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पुस्तक समीक्षा : ‘आदमी खोजता हूँ’ – जगदीश देशमुख : समीकक्ष – टीकेश्वर सिन्हा ‘गब्दीवाला’
अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की उक्त काव्योल्लेखित सारगर्भित पंक्तियों से अवगत होता है कि जिस प्रकार नीलव्योम पर तमस अपना प्रभाव तभी डालता है जब पूर्वदिशि भानोदय की स्वर्णिम आभा अदृश्य हो ; ठीक उसी प्रकार साहित्य संयोजन के बगैर कोई देश भी निष्प्राण सा अर्थात् संवेदनशून्य ही लगता है, या यूँ कहें कि साहित्य के बिना किसी भी देश-काल की सामाजिक वस्तुस्थिति निर्धारित नहीं हो पाती; इसीलिए तो ‘ साहित्य समाज का दर्पण है’ के अनुसार सामाजिक मानवीय भाव-विचार, रहन-सहन, व्यवहार व क्रियाकलाप साहित्य रूपी दर्पण में प्रतिबिंबित होता है। तभी तो साहित्यिक आइने पर समस्त सामाजिक क्रियान्वित किरणें जिस माध्यम से आपतित होती है; वह माध्यम होता है साहित्यकार। एक साहित्यकार साहित्य को एक निश्चित व निर्धारित आकार देते हुए समाज के दैहिक स्वरूप को सजीव बनाए रखता है। इसी परिप्रेक्ष्य में हमारे छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जगदीश देशमुख जी ने अपने काव्य संग्रह ‘ आदमी खोजता हूँ ‘ जिसमें साठ कविताएँ संग्रहित हैं , के जरिये सामाजिक यथार्थता को जीवंत बनाए रखने का भरसक प्रयास किया है; सचमुच सराहनीय है।
कवि देशमुख जी ने अपने काव्यावनि ‘ आदमी खोजता हूँ ‘, पर ज्ञान व विद्या की देवी माँ वागीश्वरी को ‘ हे माँ शारदे ! ‘ जैसे शीतल सलिल वर्णों के साथ अपना प्रथम भावस्तुत्यार्पण किया है।
‘ हे ! माँ शारदे !
ज्ञान भक्ति का विमल कर दे।
ज्ञान का आलोक भर दे। ‘
आधुनिक काल के छायावाद के प्रखर व प्रगतिवाद प्रवर्तक कवि डाॅ. हरिवंशराय बच्चन ने अंग्रेजी के एक मू्र्धन्य कवि विलियम बट्लर यीट्स पर शोधपरक कार्य किया; और वे अंग्रेजी भाषा के प्राध्यापक हुए , परन्तु उनका नाम हिंदी की कालजयी रचनाओं के जरिये हिंदीसाहित्य के रजत पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। इसी तर्ज पर देशमुख जी अंग्रेजी भाषा के अध्यापक होते हुए उनकी लेखनी हिंदी साहित्य सृजनशीलता पर चली है; और आँचलिक छत्तीसगढ़ी बोली के शब्दों – अंजोर, डबरा, फुग्गा, सुआ, ददरिया गली-खोर का प्रयोग उनके काव्यसौन्दर्य को बनाए रखा है। वे अपनी ‘ नदी ‘ कविता पर नदी के स्वच्छंद अविरल प्रवाह के साथ उसकी लक्ष्य-प्राप्ति पर लिखते हैं-
‘ नदी कभी नहीं बन सकती
पोखर, डबरा और तालाब,
और नहीं रोक सकती।
अपने अनंत प्रवाह को ,
क्योंकि-
उसे मिलना है
अनंत, अगाध, असीम
अपरिमित पयोधि से। ‘
भौतिक संसार की अंतिम परिणाममयी सत्य है- जीवन और मरण। तभी तो ज्ञानमार्गी संतकवि कबीरदास की तरह देशमुख जी भी जीवन को नश्वर बताते हैं; साथ ही जीवन जीने के तौर-तरीक़े को महाभारत जैसे महाकाव्य की तर्ज पर क्षणभंगुर व घड़ी भर का नाटक-चुटकुला की उपमा देते हैं। इससे उनके काव्यसृजनशीलता में रहस्यवादिता की झलक परिलक्षित होती है। जीवन से मृत्यु तक की यात्रा के निष्कर्ष से एक सामान्य शख्स सिद्धार्थ से बुद्ध बनना, को कवि स्वीकारते हैं। ‘ जिंदगी एक जुआ है, लगा दे इसे दाँव पर / अपने को समर्पित प्रभु के पाँव पर’ अर्थात कवि के अनुसार ईश्वरीय सत्ता के समक्ष नत होकर जीवन व्यतीत करना ही सर्वोत्तम जीवन है। सच अंग्रेजी का एक महाकाव्य ‘ पैराडाइज़ लाॅस्ट ‘ के रचयिता जाॅन मिल्टन के काव्यभाव का स्मरण कराती हैं देशमुख जी की काव्यरचनाधर्मिता। ‘ जीवन का उत्सव ‘ में जीवन का जिक्र एक ध्यानाकर्षण केंद्र बिंदु है-
