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इस माह के ग़ज़लकार : डॉ. नौशाद अहमद सिद्दीकी ‘सब्र’

2 months ago
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👉 • डॉ. नौशाद अहमद सिद्दीकी ‘सब्र’

• ग़ज़ल

उसको कितना गुरूर है देखो,
कुछ तो दिल में ज़रूर है देखो।

वो समझते नहीं किसी को कुछ,
किस नशे में वो चूर है देखो।

उसको शायद ख्वाब आया है,
रोज़ बढ़ता गुरूर है देखो।

उसपे इल्ज़ाम लगाते रहते मगर,
आज भी बे कुसूर है देखो।

कुछ पता ही नही वो कहते क्या,
कैसा उसका शुरूर है देखो।

सबकी सुनता है वो पुकारो तो,
वो भले हमसे दूर है देखो।

आज नौशाद, कुछ भी कहता है,
उसका कुछ क्या कुसूर है देखो।

▪️

• ग़ज़ल

साल जो भी गया खूब था दोस्तो,
साल भर उसका सिक्का चला दोस्तो।

हर किसी को मुबारक नया साल हो,
दिल तो मेरा यही चाहता दोस्तो।

ये नया साल है देखना है इसे,
क्या वो कर पाएगा कुछ भला दोस्तो।

क्या पता क्या मिलेगा नए साल में,
देश सारा खुशी हो रहा दोस्तो।

साल तो आते जाते ही रहते मगर,
ये नया साल भी जायेगा दोस्तो।

सोच मेरी यही ये नया साल भी,
ये भी हमसे मुकर जायेगा दोस्तो।

इल्तिज़ा आज नौशाद, सबसे करे,
अम्न से होता सब का भला दोस्तो।

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• ग़ज़ल

आखिर सफर ये रोज क्यों करती है जिंदगी,
सड़कों पर रोज दौड़ती फिरती है जिंदगी।

दारू, चरस अफीम, सुलेशन के नशें में,
हर लम्हा डूब डूब के मरती है जिंदगी।

हर दिन कुतर ही जाती है मेरी जिंदगी को,
चूहे की शक्ल जब भी धरती है जिंदगी।

ख्वाहिश बुलंदियों की करूं किस लिए जनाब,
नीचे बुलंदियों से गिरती है जिंदगी।

दो चार अरब देश के दौलत समेटकर,
किस शान से अमीरों की गुजरती है जिंदगी।

हसरत से हम बिछाए आंखें खड़े तो हैं,
न जाने कहां जा के बरसती है जिंदगी।

सजन गए विदेश आंखों से ऐ सखी,
सावन में बूंद बूंद टपकती है जिंदगी।

जिस दिन से कदम अपना रखती है ऐ नौशाद,
कितने ही मरहलों से गुजरती है जिंदगी।

▪️

• संपर्क-
• 93015 84627

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