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- विशेष आलेख : चुनाव रणनीति फर्मों को राजनीति आउटसोर्स करने के खतरे – आलेख, शुभम शर्मा : अनुवाद, संजय पराते
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विशेष आलेख : चुनाव रणनीति फर्मों को राजनीति आउटसोर्स करने के खतरे – आलेख, शुभम शर्मा : अनुवाद, संजय पराते
• प्रशांत किशोर
प्रशांत किशोर उर्फ पीके एक अनुभवी चुनाव रणनीतिकार हैं, जिन्होंने 2014 में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में लाने में मदद की थी और वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोर टीम का हिस्सा थे। इससे पहले, उन्होंने 2011 के गुजरात विधानसभा चुनाव अभियान में मोदी की मदद की थी, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। बाद में प्रशांत किशोर उनसे अलग हो गए और उन्होंने अन्य राजनीतिक दलों को भाजपा या उसके सहयोगियों को हराने में मदद की।
प्रशांत किशोर की इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी या आई-पीएसी के ग्राहकों में दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) से लेकर तमिलनाडु में स्टालिन के नेतृत्व वाली द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) तक शामिल हैं। राजनीति, विचारधारा और संगठन में अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी आई-पीएसी के साथ जुड़ने का प्रयास किया था, लेकिन मामला खटाई में पड़ गया और अब यह योजना ठप्प हो गई है। जब, पीके ने “मुद्दों को बेहतर ढंग से समझने” के लिए बिहार भर में यात्रा करने का फैसला किया था, तब अटकलें लगाई गई थीं कि वह इस राज्य में अपनी कोई पार्टी बना सकते हैं या किसी पार्टी का समर्थन कर सकते हैं।
प्रशांत किशोर और उनकी आई-पीएसी के संचालन का तरीका मुख्य रूप से विशाल पैमाने पर संग्रहित आंकड़ों के साथ काम करना, ज़मीनी स्तर पर तथ्य जुटाना, जिस पार्टी या नेता से वे जुड़े हैं, उसकी लोकप्रियता का आंकलन करना और जहां भी कोई कमज़ोरी नज़र आए, वहां अपने अभियान से उसे सुव्यवस्थित करना शामिल है। पिछले साल बंगाल चुनावों के दौरान मैंने जो कार्यप्रणाली देखी, वह थी प्रशांत किशोर के लोगों का निर्वाचन क्षेत्रों में तेज़ी से घूमना और लोगों की तो बात ही छोड़िए, स्थानीय नेतृत्व को भी दरकिनार करते हुए सीधे हाईकमान को उम्मीदवार के बारे में सुझाव देना।
अमेरिकी संगठन पॉलिटिकल एक्शन कमिटी (पीएसी) के नाम पर प्रशांत किशोर ने अपने फर्म का नाम आई-पीएसी रखा है, लेकिन यह उससे अलग है। अमेरिकन फेडरेशन फॉर लेबर (ए एफ एल) और कांग्रेस ऑफ इंडस्ट्रियल ऑर्गनाइजेशन (सी आई ओ) ने 1940-60 के दशक के बीच संगठित मजदूरों से डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवारों के लिए, उदार-सामाजिक और आर्थिक सुधारों के समर्थन में, दान लेने के लिए पीएसी की शुरुआत की थी। बाद में जाकर धनी कॉरपोरेटों ने पीएसी प्रणाली पर कब्ज़ा कर लिया, खास तौर से 1963 में बिजनेस इंडस्ट्रियल पॉलिटिकल एक्शन कमेटी के गठन के बाद।
इस पीएसी में व्यवसाय की भागीदारी ने अमेरिकी कांग्रेस के मौजूदा सदस्यों के पक्ष में चुनावों में धांधली करने का रास्ता खोल दिया। पीएसी को प्राप्त 60% से अधिक धन उनके पास गया। इसका परिणाम यह हुआ कि व्यवसाय और बड़ी धनराशि अमेरिकी राजनीति में प्रवेश कर गई, जिससे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व का आधार ही खतरे में पड़ गया।
प्रशांत किशोर की आई-पीएसी व्यवसाय और सरकार के बीच तालमेल बिठाने का कार्य नहीं करती है। शायद इसकी वजह सरकार द्वारा 2018 में लाई गई भयावह चुनावी बॉन्ड योजना है, जिसके ज़रिए बड़े कॉरपोरेट दानकर्ता अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टी को बड़ी रकम दान कर सकते हैं और फिर भी, जनता की नज़रों से ओझल रह सकते हैं।
बहरहाल, आई-पीएसी जैसे संगठन और प्रशांत किशोर जैसे व्यक्ति भारतीय प्रतिनिधि लोकतंत्र में सेंध लगाने और बड़े पैसे वाले दलों के पक्ष में धांधली करने की क्षमता रखते हैं। इसके लिए उनकी फीस बहुत ज़्यादा होगी, जिसका अनुमान आई-पीएसी के सालाना कारोबार से लगाया जा सकता है। 2021 में यह 103.217 करोड़ रुपये से ज्यादा था और तीनों निदेशकों का कुल वेतन 2.67 करोड़ रुपये था।