‘ पुण्य धरा की देहरी फर,
बंधी आज है आशा।
अंतस ज्ञान ज्योति जलेगी,
मुखर मौन की भाषा। ‘
सिने अभिनेता अजीत अभिनीत हिंदी मूवी ‘ नास्तिक’ का लोकप्रिय गीत ‘ देख तेरे संसार की हालत , क्या हो गया भगवान , कितना बदल गया इंसान…सूरज न बदला, चाँद न बदला, न बदला रे आसमान..कितना बदल गया इंसान ‘ ; बिल्कुल सच बात है। यही तथ्य कवि देशमुख जी के चिंतन, मनन के लिए पर्याप्त बन पड़ा है। आधुनिक मानवसमाज से गुम होती मानवता कवि को बहुत अखरती है। आज समाज असत्य, अन्याय व भ्रष्टाचार, अहिंसा का ठौर बन चुका है। आदमियत के अभाव पर चिंतनशील कवि देशमुख जी का विचार संग्रह के शीर्षक कविता ‘आदमी खोजता हूँ ‘ में द्रष्टव्य है-
‘ आदमी के भीड़ में,
एक आदमी खोजता हूँ। रात और दिन
बस यही सोचता हूँ,
कि आदमी के भीड़ में,
आदमी कहाँ है?
प्रश्नाहत हूँ! स्तब्ध हूँ!
मुझे उत्तर नहीं मिलता,
राम , कृष्ण, बुद्ध
नानक और कबीर खोजता हूँ। ‘
कलमकार देशमुख जी की अहसास, परिभाषा, पराकाष्ठा, अंतहीन द्वंद्व, रक्तिम इतिहास, रोटी, कैकेई, डगर चाहिए , कर्मवीर जीवन जैसे शीर्षक कविताएँ ‘गागर में सागर’ तथ्यपूर्ण रचनाएँ हैं, जिनमें शिक्षा, सामाजिक संचेतना, धर्मानुगत नसीहतें निहित हैं। कविता कोमल हृदय की चीज है, भाव लिये कवि ने माँ की ममता, नारी व्यथा, पुत्री-स्नेह जैसे साममजिकसंदेशपरक कविताएँ- मातृ वंदना, मत मारो बेटियों को , नारी करूणा की अवतारी मदर टेरेसा अत्यंत हृदयस्पर्शी हैं। कवि ने सामाजिक मिथ्याडंबर, अधर्म, अन्याय, अहिंसा व हैवानियत पर शिकंजा कसते हुए राष्ट्रप्रेम, कर्तव्यनिष्ठा, कुलीन राजनीति, हिन्दी-स्नेह व गाँधीवाद को लेखनीबद्ध कर एक उत्कृष्ट काव्सृजनशीलता का परिचय दिया है। रोटी, कपड़ा और मकान में से सर्वोपरि मूलभूत आवश्यकता ‘रोटी’ पर कवि अपना सैद्धान्तिक विचार रखते हैं-
‘ …इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने
देखा था, ” रोटी “में वेदांत को
शिकागो की धरती पर रखा
भूख के सिद्धांत को। ‘
कवि जगदीश देशमुख जी की सभी छंदमुक्त व नई कविताओं की भाषा शुद्ध, सरल व परिमार्जित है। कहीं-कहीं पर शब्दालंकार की सुंदर छवि झलकती हैं, तो कहीं पर अर्थालंकार दृष्टिगोचर होते हैं। जीवनसारतत्वों से परिपूर्ण संग्रह पठनीय, सराहनीय व संग्रहणीय है। यथोचित विरामचिन्हों के प्रयोग का अभाव एवं अनुनासिक-अनुस्वार की उचित उपयुक्तता की कमी से संग्रह में आंशिक ग्रहण सा लगता है, फिर भी विविधरंगी कविताओं की भावमयी शशिकर की आभा से संग्रह पूर्णमासी सा प्रतीत होता है। अंत में कहना चाहूँगा कि मैं आशान्वित ही नहीं, वरन् विश्वस्त हूँ कि कवि जगदीश देशमुख जी का संकलन ‘ आदमी खोजता हूँ ‘ समस्त पाठकवर्ग के हृदयथाल पर सभी कविताएँ पीतवर्णी आभा व उच्चशिखा लिये दीये की भाँति सदैव प्रज्जवलित होती रहेंगी।
▪️ टीकेश्वर सिन्हा ‘गब्दीवाला’
▪️ संपर्क : 97532 69282
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