मिल जाते हैं ।
लोकजीवन की सच्चाइयों, और संघर्षों को जूझते बस्तर जन के मनोविज्ञान को करीब से पढ़ा गया लगता है | है।
इस तरह, “लोकबाबू ने “बस्तर -बस्तर” में केवल एक उपन्यास नहीं, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज दिया है ।
जिसे स्मृति में लम्बे समय तक सहेज के रखा जा सकता है |
कुल मिलाकर, यह कृति न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि बस्तर के समाज और संस्कृति को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है।
• संपर्क –
• लोकबाबू : 99770 30637
• सुशील यादव : 70002 26712
०००