चूंकि अधिकांश राजनीतिक दल अपना अधिकांश धन कॉर्पोरेट दान से जुटाते हैं, इसलिए हम कॉर्पोरेट-बहुलता और राजनीति के बीच एक नाभिनाल संबंध देख सकते हैं। ऐसा नहीं है कि चुनावी रणनीति बनाने वाली फर्मों के उदय से पहले ऐसे संबंध मौजूद नहीं थे। लेकिन चुनावी रणनीति फर्मों के उदय ने चुनावों में धन-दौलत की हिस्सेदारी के परिमाण को बढ़ा दिया है। 2009 के आम चुनाव में लगभग 200 करोड़ डॉलर (लगभग 17000 करोड़ रुपए) खर्च हुए थे, जबकि 2014 के चुनावों के लिए कीमत 500 करोड़ डॉलर (लगभग 425000 करोड़ रुपए से अधिक) थी। दुर्भाग्य से, आई-पीएसी द्वारा ली जाने वाली फीस का कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है। इसलिए, किसी को सैकड़ों करोड़ के अनुमानों को बेबुनियाद मानकर इस पर संदेह भी नहीं करना चाहिए।
भारत एक उत्तर-औपनिवेशिक लोकतंत्र है, जिसने निरंतर जन आंदोलनों के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शिकंजे से अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की है। राजनीतिक दलों द्वारा वास्तविक जन आंदोलनों को दरकिनार करना और कॉर्पोरेट शैली की रणनीति फर्मों पर निर्भर रहना हमारी शानदार उपनिवेशवाद विरोधी, राष्ट्रवादी विरासत को क्रूरतापूर्वक नष्ट कर देता है। साल भर चलने वाला किसान आंदोलन वास्तव में यह याद दिलाता है कि गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की वास्तविक चिंताओं से पैदा जैविक जन-आंदोलनों का स्थानापन्न संख्याओं की गणना करना और आंकड़ों का विशाल संग्रहण नहीं हो सकता।
दूसरा, मौजूदा सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष के बीच स्वाभाविक वित्तीय असमानता तब भुनाई जाती है, जब रणनीति बनाने वाली फर्में भारी भुगतान के बदले सहायता के लिए उपलब्ध होती हैं। विपक्षी पार्टी पैसे की कमी के कारण समान तरीकों को अपनाने का अवसर खो देती है, और मौजूदा सत्ताधारी पार्टी भ्रष्ट आचरण में लिप्त होकर जनता को निचोड़ने के लिए योजना बनाती है।
तीसरा, कॉरपोरेट शैली की रणनीति भी पूंजीवादी नवउदारवादी परियोजना को सफल बनाती है। आम आदमी, जो पहले से ही नवउदारवाद के तहत कई भागों में बंटकर अलग-थलग हो चुकी है, के लिए चुनाव आम तौर पर राजनीतिक दलों से अपने वोट के लिए अधिक से अधिक की मांग करने का एक अवसर होता है। चुनावी रणनीतिकारों द्वारा गढ़े गए चमकीले बायलाइन और सारहीन, उत्तेजक बयानों के कारण यह संभावना भी खत्म होती दिखती है। चाय पर चर्चा और नीतीश का निश्चय जैसी तुच्छ बातों के इर्द-गिर्द ही राजनीति घूमती दिखती है, जो चौबीसों घंटे टेलीविजन स्क्रीन, इंटरनेट, होर्डिंग्स और तख्तियों पर दिखाई जाती हैं, जिससे जनता द्वारा उठाई जाने वाली वास्तविक मांगों और नारों के लिए दरवाजे बंद हो जाते हैं।
चौथा, विचारधारा से परे जाकर न्यूनतम राजनीति करना रोजमर्रा की बात हो जाती है। चूंकि फर्मों द्वारा चुनावी रणनीति काले धन के इर्द-गिर्द घूमती है, इसलिए राजनीति की वैचारिक बुनियाद कहीं पीछे छूट जाती है। सांप्रदायिक भाजपा और राजनीतिक रूप से उसका समर्थन करने वालों के लिए सेवाएं उपलब्ध हैं। मजदूर वर्ग पर आधारित मांगें, जैसे कि न्यूनतम वेतन बढ़ाना और न्यूनतम वेतन 25,000 रुपये सुनिश्चित करना — जो वामपंथियों और सहयोगी ट्रेड यूनियनों की लंबे समय से मांग है — राजनीतिक संगठनों द्वारा कार्रवाई के संभावित कार्यक्रम के रूप में कभी अपनाई नहीं जाती हैं। इसलिए, भारतीय राजनीति पैसे कमाने वाली चुनावी रणनीति के बिना ही बेहतर हो सकती है।
दुनिया के इतिहास में कोई भी बड़ा सामाजिक संघर्ष बोर्ड-रूम रणनीति के बल पर नहीं लड़ा गया है और न ही जीता गया है। भारतीयों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे इस देश के ‘नागरिक’ हैं, न कि कॉरपोरेट शैली की रणनीति की विषय वस्तु। वर्ष 2025 सांप्रदायिक घृणा की विभाजनकारी राजनीति और नव-उदारवादी बाजीगरी के खिलाफ जन आंदोलनों की एक श्रृंखला का आह्वान कर रहा है।
• शुभम शर्मा
[ • लेखक शुभम शर्मा स्वतंत्र शोध अध्येता हैं. • अनुवादक संजय पराते अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं. ]
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