कविता -गोविन्द पाल, छत्तीसगढ़
●पैदल ही चल पड़े
[ गोविन्द पाल,प्रदेश के चर्चित बाल रचनाकार हैं. लॉक डाउन के दौरान अखबारों में छपी एक घटना से गोविन्द पाल जी की अंतरात्मा को इतना झकझोर दिया कि उन्होंने अपनी पीड़ा को शब्द रूपी कविता में ढालने का प्रयास किया. ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के सदस्य द्वारा रचित मौलिक रचना-कोरोना काल में,’पैदल ही चल पड़े’ पर अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत करवायें. -संपादक ]
परिवार की जिम्मेदारी के जज्बे
पसीने बहाने का हिम्मत
और मेहनत की आत्मविश्वास के साथ
गांव के झोपड़ों से निकलकर
हजारों मील दूर
भूख से लड़ने गये थे शहर,
पर दुनिया के प्रतिस्पर्धाओं में
चीन के सुपर पावर बनने की
भूख के आगे
विवश है गांव से शहर गये
करोड़ों मजदूरों की भूख,
मैं
कैसे भूल सकता हूं
उस अमानवीय दास्ताँ को
भूख और मौत के तांडव के बीच
दिन भर हाड़ – मांस गलाने वाली
थकान के बाद
जब शाम को लौटकर देखता है
ताले जड़े उनकी किराए के
खोली के सामने बिखरे हुए
सामानों के बीच डरी सहमी
रोते बिलखते उनकी बच्ची को
तो वह गरीब,मजदूर मजबूर मां-बाप
एक ही झटके में देख लेता है
इस संवेदनहीन शहर के तस्वीर को,
फिर इस शहर के चेहरे पर
एक जोरदार तमाचा जड़ते हुए
छलछलाती हुई आंखों से
बिखरे हुए सामानों को समेटते हुए
मन ही मन प्रतिज्ञा करते हैं
दुबारा कभी लौटकर नहीं आना
इस निर्दयी -निष्ठूर बिखरे हुए शहर में,
फिर सामानों की गठरी लादते हुए
बच्ची को गोद में उठाये
पुनःहिम्मत और आत्मविश्वास के साथ
लक्ड डाऊन के बावज़ूद
हजारों मील दूर पैदल ही चल पड़े
अपनी गांव की ओर
जहां भूख जरुर है
पर आज भी
इंसानियत बरकरार है।
●लेखक संपर्क-
●75871 68903
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