कविता आसपास : रंजना द्विवेदी
• अंततः वो हार गई
• रंजना द्विवेदी
[ रायपुर छत्तीसगढ़ ]
शीत ऋतु का समय
घना कोहरा छा गया
दिशाएं धवल उज्ज्वल हुई
ओस की बूंदों से प्रकृति भीग गई
जैसे ही खिड़की का पट खोली
सहसा आँखें दालान पर गई
एक चिड़िया जख्मी मिली
अंदर से रूह मेरी कांप गई
देख उसे हाल बेहाल हुआ
सोचा उसके पास मैं जाऊं
उसके घाव पर मरहम लगाऊं
जानना चाहती थी उसके दर्द की वजह
मुझे देख वो हो गई असहज
उसके कातर आंखों में
दर्द का सैलाब दिखा था
उसके सजल नयन को देख
मेरा मन व्यथित हुआ था
निकली थी वह नीड़ से अपने
बच्चों की क्षुधा भरने
क्या पता था उस चिड़िया को
बिछा हुआ था जाल उसके लिए
सीधा सादा जीवन उसका
हर प्रपंच से थी वो परे
जाल में फंस गई वो नादान
आदम की दरिंदगी देख थी हैरान
वो तड़पी और छटपटाई
अपनी जान बचाने खातिर
ना जाने कितनी तरकीब लगाई
उस दुराचारी के आगे
हो गई थी वो लाचार
अपनी इस दशा को देख
वो बहुत घबराई थी
कैसे वापस घर जाएगी
अपने बच्चों की क्षुधा को
अब कैसे वो मिटाएगी
पंख टूटा लहूलुहान थी काया
नियति को भी तरस ना आया
अपनी जान बचाने को वो
अंतिम सांस तक लड़ती रही
इंसानी बर्बरता के आगे
अंततः वो हार गई,,,,
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