लघुकथा
●नये वर्ष की पार्टी और पीली पड़ती आँखें
●महेश राजा
रोशनियों की झिलमिलाहट के बीच शहर में हर तरफ पार्टियां चल रही थी।वर्ष 2020विदा हो रहा था,और 2021का आगमन कुछ मिनटों में ही अपेक्षित था।
महामारी का भय कुछ कम हुआ।सभी को इंतज़ार था वैक्सीन का।
इस बार शहर में हर तरफ केक और मिठाइयों की बहुत सारी दुकानें खुली थी।लोग खुश थे।सभी ने जी भर कर खरीदारी की थी।पटाखे भी खूब बिके थे।
परेशान थे तो वे लोग जिन्हें रोज सुबह उठ कर कुछ न कुछ मेहनत कर,दिन भर खट कर घर के लिये दाल-रोटी जुटानी होती थी।
ऐसा ही एक व्यक्ति रमतू था।जो इन सबसे अलग दूर एक पेड़ के पीछे छिपा खड़ा था।पहले कुछ कामकाज कर वह दो समय की रोटी जुटा लेता था।जबसे बीमार पड़ा था,लोगों ने उसे काम देना बंद कर दिया था।अब वह मजबूरन भीख मांग कर अपने बच्चों का पेट भरता था।
आज भी उसे ईंतजार था कि ये बड़े लोगों की पार्टी समाप्त हो,नौकर चाकर कुछ झूठन बाहर फेंके तो वह ले जाकर बच्चों का पेट भर सके।उसको अपने बच्चें याद आ रहे थे।उनकी पीली पड़ती आँखें याद आ रही थी,तो वह अपनी लाचारी पर रो पड़ा।पांव लड़खड़ा रहे थे।मगर किसी तरह हिम्मत कर अपने पैरों पर खड़ा था।
हाल के भीतर से म्यूजिक और नाच -गाने की तेज आवाजें अब भी आ रही थी।शायद पार्टी देर रात तक चलने वाली थी।
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